केंद्र सरकार के लाए कृषि कानूनों के खिलाफ जो किसान आंदोलन शुरू हुआ भारतीय लोकतंत्र की किताब में उसे आजादी के बाद का अहम अध्याय कहा गया। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद सवाल उठा कि क्या यह आंदोलन नाकाम हुआ? जिस आंदोलन के कारण पूर्ण बहुमत वाली मजबूत सरकार ने कृषि कानूनों को वापस लिया उसे नाकाम नहीं कहा जा सकता है। कानून और आंदोलन वापसी के बाद योगी आदित्यनाथ ने किसानों की शिकायतों को अपने तरीके से दूर करने की पूरी कोशिश की। वे समझ रहे थे कि किसान अब एक अलग वर्ग नहीं रहा, बल्कि कई पहचानों में बंटा हुआ है। योगी ने किसानों की बिखरी पहचानों को अपने हिंदुत्व और कानून-प्रशासन के मुद्दे पर समेटने में कामयाबी पाई। खेतों में हल को छोड़ मुखालफत का झंडा उठाने वाले किसानों के मुश्किल सवालों से योगी ने अपने लिए जो हलादेश निकाला उस पर बेबाक बोल।
पिछले साल एक टीवी चैनल की प्रस्तोता योगी आदित्यनाथ से सवाल करती हैं-योगी जी विपक्षी दल सोच रहे हैं कि किसान आंदोलन से ही किसान जुड़ेंगे और सरकार घिर जाएगी। आपको लगता है कि किसान आंदोलन के बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश आपके लिए बहुत बड़ी समस्या बनता जा रहा है? जो जाट आपके साथ खड़े थे वे खड़े नहीं होंगे?
इस सवाल के जवाब में योगी आदित्यनाथ कहते हैं, ‘हम जाति पर आधारित राजनीति नहीं करते हैं। परिवार मेरा है नहीं, इसलिए पश्चिमी उत्तर प्रदेश का हर व्यक्ति इस बात को जानता है कि अगर भाजपा है तो पश्चिम, पूर्व, मध्य और बुंदेलखंड में भी सुरक्षा है। आखिर इसी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दंगे होते थे। जो लोग किसान आंदोलन को जाति के साथ जोड़ रहे हैं, मुजफ्फरनगर में शहीद हुए लोगों के साथ अन्याय नहीं कर रहे हैं? किसानों के हित के लिए जितना काम केंद्र की भाजपा सरकार ने किया है, इससे पहले कभी नहीं हुआ। एमएसपी का लाभ किसान के खाते में जाए, यह मोदी सरकार ने ही किया है।’
इस साक्षात्कार में योगी खेती-किसानी के हक में लिए भाजपा सरकार के फैसलों का उल्लेख करते हुए कहते हैं, ‘राकेश टिकैत के आंदोलन का हम स्वागत करना चाहेंगे। किसान का स्वागत होगा, लेकिन कानून से खिलवाड़ होगा तो उसका वैसा ही स्वागत होगा’।
केंद्र सरकार ने जब किसान आंदोलन को देखते हुए तीन कृषि कानूनों को वापस लिया तो राजनीतिक विश्लेषकों का जोर सबसे ज्यादा इसी बात पर था कि यह कानून उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव को देखते हुए वापस लिया गया। दस मार्च 2022 को विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद सबसे बड़ा सवाल यही था कि क्या सभी राजनीतिक विश्लेषक गलत थे? क्या अब तक का अभूतपूर्व आंदोलन कहा जाने वाला किसान आंदोलन पूरी तरह नाकाम रहा?
राजनीतिक विश्लेषक अपनी जगह सही थे। कृषि कानूनों की वापसी उत्तर प्रदेश और पंजाब जैसे राज्यों के चुनावों को देखते हुए ही की गई थी। लेकिन योगी आदित्यनाथ की उत्तर प्रदेश में लगातार दूसरी जीत को हम किसान आंदोलन की नाकामी के रूप में नहीं देख सकते हैं। किसान आंदोलन को नाकाम बता कर हम एक अभूतपूर्व आंदोलन और योगी आदित्यनाथ की राजनीतिक दूरदर्शिता तथा जमीन पर की गई कड़ी मेहनत को नजरअंदाज करने की गलती ही करेंगे।
भाजपा की सियासी सेहत पर किसान आंदोलन का असर पड़ना शुरू हो गया था। बंगाल से लेकर कई जगहों के उप-चुनावों में जब जनता ने ‘उप-हार’ दिया था तो भाजपा नेतृत्व ने सबक ले लिया कि राजनीति में एक कदम आगे बढ़ने के लिए खेती से जुड़े कानूनों को लेकर दो कदम पीछे हटने में कोई हर्ज नहीं है। केंद्र सरकार ने जब खेती से जुड़े कानून वापस लिए तो उसकी भाषा यही थी कि हम लोगों को इस कानून के बारे में समझा नहीं पाए और इसके लिए बाकायदा माफी मांगी। किसान आंदोलन को अगर लोकतंत्र की मजबूत तस्वीर के रूप में देखा जा रहा था तो सरकार की यह माफी भी उसी तस्वीर में नया लोकतांत्रिक आयाम जोड़ रही थी।
किसान आंदोलन सिर्फ पश्चिमी उत्तर प्रदेश में नहीं हो रहा था। इस तरह का बड़ा आंदोलन अपना एक सार्वभौमिक आख्यान रचता है। किसान आंदोलन जो आख्यान रच रहा था उससे सत्ता पक्ष को कई मोर्चों पर दिक्कत हो रही थी। केंद्र सरकार अपनी भरपूर कोशिश के बाद भी उस आख्यान को अपने पक्ष में नहीं कर पा रही थी। किसान आंदोलन जितने ज्यादा दिन चलता यह आख्यान उतना ही मजबूत होता। केंद्र सरकार ने समझदारी दिखाते हुए खेती से जुड़े कानूनों को वापस लिया। इसके साथ ही किसान आंदोलन भी खत्म हुआ।
किसान आंदोलन के खत्म होने के बाद योगी आदित्यनाथ ने अपना काम शुरू किया। वे कानून वापसी के पहले भी सूबे में किसानों को संतुष्ट करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे। कानून वापस होते ही उन्होंने पूरे तीन महीने सूबे के किसानों का भरोसा हासिल करने में लगा दिया। ऊपर दिए साक्षात्कार के अंश को गौर से देखें तो योगी आंदोलन को खारिज नहीं कर रहे थे। हां, उन्होंने अपना केंद्रीय जोर कानून-प्रशासन पर रखा कि इसे लेकर माहौल खराब नहीं होने दिया जाएगा। योगी कानून-प्रशासन के मसले पर अपनी सख्त छवि से कहीं पर भी समझौता नहीं कर रहे थे तो यहां पर भी नहीं किया।
जब विश्लेषक पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसानों के बड़े नुकसान का आकलन कर रहे थे उस समय योगी किसानों के बीच थे।
अगस्त 2021 में अपने आवास पर किसानों से संवाद करते हुए योगी ने एलान किया कि बिजली बिल बकाया होने के कारण एक भी किसान का कनेक्शन नहीं काटा जाए। इसके साथ ही कहा कि बिजली बिल बकाए पर किसानों को ब्याज न देना पड़े इसके लिए ओटीएस योजना लाई जाए। उन्होंने किसानों से वादा किया कि 2010 से किसानों के सभी लंबित भुगतान नए गन्ना के पेराई सत्र से पहले हो जाएं। इन कसमे-वादों के जमीनी सच का विश्लेषण तो अलग से होगा लेकिन योगी जानते थे कि किसानों को खारिज करने का सिर्फ नुकसान ही हो सकता है।
दिल्ली की सीमा पर आंदोलन खत्म होने के बाद किसान अपने गांव, अपनी खेती की जमीन पर कई पहचानों में बंटा हुआ था। योगी ने किसानों की इन पहचानों को अपने हिंदुत्व के सार्वभौमिक छाते के अंदर लाने का पूरा प्रयास किया। योगी की जमीनी रणनीति का दूर तक असर हुआ। कभी उत्तर प्रदेश में राजनीतिक ताकत का प्रतीक रही बसपा अलग-थलग पड़ गई। बसपा का यह घटाव भाजपा के लिए योग बना।
दिल्ली की सीमा से दूर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान एक सामंती चरित्र भी रखते हैं। किसान आंदोलन में भागीदारी करने और अपने हक के लिए इंकलाबी नारे लगाने का मतलब यह नहीं था कि सामंती जीवनशैली में रचे-बसे किसान हिंदुत्व की पहचान से दूर हो चुके थे। योगी ने जिस तरह का राजनीतिक पर्यावरण बनाया था उसके हिसाब से किसानों का भी अनुकूलन हुआ और उन्हें भी भाजपा के साथ जाना उचित लगा।
वहीं दलितों का बड़ा तबका मायावती से दूर होकर समाजवादी पार्टी के कथित सामंती चरित्र के साथ मेल नहींं बिठा सका। बसपा से दूर होकर सपा से दूरी बरतते हुए वह भाजपा के नजदीक हो गया। अगर कहीं आंदोलन होता है तो कुछ ऐसी विरोधाभासी ताकतें भी होती हैं जो उसे कमजोर करती हैं। किसान आंदोलन भी ऐसी ताकतों से उलझा। दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश में ऐसे लोग भी जबरदस्त तरीके से हारे हैं जो सिर्फ जातिगत समीकरण पर चुनाव जीत लेने का दावा कर रहे थे।
किसान आंदोलन को बेअसर नहीं कहा जा सकता है। लेकिन यह आंदोलन राजनीतिक भविष्य के लिए कितना खतरनाक हो सकता है योगी आदित्यनाथ यह समझ चुके थे। केंद्र ने समय से अपने कदम पीछे खींचे और योगी ने जो भी समय मिला इससे हुए नुकसान को पाटने में लगा दिया। लाभार्थी श्रेणी तो योगी के साथ खड़ा ही था, जिसके जरिए वे बहुत बड़े तबके को अपने साथ मिला पाने में कामयाब हुए।
ब्राह्ममणों का जो पूरा तबका पांच सालों से नाराज बताया जा रहा था उसे भी योगी ने अपने पाले में खड़ा कर उस पर पूरी बहस को ही बेकार बना दिया। यह योगी के बेहतरीन प्रबंधन का नतीजा रहा कि किसान आंदोलन से हुए नुकसान के बावजूद लंबे समय बाद भाजपा लगातार दूसरी बार उत्तर प्रदेश की सत्ता में आई। योगी ने प्रशासन व हिंदुत्व के अपने मूल को सींचते हुए असंतुष्ट किसान से लेकर नौजवान तक को साध लिया।