2014 की राजग सरकार इक्कीसवीं सदी के भारत के युवाओं की उम्मीदों की सरकार थी, जिनमें कई सारी उम्मीदें 2019 तक टूट चुकी थीं। फिर भी बची उम्मीदों के सहारे विपक्ष के चौतरफा हमलों के बावजूद इस सरकार में अपना भरोसा अटूट रखा और उस दावे की हवा उड़ा दी कि सरकार अपनी लोकप्रियता खो रही है। लेकिन पिछले दो सालों में वो उम्मीदें भी टूट गईं जिनके बारे में लग रहा था कि अब चीजें ठीक होंगी। खास कर किसानों के विरोध प्रदर्शन को लेकर हरियाणा सरकार का अमानवीय रूप दिखाना और हिमाचल प्रदेश जैसे राज्य में सरकार का भ्रष्टाचार के घेरे में आना। राजग सरकार का सबसे बड़ा नारा भ्रष्टाचार मुक्त शासन ही था। पिछले दिनों हुए उपचुनाव में क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर के मसलों पर जनता का गुस्सा केंद्रीकृत होकर टूट पड़ा है। जनता ने इस उप-हार के जरिए सरकार को 2024 तक का जो गृह-कार्य दिया है उस पर बेबाक बोल।
तीर पर तीर लगाओ
तुम्हें डर किस का है
सीना किस का है मिरी जान
जिगर किस का है
अमीर मीनाई
एक शीतल पेय का विज्ञापन कहता है, डर सबको लगता है, गला सबका सूखता है। उत्तर प्रदेश निजाम के एक मंत्री जी बड़े अहंकार से कह रहे थे कि देश में पेट्रोल की कीमतें अभी भी बहुत कम हैं और ज्यादातर लोगों को तो पेट्रोल की जरूरत ही नहीं है। पेट्रोल की कीमत का असर कुछ ऐसा होता है कि माचिस तक महंगी होने की खबरें आने लगीं। वहीं सत्ताधारी दल के लिए उपचुनाव में हार का असर ऐसा दिखने लगा कि अचानक पेट्रोल की कीमत पांच रुपए तक कम हो गई।
पिछले काफी समय से भाजपा की तारीफ इस बात के लिए होती थी कि वह छोटे से छोटे चुनाव को बड़े तरीके से लड़ती है। किसी भी चुनाव को छोटा नहीं समझती है। विभिन्न राज्यों के निकाय चुनाव तक में पूरा दिल्ली दरबार उमड़ पड़ता है। तो क्या हिमाचल और हरियाणा को उसने गंभीरता से नहीं लिया?
राजनीतिक पंडित कह रहे हैं कि भाजपा पंजाब और हरियाणा को हारा हुआ मान रही है। लेकिन यह दिल बहलाने के लिए ख्याल अच्छा वाली बात ही है। अगर आप हिमाचल में लोकसभा की सीट गंवाते हैं तो संसद के अंदर थोड़े कमजोर होते हैं। उत्तर प्रदेश में अगर कुछ सीटों पर भी किसान आंदोलन का असर होगा तो आपकी सत्ता का समीकरण बिगड़ेगा।
हर छोटे चुनाव को गंभीरता से लेने वाली भाजपा 18 राज्यों में फैले 29 विधानसभा और तीन लोकसभा सीटों के उपचुनावों के नतीजों को खतरे की घंटी की तरह सुने तो उसके लिए बेहतर होगा। खासकर हिमाचल और हरियाणा से यही संदेश मिला है कि जनता महंगाई से लेकर किसानों तक के उन मुद्दों पर काफी नाराज है जिन्हें आपके मंत्री मजाक की तरह लेते हैं। महंगाई के मुद्दों पर सरकार के मंत्रियों व भाजपा के आला नेताओं के बयानों ने जो जगहंसाई करवाई है उसका असर चुनावों पर तो रुलाने वाला ही पड़ा है।
उत्तरपूर्व में भाजपा को अभी खतरा नहीं था और वह मजबूत स्थिति में थी। लेकिन, बंगाल में तीन सीटों पर भाजपा के उम्मीदवारों की जमानत जब्ती और तृणमूल को रेकार्ड वोट बता रहा है कि वहां का ‘खेला’ ममता बनर्जी के नाम ही रहा। वहां तो भाजपा को अपने खेल की पूरी रणनीति ही बदलनी होगी। आम तौर पर किसी राज्य में हार के बाद वहां पार्टी खुद को पुनर्गठित करती है। पर, बंगाल में भाजपा के साथ उलटा हो रहा है। उपचुनाव के नतीजे दिखा रहे हैं कि वहां पार्टी और ज्यादा बिखर गई है।
वहां की जमीनी हकीकत को देखते हुए तृणमूल से भाजपा में गए नेता घर वापसी कर रहे थे। पहले भ्रष्टाचार के आरोपी मुकल राय जैसे नेता भाजपा में चले गए। लेकिन विधानसभा चुनाव के बाद वहां के लोगों के मन से केंद्रीय सरकार का ‘डर’ निकल गया। पहले माना जा रहा था कि आप केंद्रीय शक्ति की शरण में ही सुरक्षित रहेंगे। लेकिन ममता बनर्जी जिस तरह अपने भरोसेमंद आइएस अधिकारी को लेकर केंद्र से उलझीं उससे उन पर विश्वास बढ़ा कि वो अपने लोगों को सुरक्षित रखने के लिए केंद्रीय शक्ति से टक्कर ले सकती हैं। 2024 में लोकसभा के मैदान में भाजपा को बंगाल में अपना राजनीतिक ककहरा फिर से शुरू करना पड़ेगा।
दादर नगर हवेली सीट के जरिए शिवसेना पहली बार मुंबई से बाहर निकली है। पिछले विधानसभा चुनाव में सारी सियासी पैतरेबाजी पर जिस तरह शिवसेना हावी हुई थी उसके बाद उसका दादर नगर सीट जीतना भाजपा के लिए खतरे की बड़ी घंटी है। शिवसेना और भाजपा भावनात्मक मैदान पर एक तरह के मतदाता पर निर्भर हैं और महाराष्ट्र में भाजपा को लेकर भावनात्मक ज्वार पहले ही कम हो चुका है। महाराष्ट्र में पकड़ ढीली होने के मायने पार्टी समझ ही रही होगी।
उपचुनाव के संदेश का सबसे बड़ा एलान तो ऐलनाबाद से हुआ है। वहां से भाजपा ने दागी छवि के नेता गोपाल कांडा के भाई को टिकट दिया था। अभय सिंह चौटाला हरियाणा के एकमात्र नेता थे जिन्होंने किसान आंदोलन के समर्थन में इस्तीफा दिया था, जबकि उनके अपने भतीजे सत्ता के साथ भागीदार हैं। भाजपा साबित करना चाहती थी कि वहां किसान आंदोलन का कोई असर नहीं है। बंगाल में किसान नेता यह कह कर पहुंचे थे कि हम किसी पार्टी के पक्ष में नहीं, भाजपा के खिलाफ माहौल बनाने आए हैं।
जाहिर सी बात है कि पक्ष वाला माहौल तृणमूल के खाते में ही जाता। बंगाल में किसान नेता भाजपा को हराने तो ऐलनाबाद में अभय चौटाला को जिताने पहुंचे थे, क्योंकि वह किसान आंदोलन के समर्थन में थे। सरकार व प्रशासन की तमाम घेरेबंदी के बावजूद यह सीट अभय चौटाला ने अपने नाम की, जो जाहिर है किसान आंदोलन के खाते में गई।
किसी भी मौजूदा सरकार के लिए उपचुनाव लिटमस जांच की तरह होते हैं। अगर सरकार उपचुनाव हारती है तो इसका मतलब है कि उसके नाम पर मिला जनादेश खत्म होने की शुरुआत हो चुकी है। वह यथास्थिति विरोधी माहौल का शिकार हो चुकी है। उपचुनावों में सारी स्थानीय सरकारी मशीनरी सत्ता पक्ष के साथ होती है। इसके बावजूद अगर वह हारती है तो इसका मतलब है कि जनता ने आपको हराने का इतना मजबूत मन बनाया था कि उसका प्रबंधन नहीं हो सका।
कोरोना के कहर के बाद भाजपा ने पहले मंत्रिमंडल और बाद में तीन राज्यों के मुख्यमंत्री बदले। सरकारें अपना मुख्यमंत्री वहीं बदलती हैं जहां वह यथास्थिति विरोधी माहौल की शिकार होती है, यानी पार्टी मान चुकी है कि जनता के बीच उसके मुख्यमंत्री की पकड़ ढीली हो रही है। लेकिन हिमाचल और हरियाणा के मुख्यमंत्री अपने पद पर बने रहे क्योंकि माना जाता है कि उनकी आलाकमान से नजदीकी है।
हिमाचल और हरियाणा के मुख्यमंत्रियों ने आने वाले दिनों में अपना प्रदर्शन ठीक नहीं किया तो उनकी आलाकमान से नजदीकी पार्टी के लिए जनता से दूरी का कारण बन जाएगी। हरियाणा में लंबे समय तक कानून व प्रशासन की धज्जियां उड़ने के बाद भी पिछले दिनों खट्टर दिल्ली दरबार से शाबाशी लेकर गए थे। देखते हैं, आलाकमान कितने दिनों तक उनके प्रति अपना प्रेम बरकरार रख पाता है। हिमाचल में अगले साल चुनाव हैं। वहां भाजपा को जो करना है अभी करना होगा। किसान आंदोलन से लेकर महंगाई तक का असर मंडी सीट पर दिख ही चुका है।
उपचुनाव में ज्यादातर सीटों पर भाजपा के घटे मत फीसद को देखते हुए कहा जा सकता है कि अब खुद को सबसे अलग बताने वाले दल का मधुमास खत्म हो गया है। दक्षिण का दरवाजा वैसे भी मजबूत नहीं हुआ है। दादरा नगर हवेली की सीट भाजपा ने सात फीसद वोटों के नुकसान के साथ गंवाई है। मध्यप्रदेश (खंडवा) की लोकसभा सीट वोटों के नुकसान के साथ ही बच पाई है।
मंडी लोकसभा सीट पर भाजपा को 2019 में 69 फीसद वोट मिले थे, इस बार उसे 48 फीसद वोट ही मिले हैं। हर तरफ से सरकार के खिलाफ असंतोष दिखने लगा है। लंबे समय तक कांग्रेस के एकछत्र राज्य के बाद कहा जाने लगा था कि अब भारत के चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों पर ही लड़े जाएंगे तो पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के बाद इन उपचुनाव में भी क्षेत्रीय-क्षत्रपों ने वापसी का संदेश दिया है।
भाजपा के केंद्रीय सत्ता में रहने के कारण उसके महाराष्ट्र के नेता कहते हैं कि हम चैन से सोते हैं क्योंकि सरकारी एजंसियों के छापे का डर नहीं रहता। लेकिन महंगाई से बेचैन रातें काटने वाली जनता शायद संदेश दे रही है कि थोड़ा चैन से हमें भी सोने दीजिए। चुनावों को गंभीरता से लेने वाली भाजपा जनता के दिए उप-हार पर कितनी गंभीर होती है यह देखने की बात होगी।