इंदिरा गांधी भारतीय राजनीति को यह सीख देकर गई हैं कि अब किसी राजनीतिक दल की सरकार घोषित आपातकाल लगाने की गलती नहीं करेगी। आपातकाल इतना क्रूर अध्याय है कि हर छोटी-बड़ी बात के साथ इस शब्द को जोड़ देना राजनीतिक और इतिहास बोध के साथ अन्याय करना होगा। लेकिन, कांग्रेस ने विपक्ष में रह कर छोटे स्तर पर ही सही एक बार फिर घोषित करने की गलती कर दी है। जब आम घरों में भी टीवी चैनलों के एंकरों की साख गिर चुकी है, लोग यू-ट्यूब पत्रकारों के मुरीद हो रहे हैं तो कांग्रेस की अगुआई में विपक्ष ने चौदह एंकरों के बहिष्कार की सूची बना दी। तत्काल में यह कदम विपक्ष के खाते में थोड़ा हंगामा खड़ा कर सकता है, लेकिन भविष्य में यह भूल की तरह ही देखा जाएगा। एंकर तो वे जादूगर हैं जो टीवी चैनल पर आबरा का डाबरा मंत्र पढ़ कर खबरों को गायब कर देते हैं। जिन एंकरों का इलाज अनदेखी थी वहां घोषित रूप से सूची निकालने की विपक्ष की अति पर प्रस्तुत है बेबाक बोल।
‘या तो जो ना-फहम हैं वो बोलते हैं इन दिनों या जिन्हें खामोश रहने की सजा मालूम है’
बोलना सिर्फ एक व्यक्तिगत व सामाजिक क्रिया नहीं है। बोलने की क्रिया के बाद जो राजनीतिक प्रतिक्रिया होती है उसे झेलना कभी आसान नहीं रहा है। आप क्या बोलते हैं, कैसे बोलते हैं और किसके लिए बोलते हैं, इनके समुच्चय की नाप-तौल होती रहती है। इसलिए आज वैसे ही लोग बोल रहे हैं जिन्हें इतिहास का सबक याद है। जिन्हें पता है कि लम्हों के खामोश रहने की सजा सदियों को भुगतनी पड़ती है।
पूरी दुनिया का इतिहास उठा कर देख लीजिए। इतिहास को बोलने वालों और चुप कराने वालों की लड़ाई के रूप में भी वर्गीकृत किया जा सकता है। इतिहास हर समय काल में अपने साथ कुछ खासियत लेकर आता है। इस समय की खासियत यही बोलने वाले हैं। इन दिनों खास तौर से बोलने वालों की खेमेबंदी कर दी गई है। ये तेरी बोली वाले और ये मेरी बोली वाले। ये तुम्हारे एंकर तो ये हमारे एंकर।
यह भी होना था। जो एंकर हर समस्या के लिए विपक्ष से सवाल पूछते थे, हर चीज के लिए विपक्ष को जिम्मेदार मानते थे, विपक्ष ने उन एंकरों का बहिष्कार कर दिया। कबीरदास की उलटबांसी की तरह इस बार सत्ता पक्ष ने नहीं विपक्ष ने चुनिंदा एंकरों का घोषित रूप से बहिष्कार किया। बाकायदा तस्वीरों के साथ सूची जारी कर दी कि हम इनका बहिष्कार करते हैं, विपक्षी गठबंधन का कोई सदस्य इन एंकरों के कार्यक्रम में नहीं जाएगा।
इतिहास की किताब में जो सबक का अध्याय है लगता है कांग्रेस ने उसे अपने पाठ्यक्रम से बाहर कर दिया है। ‘जनसत्ता बारादरी’ के कार्यक्रम में भाजपा के दिग्गज नेता ने कहा था कि भारतीय राजनीति में इंदिरा गांधी एक सीख देकर गई हैं। इस देश में कोई भी राजनीतिक दल अब आपातकाल नहीं लगाएगा। भाजपा नेता बिल्कुल सही हैं। भाजपा कांग्रेस के इतिहास की अच्छी अध्येता है।
इसलिए, आज के समय में बोलने वालों ने भाजपा की सरकार पर अघोषित आपातकाल का ही आरोप लगाया है। अघोषित तो अमूर्त होता है, बिना किसी कागजी दस्तावेज, मुहर, दस्तखत के। वर्तमान में इसके निशान दिखाए जा सकते हैं इतिहास में उसका दस्तावेज नहीं बनाया जा सकता है। किसी खास तारीख को अघोषित आपातकाल की बरसी नहीं हो सकती।
आपातकाल इतना स्याह शब्द है, कि उजली पृष्ठभूमि में आंखें चौंधियाता है। इसलिए हर छोटे-बड़े फैसले को आपातकाल की संज्ञा देना इतिहास बोध के साथ खिलवाड़ करना होगा। लेकिन, कांग्रेस हमेशा घोषित करने की गलती कर ही देती है तो इस बार भी विपक्षी गठबंधन की अगुआई करते हुए कर दी। विपक्ष होना इतना आसान भी नहीं होता है। जिसके कंधे पर जिम्मेदारी और सरोकार दोनों होते हैं वो विपक्ष ही ही।
अभी-अभी तो राहुल गांधी को आपने तपस्वी कहा था। साधु होना उतना ही मुश्किल है जितना विपक्ष। एक तरफ संसद में सत्ता के केंद्र को भी गले लगाने की तस्वीर और दूसरी तरफ एंकरों के बहिष्कार की तस्वीरें। वो ‘नेता मोहब्बत वाला’ को बहिष्कार वाला बना डाला। इतनी जल्दी तो एंकर भी सुर ऊंचा नहीं करते जितनी जल्दी मोहब्बत करने वाले का सुर बदल दिया।
यह सच है कि पत्रकारिता की मौत उसी दिन हो गई थी जिस दिन उसने एंकारिता का चोला पहना था। बीसवीं सदी के अंत के साथ एंकर भारतीय घरों के जीवन का हिस्सा हो गए। जैसे कोई शाहरूख खान का दीवाना हो जाता था या कोई माधुरी दीक्षित का घोर प्रशंसक वैसे ही हर घर में एक प्रिय एंकर हो गया। एंकर संस्कृति ने उस ‘प्राइम टाइम’ को जन्म दिया जिसने मीडिया के कारोबार को पूरी तरह बदल दिया। सदन का नेता कौन होगा, किस विधानसभा से किसे सीट मिलेगी, निगम के चुनावों में कौन जीतेगा से बड़ी खबर यह बन जाती है कि फलां एंकर अब इस समूह से उस समूह में चला गया। फलां एंकर अब उस समूह का हिस्सा नहीं रहा।
इस ‘प्राइम टाइम’ पर कब्जे के लिए एंकरों ने अपना जादू बिखेरना शुरू कर दिया। चौबीस गुणे सात चैनलों का बाकी घंटे का कार्यक्रम एक तरफ और एक घंटे का ‘प्राइम टाइम’ दूसरी तरफ। सुबह और दोपहर इसी ‘प्राइम टाइम’ के पुनर्प्रसारण से ज्यादा से ज्याद समय खपा दिया जाता है। चैनलों के कारोबार को ‘प्राइम टाइम’ और उसके सितारा एंकर तक महदूद करने का खमियाजा पत्रकारिता ने भुगता। कुछ समय तो लोगों ने इसे पसंद किया, अपने जीवन का हिस्सा बनाया, लेकिन वे धीरे-धीरे इससे ऊबने भी लगे हैं। खबर खोजने के लिए फिर उन्हें पारंपरिक माध्यमों का ही सहारा लेना पड़ता है।
यानी एंकर जहां, खबर नहीं वहां। हर जगह बस एक जादू सा। कहीं नफरत फैलाने का जादू तो उसके प्रतिकार में मोहब्बत के जादू का दावा। एक अखबार अपने बारह पन्नों में देश-दुनिया की जितनी खबरें दे देता है इन एंकरों के एक घंटे के कार्यक्रम में बस शोर ही शोर। धीरे-धीरे दर्शकों को समझ आने लगी है कि पहले जादूगर मंच पर लड़की को गायब कर देते थे और दर्शक तालियां बजाते थे। अब एंकर अपने जादू से खबरों को गायब कर देते हैं और दर्शक ताली बजाते हैं या कहिए टीआरपी बढ़ाते हैं।
धीरे-धीरे दर्शकों को अहसास हो रहा है कि ये उन जादूगरों के लिए ताली बजा रहे हैं जो महंगाई, बेरोजगारी, टूटी सड़क, बीमार अस्पताल की खबरों को गायब कर दे रहे हैं। यानी टीवी से वे दर्शक ही गायब हैं जो टीवी के बाहर अपने पसंदीदा एंकर का इंतजार करते हैं। विपक्ष ने घोषित बहिष्कार करने से पहले इन एंकरों की जमीनी साख का पता लगाया होता। इन एंकरों की हालत क्रिस्टोफर नोलन द्वारा निर्देशित फिल्म ‘प्रेस्टीज’ जैसी हो गई है।
यह फिल्म जादू की साख को बेसाख कर उसे मियादी बुखार जैसा घोषित करती है। हकीकत और जादू में यही फर्क है। हकीकत अपनी जगह पर मौजूद रहती है और जादू कैसा भी हो उसका राज खुल जाता है। चाहे जुबान का, दिमाग का दिल का, प्यार का, नफरत का, रंग का, भेद का, कर्म का या फिर एंकरों के सबसे प्यारे जादू धर्म का। सबकी मियाद होती है। कुछ का जादू लंबा चल सकता है। लेकिन जब यह फाश होता है तो हासिल ए अफसोस ही दर्ज होता है। ऐसा नहीं हो तो नए जादूगर पैदा ही न हों, नए एंकर पैदा ही न हों।
विपक्ष की घोषित सूची से लग रहा कि उन्होंने जादू का अंत कर दिया। बस इन्हीं चौदह लोगों से शुरुआत हुई थी और इन्हीं के साथ यह सब खत्म हो जाएगा। इनके बाद तो एंकर पैदा ही नहीं होंगे। ‘इंडिया’ की अहम बैठक के बाद जब ये सूची जारी हुई तो लगा यह भी बस सुर्खियां बटोरने का शिगूफा है। इससे पहली हुई बैठक में ‘इंडिया’ नाम के बाद कुछ तो हंगामेदार चाहिए था। इतने बड़े राजनीतिक दलों की बैठक के नतीजे के तौर पर चौदह एंकरों के बहिष्कार को हास्य का नया आविष्कार ही मान लेना चाहिए।
मीडिया संस्थान एक स्कूल सरीखा होता है। अच्छे विद्यार्थी को आप पुरस्कार दे सकते हैं, उन्हें आदर्श घोषित कर सकते हैं। लेकिन बुरे विद्यार्थियों की जिम्मेदारी से आप मुकर नहीं सकते हैं। उन्हें स्कूल से निकाल नहीं सकते हैं, यह नहीं कह सकते हैं कि जाओ तुमसे बात नहीं करेंगे। एंकर उस व्यवस्था का हिस्सा हैं जब संपादकीय दायित्व को नकारने की शुरुआत हुई। किसी भी मीडिया संस्थान के लिए संपादक की भूमिका संविधान सरीखी होती है। वह खबरों का अभिभावक होता है। लेकिन संपादकीय नैतिकता को नकार कर पत्रकारिता का पर्याय एंकर हुए। उनके निजी विचार, द्वेष, हानि-लाभ सब हावी होने लगे।
एक एंकर को पूरे संस्थान का पर्याय बना देने का नतीजा होता है पत्रकारिता की ये तेरा, ये मेरा वाली खेमेबंदी। पत्रकारिता एक सामूहिक, सांस्थानिक, सांवैधानिक कर्म है। इसकी आत्मा उसी दिन मर जाती है जब इसका नायकत्व किसी एक चेहरे के पास जाता है। फिर चाहे वे नफरत वाले हों या मोहब्बत वाले। इन एंकरों का घोषित बहिष्कार कर विपक्ष ने एक तरह से इन्हें पत्रकारिता का दर्जा ही दे दिया। जहां पर अनदेखी ही अचूक औषधि थी वहां आंख दिखाना बीमारी का एक गलत इलाज, एक गलत शुरुआत।