एक टीवी चैनल की कैंटीन का दृश्य। कुछ देर पहले अपने ‘प्राइम’ समय के कार्यक्रम में जोश से भरे एंकर के चेहरे पर परेशानी के भाव थे। साथी ने आकर पूछा कि क्या हुआ? उसने बताया कि मुझे तो अपने बास से डांट पड़ गई। उनका कहना था कि खबर के कार्यक्रम में फलां पार्टी के प्रवक्ता ने तुमसे ज्यादा अच्छे तरीके से अपनी पार्टी का बचाव कर लिया। बास ने सख्त चेतावनी देते हुए कहा कि आगे ऐसा नहीं होना चाहिए, हमें अपने तर्कों को इतनी मजबूती से रखना है कि राजनीतिक पार्टियों को आधिकारिक प्रवक्ता की जरूरत ही नहीं रहे…। इस व्यंग्य को लिखते वक्त व्यंग्य शिकायत कर रहा था कि इसमें भला मुझे घसीटने की क्या जरूरत है। यह तो आज अपने घर की बैठक में बैठा हर दर्शक जानता है कि टीवी चैनलों के एंकरों का लक्ष्य पार्टी विशेष का प्रवक्ता होना भर रह गया है। अब एंकर के नाम पर ‘फैंकर’ आ गए हैं जिनका काम बस फेंकना है, एक-दूसरे से दूर ताकि ‘मालिक’ की वाहवाही और बख्शीश मिलती रहे। अलग-अलग चैनलों पर व्यवस्था की एक जैसी पैरोकारी करते इन ‘फैंकर्ज’ पर बेबाक बोल

चकमक पत्थरों की रगड़ से आग की शुरुआत से लेकर अब तक ईंधन के न जाने कितने रूप बदले। ईंधन का आगे बढ़ा हर रूप पहले से बेहतर साबित हुआ। दो पहियों के आविष्कार के बाद इंसान ने अपने वाहन को हवा में भी उड़ा दिया। विकास अगर वैज्ञानिक नजरिए से होता है तो अगली पीढ़ी के जलवे देख पिछली पीढ़ी के लिए नहीं रोना पड़ता कि हाय वो चकमक पत्थर वाली आग ही अच्छी थी। या, पशुगाड़ी का समय ही अच्छा था।

छापेखाने के आविष्कार के बाद दुनिया बदलने में पत्रकारिता ने निभाई अहम भूमिका

दुर्भाग्य से आज हमारे सामने एक ऐसा क्षेत्र खड़ा है जो जितना ज्यादा विकास कर रहा है संवेदनशील समाज का उससे उतना ज्यादा मोह भंग हो रहा है। छापेखाने के आविष्कार के बाद आधुनिक युग की विधा पत्रकारिता ने दुनिया बदलने में अहम भूमिका निभाई। इसने व्यवस्था और जनता के बीच पुल बनने का दावा किया। माना गया कि पत्रकारिता की बिरादरी जनता के ही पक्ष में रहेगी इसलिए इसे लोकतंत्र के खंभे का दर्जा भी मिला।

पहले सड़कों पर दौड़ता और बाद में साइकिल से अखबारों को लेकर आता ‘हाकर’ जब खबरों की हांक लगाता था तब ऐसा खतरा नहीं था कि पता नहीं बरामदे में पड़ा अखबार हमारे घर की बैठक तक कितना सच और कितना झूठ ले जाएगा। ‘हाकर’ की हांक और अखबार की खबर में कोई अंतर नहीं होता था। आज देश का बड़ा तबका खबरों के लिए टीवी पर निर्भर हो गया है। यह टीवी उसके फोन पर हर वक्त उसके साथ चलता है।

टीवी ने अखबार की खबरों से उसका नयापन छीन लिया। टीवी के बाजार ने समझा दिया कि खबरें पहले लाने वाला विजेता है, चाहे वह ‘सबसे पहले’ के नाम पर कितना बड़ा झूठ ही न परोस दे। जब किसी एक खबर पर पांच एजंसियां एक साथ काम कर रही हों, उन पांचों को ताक पर रख टीवी के एंकर अपना एजंडा परक विश्लेषण रखना शुरू कर देते हैं। छापेखाने से शुरू हुई पत्रकारिता का पहला उद्देश्य था व्यवस्था पर सवाल उठाना और टीवी पत्रकारिता का पहला उद्देश्य हो गया व्यवस्था पर सवाल उठाने वालों को अपमानजक सवालों की जद में लाना।

मुकेश भारद्वाज का कॉलम बेबाक बोल: प्र-बकता

इसके लिए टीवी एंकरों की पहली रणनीति रही खुद को ‘सेलिब्रेटी’ के रूप में स्थापित करने की। अत्याधुनिक स्टुडियो, मेकअप और खास परिधानों से इस तरह लैस हो जाना कि आपके आस-पास खबरों की जरूरत भी महसूस न की जाए। हर चैनल ने अपना ‘सेलिब्रेटी’ तैयार कर लिया। किसी का उछलना तो किसी का चिल्लाना हस्ताक्षर अदाएं बनने लगीं। दृश्य पत्रकारिता पर एंकरों ने कब्जा कर खबर पढ़ने के नाम पर चीखना-चिल्लाना शुरू कर दिया। पहले अखबार की प्रतियां लेकर हांक लगाते ‘हाकर’ और इनकी हांक में फर्क यह रह गया कि इन्होंने खुद को पत्रकार कहना शुरू कर दिया है।

अखबार की खबरों को तैयार करने में हाकर की कोई भूमिका नहीं होती है। वह सिर्फ अखबारों के छापेखाने और पाठकों के बीच का एक पुल है। टीवी के इन ‘हांकरों’ ने पत्रकारिता पर कब्जा करना शुरू कर दिया। खबरें बनाने वाले उसी तरह नेपथ्य में चले गए जिस तरह कपड़ों के शोरूम में उन कपड़ों को बनाने वाले नहीं दिखते। दिखते हैं वे सब जिनके शरीर पर ये कपड़े फबते हैं और लोग आकर्षित होते हैं कि वे भी इन्हें खरीदें। जिनका काम खबरों को सुनाना था, उनका काम व्यवस्था के पक्ष में खबरों को भुनाना हो गया।

मुकेश भारद्वाज का कॉलम बेबाक बोल: सत्ता का सच

पत्रकारिता के पुराने पाठ्यक्रम में सीख दी गई थी कि आदर्श पत्रकार को दिखने से ज्यादा लिखने वाला होना चाहिए। लोग कहें कि हमने इसे पढ़ा है, ये न कहें कि हमने इन्हें देखा है। आज तो हालत यह है कि अखबारों में अहम खबरें करने वाले लोगों को यह सुनना पड़ता है कि आपको किसी चैनल में देखा तो नहीं (कहने का भावार्थ यह कि फिर पत्रकार काहे के…)।

पहले एक व्यवस्था को सबकी व्यवस्था माना जाता था, वैसे ही एक पत्रकार को सबका माना जाता था। आज हालत यह है कि इन पत्रकारों को व्यवस्था से जुड़े लोगों के अलावा कोई भी अपना मानने को तैयार नहीं है। मीडिया के आधुनिक संस्करण ‘सोशल मीडिया’ पर इनके लिए असामाजिक और असंसदीय शब्द लिखे जाते हैं। इन एंकरों के कार्यक्रमों का विश्लेषण करने के लिए यू-ट्यूब पर पता नहीं कितने हास्य कार्यक्रम बन गए। इन एंकरों के कार्यक्रमों की दृश्यता से ज्यादा इन पर बने हास्य कार्यक्रमों की दृश्यता हो जाती है। इनके हर एक वाक्य के बाद पार्श्व हंसी, ‘रुको जरा सब्र करो’, ‘अब मजा आएगा भीड़ु’ जैसे मसाला फिल्मों के हास्य दृश्य नत्थी कर दिए जाते हैं।

इन एंकरों के व्यवस्था के प्रति उत्साह के कारण पार्टी प्रवक्ताओं पर ‘मीम’ बनते हैं कि टीवी कार्यक्रम से लौटने के बाद आलाकमान ने फटकार दिया कि तुमसे तो ज्यादा अच्छे से एंकर ने हमारी पार्टी का पक्ष ले लिया। चुटकुले बनते हैं कि उसने कहा कि पत्रकार हूं तो सामने से जनता ने पूछा, किस पार्टी के…। यानी पत्रकारों व राजनीतिक प्रवक्ताओं का भेद हर तरफ मिट चुका है।

मुकेश भारद्वाज का कॉलम बेबाक बोल: राज हमारा धर्म तुम्हारा

आज के विभाजनकारी समय में टीवी एंकर सबसे बड़े विभाजक के रूप में स्थापित हो चुके हैं। पहले राजनीतिक दल और पत्रकारों के बीच एक मोटी लकीर होती थी। इस लकीर का उल्लंघन पहले भी होता था और राजनीति की शक्ति को देख कर पत्रकारिता के लोग सीमा लांघ कर उधर चले जाते थे। इसमें यही देखा गया है कि ज्यादातर पत्रकार राजनीति में लंबी पारी नहीं खेल पाते और कई तो दोनों तरफ अपनी साख गंवा बैठते हैं।

आज तक किसी भी एंकर ने सार्वजनिक तौर पर खुद को एंकर नहीं कहा है। ये लोग यही कहते मिलेंगे कि हम पच्चीस तो तीस सालों से पत्रकारिता कर रहे हैं। कुछ लोग चैनल पर एंकरिंग से बाहर निकलने के बाद पत्रकारिता करने के ख्वाहिशमंद होकर कहते हैं कि अब अपनी मूल जगह पर वापस आ गए हैं। यानी पत्रकारिता शब्द की आज भी साख है, इसमें आज भी उम्मीद बाकी है।

भ्रष्टाचार हर क्षेत्र में होता है। चाहे सरकारी अधिकारी हो या पुलिस या जज, किसी का भी भ्रष्टाचार सामने आता है तो समाज सक्रिय होता है। भ्रष्टाचार का आरोपी दोषसिद्धी तक पहुंचा या नहीं इसमें पूरे समाज की रुचि होती है। फिर इन एंकरों के द्वारा खबरों के भ्रष्टाचार पर समाज सक्रियता क्यों नहीं दिखा रहा है? क्या उसने यह समझ लिया है कि सही खबरें जानना उसके लिए जरूरी नहीं है। वो इन एंकरों को मनोरंजन के साधन के रूप में देख कर ही खुश है।

मुकेश भारद्वाज का कॉलम बेबाक बोल: जी हुजूर (थरूर)

जब लोकतंत्र में जनता का सही खबरों को लेकर जोश ‘हाई’ नहीं रहता है तब उसके सेना के अगुआ की हालत यह हो जाती है कि उसे वैश्विक मंच पर कहना पड़ता है कि युद्ध जैसे हालात में सेना का 15 फीसद समय फर्जी खबरों से जूझने में लग गया। किसी नकली डाक्टर, नकली इंजीनियर, नकली दवाओं की खबर पर जनता को खूब गुस्सा आता है। पर, नकली पत्रकारों व नकली खबरों को जनता अभी तक अपनी जाती जिंदगी के लिए नुकसानदायक नहीं मान रही।

इसका असर यह रहा कि जनता की जाती जिंदगी से जुड़ी खबरें उसके घर की बैठक में चल रहे टीवी के पर्देसे बाहर हैं। दुखद स्थिति है कि मौजूदा दौर में टीवी पर दिखाई गई खबरों के तथ्य अन्वेषण करने वाले ज्यादा सरोकारी पत्रकार दिख रहे हैं।

जनता के बारे में कहा जा सकता है कि उसके घर में देर है, अंधेर नहीं। रोजी-रोटी जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए जूझ रही जनता को लगने लगा है कि घरों में विराजमान इन एंकरों के मुंह से उनके घरों की समस्या क्यों नहीं निकलती। शायद यही वजह है कि पहलगाम पर आतंकवादी हमले के बाद युद्धोन्माद को चरम पर ले जाने के बाद भी ये एंकर दर्शकों की संख्या बढ़ा नहीं पाए। इसके उलट दर्शक उनके बढ़ गए जो अपने यू ट्यूब के छोटे चैनल पर इन एंकरों की झूठी खबरों की चीड़फाड़ करते हैं। जनता इन सबके मीम देख कर जब कहती है-सबका मालिक एक है…तो समझ जाइए व्यवस्था की इन कठपुतलियों की डोर सबको दिख रही है।