हमारी लोकतांत्रिक संस्थाएं छवि निर्माण में घटते क्रम में चल रही हैं। हर दूसरे के आते ही पहले वाला थोड़ा ज्यादा अच्छा लगने लगता है। पहले वाले चुनाव आयुक्त  आयोग पर उठे सवालों को शेरो-शायरी से खारिज करते रहे थे। लेकिन, प्रचंड गर्मी में जनता के बाद जब नेता भी बेहोश होने लगे तो कहना पड़ा कि हमें सीख मिली कि इतनी गर्मी में चुनाव नहीं करवाना चाहिए। नए चुनाव आयुक्त ने बिहार में चुनाव के पहले मतदाता सूची के गहन पुनरीक्षण की कवायद शुरू कर दी। देश की गर्मी तक को नहीं जानने वाला आयोग क्या बिहार के जमीनी हालात को जान कर संवेदनशील है? अदालत ने इस कवायद को आयोग का संवैधानिक अधिकार माना है। अदालत ने टिप्पणी की है कि चुनाव आयोग को आधार व मतदाता पहचान पत्र को भी वैध दस्तावेज मानना चाहिए। क्या चुनाव आयोग यह सुझाव मानेगा? मतदाता सूची के गहन पुनरीक्षण के समय पर सवाल उठा कर विपक्ष अदालत से लेकर बिहार की सड़क पर है। बेबाक बोल का सवाल है कि क्या अब भी सवालों के जवाब शेर सुना कर खारिज किए जाएंगे?

हस्ती अपनी हबाब की सी है
ये नुमाइश सराब की सी है…
यां की औकात ख्वाब सी है…

चुनाव अयोग पर बात करने से पहले मीर की यह चेतावनी याद दिलानी जरूरी समझी। हमें याद है पूर्व चुनाव आयुक्त की शेरो-शायरी। शायरी करने वाली बाली उमर के रोग के मरीज ने पिछली बार नेता से लेकर जनता तक को हुए नुकसान के बाद कहा था-हमें सीख मिली कि इतनी गर्मी में चुनाव नहीं करवाने चाहिए। हमें लगा था कि आयोग ने शायरी के शहंशाह मीर से भी सबक लिया होगा कि चुनाव आयुक्त के तौर पर आपका कार्यकाल पानी के बुलबुले सा है। कब फट जाए पता नहीं।

बिहार के संदर्भ में चुनाव आयोग द्वारा मतदाता सूची के गहन पुनरीक्षण की कवायद पर यही याद दिलाना चाहते हैं कि व्यक्ति और संस्था में फर्क होता है। व्यक्ति गैर जिम्मेदार हो सकता है, राजनीतिक गैर जिम्मेदार हो सकता है, संस्थाओं के पास गैर जिम्मेदार होने का कोई विकल्प नहीं। जिसे संविधान ने संस्था होने का गौरव दिया है, वह अपनी छवि व्यक्तिगत और राजनीतिक बनाता दिखे तो लोकतंत्र के लिए खतरे की बात है।

इन दिनों हमारी लोकतांत्रिक संस्थाएं छवि निर्माण को लेकर घटते क्रम में चल रही हैं। हर दूसरे के आते ही, पहले वाला थोड़ा सा अच्छा लगने लगता है। आजादी के बाद चुनाव आयोग को साख बनाने में दशकों लग गए। फिर चुनाव का मतलब बूथ लूट, हिंसा, मारकाट होने लगा। इस बीच एक ऐसा व्यक्ति आया जिसने व्यक्ति और राजनीतिक नहीं संस्था की तरह काम किया। टीएन शेषन के समय भी बिहार में चुनाव हुए थे। टीएन शेषन का नाम सुनते ही उस वक्त बिहार के शीर्ष नेता उन्हें खरी-खोटी सुनाने लगते थे।

बूथ लूट को रोकने के लिए बिहार में पहली बार चार चरण में चुनाव करवाने का फैसला किया गया था। बिहार के कुख्यात बूथ केंद्रों पर पंजाब के कमांडो तैनात किए गए थे। तब मीडिया में शेषन का बयान उछला था-‘मैं राजनेताओं को नाश्ते में खाता हूं।’ आज की पीढ़ी यह बयान सुन कर कहेगी कि यह किसी चुनाव आयुक्त का कथन नहीं हो सकता। यह किसी तमिल ‘रिमेक’ हिंदी फिल्म का संवाद होगा। ऐसा तो फिल्मों के नायक ही बोल सकते हैं।

1995 में बिहार का चुनाव शेषन की अगुआई में हुआ, और तीस साल बाद वहां फिर से चुनाव होने वाले हैं। देश का दुर्भाग्य है कि महज तीन दशक में टीएन शेषन एक मिथक बन चुके हैं। शेषन की कार्रवाई से बिहार की जनता को आस जगी थी कि हम बूथ लुटेरे वाली छवि से मुक्ति पाएंगे। वोट देने के लिए जाना, सिर पर कफन बांध कर जाना नहीं होगा। शेषन के सुधारों के बाद बिहार में राजनीतिक समीकरण बदले, उस बदलाव पर जनता ने भरोसा भी किया।

तीन दशक बाद शेषन के उत्तराधिकारियों की नीति से लेकर नीयत पर सवाल उठ रहे हैं तो उसका जिम्मेदार कौन है? आप उस बिहार में निवास प्रमाणपत्र मांग रहे हैं जो सबसे बड़ा प्रवासी राज्य है। आपको कोरोना का वह दृश्य याद होगा जब लोग रातों-रात कई राज्यों से बिहार की तरफ पैदल चल पड़े थे। कोरोना के वक्त सबसे ज्यादा परेशानी बिहार सरकार को हुई थी प्रवासी वापसी के कारण। आज हमारे देश में बहुत से ऐसे नेता, विधायक, मंत्री होंगे जिनका जन्म किसी अस्पताल के रोशनी से भरे कमरे में कुशल डाक्टर के हाथों नहीं बल्कि किसी अंधेरे बंद कमरे में दाई मां के हाथों हुआ होगा। क्या चुनाव आयोग के सदस्य अखबारों में रोज छपने वाली खबरें नहीं पढ़ते कि फलां हाशिए के समुदाय की महिला को अस्पताल में बिस्तर नहीं मिला और उसने सड़क पर बच्चे को जन्म दिया। जो स्त्री सड़क पर मां बनी, जिस बच्चे ने अपने घर के किसी कमरे में आंखें खोलीं, आपको उन सबसे जन्म प्रमाणपत्र चाहिए, और वह भी इतने कम समय में।

चुनाव आयोग को यह भी मालूम होना चाहिए कि देश में अन्य संस्थाओं का क्या हाल है। शायद यही वजह है कि उसका नया फरमान बिहार में भ्रष्टाचार का नया औजार और गरीबों की जेब कटने की नई वजह बन रहा है। कई जगह आरोप लग रहे हैं कि इतने पैसे लेकर, इतने दिन में प्रमाणपत्र देने का वादा किया जा रहा है।

आयोग ने बिहार में महिला मतदाताओं के लिए भी मुसीबत खड़ी कर दी है। जिन महिलाओं का ससुराल में कोई वजूद नहीं मिल रहा था, उन्हें अपने मायके के चक्कर लगाने पड़ रहे। जिस समाज में अभी भी बेटियों को बोझ समझा जाता है, वहां विदा कर दी गई बेटियों के लिए कौन रिश्वत देगा, कौन दौड़-भाग करेगा। हाशिये पर के समाज के बुजुर्ग जिनके घर के सभी जवान किसी और राज्य में मजदूरी कर रहे हैं, उनके मताधिकार की चिंता किसे होगी?

बिहार के एक गांव में पांच लोगों को ‘डायन’ के आरोप में रात भर पीट कर जिंदा जला दिया गया। पुलिस को तब खबर मिली, जब पीड़ित परिवार का एक सदस्य किसी तरह थाने पहुंचा। संस्थाओं का यह हाल है कि पुलिस पीड़ितों के पास, अपराधियों के पास नहीं पहुंचती। पीड़ित जाकर बताता है कि मेरे साथ, यह हुआ है। जहां पर लोग बच्चे के बीमार होने पर डाक्टर के बजाय ओझा के पास जा रहे हैं, ओझा अपने फायदे के लिए किसी महिला और उसके परिवार को ‘डायन’ घोषित कर रहा है, वहां आपने नागिरकों के लिए ऐसे हालात बनाए कि अपनी जेब ढीली करे, मजदूरी के पैसे कटवाए, जहां से भी, जैसे भी साबित करे कि बिहार का मतदाता है।

जरा सोचिए, ऐसे हालात वाली जनता कभी संस्थाओं से मांग कर दे कि वह अपने बचे रहने का सबूत दे तो आप क्या करेंगे? सबूत दे कि वह व्यक्ति नहीं, राजनीतिक नहीं बल्कि संस्था है। हर तरफ से आरोप लग रहे हैं कि चुनाव आयोग की कवायद अंजाम पर पहुंची तो लगभग आठ करोड़ मतदाता वाले बिहार में लगभग दो करोड़ लोग मताधिकार से वंचित हो जाएंगे। सरकार बनाने की प्रक्रिया से वंचित होने का मतलब है, जनता के हर सरकारी अस्तित्व का खत्म हो जाना।

चुनाव आयोग ने ‘आधार कार्ड’ को पहचानने से नकार दिया। इसी जनता से, देश की संस्थाओं ने दावा किया गया था कि एक देश, एक पहचान वाले इस आधार कार्ड के बाद नागरिकों के लिए  ‘पहचान’ की कोई दिक्कत ही नहीं रहेगी। आधार कार्ड फर्जी बन सकता है तो कौन सा दस्तावेज फर्जी नहीं बन सकता है? संस्थाएं अपनी एक भी जिम्मेदारी ठीक से नहीं निभाए और जनता से बार-बार जिम्मेदारी निभाने के लिए कहा जाए।

वैसे, पिछले लंबे समय से चुनाव आयोग एक ही काम तसल्लीबख्श करता है, वह है चुनाव की तारीखों के वक्त लंबी प्रेस कांफ्रेंस करना। तारीखों का एलान तो आप किसी भी तरह से कर सकते हैं, लेकिन आप पूरा मौका देते हैं (अभी पूर्व चुनाव आयुक्त की शायरियों का खौफ तारी है) विपक्ष की शंकाओं का गालिब के शेरों से जवाब देने का। काश, जनता को भी सुविधा मिल जाती कि किसी प्रमाणपत्र की जगह मीर का शेर नत्थी कर दे।
जब टीएन शेषन ने सुधार किया था तो जमीनी पूर्वानुमान और मतपेटियों से निकले मतों में बड़ा अंतर नहीं होता था। याद रखिए, महाराष्ट्र से उठे सवाल उतने भी कमजोर नहीं हैं कि उस पर बात ही न की जाए। जिनके कार्यकाल में यह हुआ, वे अब कम से कम मीर का कोई शेर सुना कर इसे खारिज नहीं कर सकते हैं।

चुनाव आयोग सतर्क रहे कि उसे देश देख रहा है। बिहार का चुनाव पूरे देश के लिए संदेश है, जहां अभी तक जमीनी हालात की तस्वीर धुंधली है। मुख्यमंत्री पद से लेकर गठबंधन तक के सवाल अभी अनसुलझे हैं। बिहार के मतदाताओं के सामने मुश्किल खड़ी करने की इस कवायद के बाद आप पर वहां किसी पक्ष का ‘चुनाव’ करने के आरोप लगे तो आपकी साख और रसातल में जानी तय है। जनता से पहले आपकी बारी है खुद को संवैधानिक संस्था साबित करने की।