‘कासिद के आते आते खत इक और लिख रखूं
मैं जानता हूं जो वो लिखेंगे जवाब में’
चुनावी हरकारे के सामने आने के बाद जब आपको जनता की याद आती है, किसी वृहत आंदोलन से दूर सूक्ष्म प्रबंधन पर भरोसा करते हैं, चुनावी रण को बस रणनीतिकारों के भरोसे छोड़ देते हैं तो अभी के समय में आप कांग्रेस कहलाते हैं। जनता आपके साथ है या नहीं ये आपके रणनीतिकार भी नहीं जानते हैं लेकिन हार के बाद पहले से तैयार ठीकरा फोड़ जवाब में सारा दोष ईवीएम पर डाल देते हैं। कौन बनेगा करोड़पति के मानस वाली जनता के सामने आपके पास अभी तक गरीबी हटाओ का ही सहारा है। जब जनता के आध्यात्मिक गुरु भी सूट-बूट वाले हैं तो आप सूट-बूट की सरकार को कोस कर जनता से दूर ही जाते हैं। जनता को जिस दिन लगेगा कि उसका दिया वोट सही जगह नहीं पहुंचा उस दिन एक नया आंदोलन जन्म लेगा। फिलहाल ईवीएम की कागजी उम्मीद पाले कांग्रेस से सवाल पूछता बेबाक बोल कि क्या वाकई जनता उसके साथ है?

हमें कागज मतपत्र से वोट देने के लिए आंदोलन शुरू करना चाहिए।’ जब कांग्रेस केरल के वायनाड में प्रियंका गांधी की बड़ी जीत का उत्सव मना रही थी तब पार्टी के अध्यक्ष इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन के खिलाफ आंदोलन शुरू करने की बात कर रहे थे। हरियाणा से लेकर महाराष्ट्र तक में अपनी हार का ठीकरा कांग्रेस ने ईवीएम पर फोड़ दिया है। इसी समय झारखंड में हेमंत सोरेन राज्य बनने के बाद दूसरी बार लगातार सत्ता में आने की ऐतिहासिक जीत का चेहरा बन चुके हैं। ध्यान रहे, झारखंड में जीत की साझेदार कांग्रेस भी है। वहां वह छोटी भागीदार के रूप में है इसलिए वह ईवीएम के खिलाफ बड़े सवाल उठा सकती है। क्या वाकई जनता कांग्रेस के साथ है और सत्ता पक्ष तिकड़म से ईवीएम को उसके खिलाफ कर देता है? महाराष्ट्र में जनता कांग्रेस को वोट देना चाहती थी लेकिन किसी तिकड़म से भाजपा और उसके सहयोगी संगठनों को चला गया?

जनता के एक बड़े तबके की कुल आमदनी में बड़ी गिरावट आ चुकी है

जनता बनाम ईवीएम को समझने के लिए पहले जनता की स्थिति को समझना होगा। भारत की जनता के बीच कांग्रेस की शुरू की हुई नवउदारवादी नीतियों का अब तक बहुत गहरा असर पड़ चुका है। जनता के एक बड़े तबके की कुल आमदनी में बड़ी गिरावट आ चुकी है। हर क्षेत्र में सामाजिक सुरक्षा का दायरा सीमित होता जा रहा है। दूसरी तरफ कई तरह की अनिश्चितताओं के भाव का विस्तार हो रहा है। इन स्थितियों के अलग-अलग राजनीतिक समीकरण बनते हैं। ऐसे में सत्ता पक्ष चुनावों के समय यह संदेश देने की कोशिश करता है कि उसका कोई विकल्प नहीं है।

संकट के इस दौर में सभी राज्यों ने चाहे वो भाजपा शासित हो या विपक्ष का वहां जनकल्याणकारी योजनाओं खास कर प्रत्यक्ष हस्तांतरण जनता को फौरी राहत दे रहा है। देश के ज्यादातर राज्यों में मां-बहन के संबोधन से जनकल्याणकारी योजनाएं होड़ की तरह शुरू कर दी गई हैं। इन योजनाओं के संदर्भ में जनता का भरोसा किस तरफ है यह मायने रखता है।

महाराष्ट्र में जिस तरह सरकार गिरी, दो दलों में टूट-फूट हुई, विधायकों की खरीद-फरोख्त का दृश्य बना उससे वहां भ्रष्टाचार एक मुद्दा बन गया था। इसका प्रभाव लोकसभा चुनाव में दिखा था। लेकिन उसके बाद जब सत्ता पक्ष मुद्दों को अपने पक्ष में केंद्रीकृत करने लगा तब आपके पास उसके खिलाफ कोई वैचारिक आधार नहीं था।

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महाराष्ट्र से लेकर हरियाणा तक में सत्ता पक्ष यह दिखाने में कामयाब हुआ कि एक खास तबका कांग्रेस के साथ ध्रुवीकृत होना चाहता है और उसने जनता को इसके खिलाफ संगठित होने का आह्वान किया। हरियाणा व महाराष्ट्र में यह ध्रुवीकरण सफल हुआ तो झारखंड में विफल भी हुआ। झारखंड में हेमंत सोरेन आदिवासी अस्मिता पर टिके रहे तो जनता भी लगातार उनके साथ दूसरी बार टिकी। झारखंड में हिमंत बिस्व सरमा ने हर बांटने वाला मुद्दा उठाया लेकिन सोरेन के पास आदिवासी अस्मिता के रूप में वैचारिक काट थी इसलिए जनता को लगा कि हम सोरेन के साथ सुरक्षित हैं।

हरियाणा में सबसे ज्यादा सवाल उठे थे कि किसान और जवान आंदोलनों के बाद भी भाजपा की जीत कैसे हो गई। जमीन पर जो आंदोलन शुरू करेगा उस आंदोलन से निकली समझ की राजनीतिक फसल भी वही काटेगा। कांग्रेस के पास ऐसा कोई सांगठनिक ढांचा नहीं है कि वह किसी भी तरह का आंदोलन शुरू कर सके। आप दूसरों के शुरू किए किसान से लेकर जवान आंदोलन के बीच पहुंच कर उसे भुनाने की कोशिश करते हैं कि किसानों को एमएसपी देंगे, पहलवानों को न्याय देंगे। आंदोलन की जमीन आपकी अपनी नहीं होती है। किसान से लेकर पहलवान अन्य पहचानों के साथ भी रहते हैं। वो देखते हैं कि संघर्ष की जमीन पर आप भी आसमानी छलांग लगा कर आए हैं। आंदोलन के स्थगित होते ही वहां आपका वजूद भी खत्म हो जाता है और आंदोलनकारी अन्य वजूदों के साथ राजनीतिक समीकरण स्थापित करते हैं। इस समीकरण बनने वाली स्थिति में उन्हें सबसे आगे भाजपा खड़ी दिखती है।

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कांग्रेस ने जाति जनगणना के नारे पर कुछ ज्यादा ही भरोसा कर लिया था। जाति जनगणना के नारे की अति खुराक ने जनता का हाजमा खराब कर दिया। जाति जनगणना पर राहुल गांधी की भाषा ने ऐसा विषवमन किया कि जनता ने सोच लिया कि कांग्रेस के खिलाफ एक हो जाया जाए। जनता ने विपक्ष के रूप में उसे लोकसभा में जितना पसंद किया था, पेट दर्द के साथ सबका वमन विधानसभा चुनाव में कर दिया।

वहीं भाजपा ने जाति जनगणना पर चुप्पी साध ली और ‘देशहित’ की बात उठाई। हरियाणा से लेकर महाराष्ट्र में हम संघ की जिस अहम भूमिका पर सूक्ष्मदर्शी से देख कर बात कर रहे हैं वह हमें चुनाव नतीजों के पहले नंगी आंखों से क्यों नहीं दिखती? क्योंकि संघ के कार्यकर्ता जनता से जनता के रूप में ही जुड़े हुए हैं।

सत्ता से जुड़ी एक सांस्कृतिक शाखा यूट्यबरों का सम्मेलन करती है। यूट्यूबरों से कहती है कि ‘देशहित’ में भी कुछ करिए। जब वे कहते हैं कि ‘देशहित’ में करिए तो लोगों के पास संदेश जाता है कि भाजपा व सत्ता के पक्ष में कुछ करिए। पूरी दुनिया में देखे जाने वाले दूरदराज के यूट्यूबरों के लिए ‘देशहित’ में करना सत्ता का साथ देना कैसे हो गया? ‘देशहित’ का पर्याय भाजपा कैसे हो गई? देशहित का भावांतरण भाजपा हो जाना ही फिलहाल सत्ताधारी दल की सबसे बड़ी राजनीतिक पूंजी है।

आज की पीढ़ी का सबसे बड़ा मूल्य संपन्न बनना है

आप दो पूंजीपतियों के नाम के मुखालफत में हर चुनाव में नारा बना लेते हैं। ‘कौन बनेगा करोड़पति’ के इस समय में भी आप गरीबी हटाओ पर टिके हुए हैं। जो पीढ़ी अपने वीडियो के ‘लाइक’ और ‘शेयर’ से पूंजी बना रही है उसे किसी पूंजीपति से नफरत क्यों होगी भला?
आज की पीढ़ी का सबसे बड़ा मूल्य संपन्न बनना है। वह अमीरों के दुश्मन को अपना भी दुश्मन समझने लगती है। आप समाज की हकीकत से कट कर राजनीति नहीं कर सकते। यह सूट-बूट वाले प्रेरक गुरुओं का समय है जिनके वीडियो को जनता श्रद्धा से सुनती है। जब उसे सूट-बूट वाले गुरुओं से दिक्कत नहीं है तो उसे सूट-बूट वाली सरकार से क्या दिक्कत होगी? जनता का लक्ष्य ही सूट-बूट वाला बनना है। इस लक्ष्य के खिलाफ क्या आपके पास कोई वैचारिक आधार है?

राजनीति में मेहनत बोलती है इसकी मिसाल तो कांग्रेस में भी है। कांग्रेस में एक परिवार के तीनों सदस्यों ने संसद में जाने के लिए मेहनत की और पहुंचे भी। सोनिया गांधी राज्यसभा तो राहुल गांधी रायबरेली और अब वायनाड से प्रियंका गांधी। महाराष्ट्र व झारखंड में राहुल गांधी की मेहनत की तुलना अकेले वायनाड में देखिए। कांग्रेस का शीर्ष अमला विधानसभा चुनाव की उपेक्षा कर लोकसभा के उपचुनाव में जिस शिद्दत से जुटा था, उसके बाद प्रियंका गांधी की बड़ी जीत तय थी। परिवार के एक चौथे सदस्य ने भी संसद जाने की अपनी हसरत सार्वजनिक कर ही दी थी। हो सकता है आने वाले समय में उनके लिए भी कोई सुरक्षित सीट ढूंढ़ने में कांग्रेस अमला लग जाए और बाकी जगहों के लिए ईवीएम पर सवाल तैयार रखा जाए।

आर्थिक, सामाजिक से लेकर पूरे सांस्कृतिक पक्ष पर कांग्रेस के पास कोई ऐसा विचार नहीं है जिससे फिलहाल सत्ता की ओर देख रही जनता की गर्दन उसकी तरफ मुड़ जाए। सांगठनिक से लेकर वैचारिक कमजोरी को नजअंदाज करते हुए आप चुनावों में सिर्फ सूक्ष्म प्रबंधन करते हैं।
इन सारी कड़वी हकीकत को भूल कर आप कागज के दौर के मतदान की वापसी से अपनी राजनीतिक वापसी देखते हैं तो यह कागजी उम्मीद आपको कहीं का नहीं छोड़ेगी। जनता को जिस दिन लगेगा कि उसने जिसे वोट दिया उसे नहीं पहुंचा उस दिन कोई नया आंदोलन जन्म ले लेगा। लेकिन अभी क्या आप जनता को जानते हैं? जनता वाकई आपसे जुड़ी है?

लाइटहाउस जर्नलिज्म ने पाया कि सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर एक वीडियो खूब शेयर किया जा रहा है, यूजर ने दावा किया कि यह वीडियो पुराना है और 2014 से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि चुनाव बैलेट पेपर से होने चाहिए, इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) से नहीं, लेकिन बीजेपी अब ईवीएम का बचाव कर रही है। जांच के दौरान, हमने पाया कि वीडियो क्लिप्ड है और इसे भ्रामक दावों के साथ शेयर किया जा रहा है। पढ़ें पूरी खबर