एडवर्ड ज्विक की निर्देशित फिल्म ‘ब्लड डायमंड्स’ में भूमिका निभाने के बाद अभिनेता लियोनार्डो डी कैप्रियो हीरा विरोधी आंदोलनों के प्रवक्ता बन गए। एक यथार्थवादी फिल्म में निभाई भूमिका अभिनेता को नेता बना सकती है। इसके उलट दुनिया भर के राजनीतिक मंचों पर जो असली नेता हैं वह बस अभिनेताओं की तरह लोकप्रिय हो जाना चाहते हैं। बीसवीं सदी में अर्जित सिद्धांतवादी राजनीतिक संस्कृति के स्मारक पर नेताओं के संवाद गूंज रहे हैं। लोकप्रियता पाने के लिए अलोकतांत्रिक बोलने वाले नेताओं की लंबी कतार है। अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव के बाद 2024 की बची तारीखों का जैसे कोई अस्तित्व ही नहीं रहा। सबकी नजरें इस बात पर हैं कि 20 जनवरी 2025 को फलां मुद्दे पर डोनाल्ड ट्रंप क्या रुख लेंगे? ट्रंप की जीत के साथ उस ‘क्रिप्टोकरंसी’ की साख ने आसमान छुआ जिसे लोगों ने आंखों से नहीं देखा है। विभिन्न मोर्चों पर संघर्षरत जनता को संवादों से भरमाते नेता, शरणार्थियों के लिए खत्म होती सहृदयता और अदृश्य नकदी के प्रति बढ़ता रोमांच…बेबाक बोल में रुका हुआ सा साल 2024 का वर्षांत।
सम्राट अशोक के शिलालेखों में उन्हें इस उपाधि से नवाजा गया है। यानी जो देवताओं का प्यारा हो। चक्रवर्ती सम्राट को यह उपाधि खुद देवताओं ने धरती पर आकर नहीं दी होगी। एक सम्राट के लिए देवताओं से हासिल वैधता की क्या जरूरत थी? कहते हैं कि इतिहास लिखने वालों का होता है। एक शासक ने खुद को देवताओं का भी प्यारा क्यों कहा? क्योंकि उसे फिक्र है धरती पर बनने वाली अपनी छवि की। चक्रवर्ती सम्राट का ध्येय जनता के बीच लोकप्रिय होना है। इस शिलालेख के जरिए वह अपने समय के बाद की जनता के लिए भी संदेश छोड़ कर जाते हैं।
राजनीति कहीं गुम है और लोकप्रिय होने का शोर ज्यादा है
दुनिया भर की सत्ताओं ने अपने हाथ में इतिहास की कलम क्यों पकड़ी? हर सत्ता, हर शासक का अपना भय होता है। यह भय है एक दिन उसकी सत्ता खत्म होने का। इस भय में वह अपने आसपास के माहौल को इस बात से भयाक्रांत भी कर सकता है कि उसकी सत्ता कहीं नहीं जाने वाली। इसलिए वह इस बात को लेकर फिक्रमंद रहता है कि इतिहास की किताबों में उसकी सत्ता को किस तरह दर्ज किया जा रहा है। ‘देवों के प्रिय’ के इस भूलोक में प्रिय होने की यह प्राचीन ख्वाहिश आज की आधुनिक राजनीति में रूप बदल कर आ गई है। राजनीति कहीं गुम है और लोकप्रिय होने का शोर ज्यादा है। अशोक जैसे चक्रवर्ती सम्राट के निर्माण में समय लगता है। युवा के तौर पर प्रशिक्षण से लेकर उनके युद्धरत और बुद्धरत होने की एक निर्माण प्रक्रिया है। युद्ध और शांति की यह गाथा किसी निर्वात में नहीं बनती है।
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आज राजनीति और लोक के बीच संघर्ष की प्रयोगशाला पर ताला लगा दिया गया है। इसके समांतर तुरंता कृत्रिम लोकप्रियता निर्माण की प्रयोगशाला खड़ी कर दी गई है। पिछले दिनों आम आदमी पार्टी की तरफ से एक वीडियो जारी होता है। कृत्रिम बौद्धिकता से जनित बाबासाहेब आंबेडकर आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल के माथे पर हाथ फेर रहे हैं। अरविंद केजरीवाल बाबासाहेब से कहते हैं कि मुझे शक्ति दीजिए ताकि मैं उन लोगों से लड़ सकूं जो आपका और आपके संविधान का अपमान करते हैं।
राहुल गांधी नीली टीशर्ट तो कोई अन्य नीली पोशाक पहन रहा है। यहां हम सत्ता पक्ष का इसलिए जिक्र नहीं कर रहे हैं कि फिलहाल इतिहास के पन्नों पर लिखने के लिए कलम उनकी है और स्याही का रंग भी उनका है। वे खुद को ‘देवानांपिय पियदस्सी 2.0’ भी कह दें तो किं आश्चर्यं? इन सबके बीच वायरल है ‘रैप’ गाता युवा। वह अपने गाने में बताता है कि उसकी जिंदगी में आंबेडकर के क्या मायने हैं। अपने ‘रैप’ में वह कहता है कि कभी जो अछूत कहलाते थे आज उन्हें सामंती शक्तियां छू भी नहीं सकती हैं तो वह सिर्फ और सिर्फ बाबासाहेब की बदौलत। ‘अछूत’ से संवैधानिक शक्तियों के कारण ‘कोई छू भी नहीं सकता’ का यह संघर्ष अर्जित है। इसी अर्जित को भुला कर इसे तुरंता निर्मित में बदलने की कोशिश हो रही है।
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बीसवीं सदी में उभरे बाजार ने मानव समुदाय के सामने कई तरह की कृत्रिम जरूरतें पैदा कर दीं। जूटा वेल्डस और क्रिस्टीना रौली के साझा लेख ‘सो, हाउ डज पापुलर कल्चर रिलेट टू वर्ल्ड पालटिक्स’ में हीरे के ब्रांड ‘द बीयर्स’ का विस्तृत वर्णन है। कैसे कंपनी ने अपने प्रचार वाक्य ‘हीरा है सदा के लिए’ को घर-घर में पहुंचा दिया। कंपनी द्वरा 1948 में हीरे के बाजार के लिए अपनाया गया प्रचार वाक्य बीसवीं सदी के सबसे प्रसिद्ध विज्ञापनों में एक हुआ। इसके पहले पश्चिमी देशों में पारंपरिक रूप से सगाई की अंगूठी का हीरे का होना जरूरी नहीं था।
लेकिन ‘दी बीयर्स’ ने हीरे को आम जनता के बीच अमर प्रेम की निशानी बना दी। इसका असर ऐसा हुआ कि हीरा उन सभ्यता संस्कृतियों की शादियों में भी पहुंच गया जहां इसके श्वेत रंग के कारण इसे अशुभ माना जाता था। चीन और जापान जैसे देश जो अपनी सांस्कृतिक अस्मिता को लेकर काफी सजग थे वहां भी हीरे का बाजार अपनी चमक बिखेर चुका था।
‘दी बीयर्स’ की यह कहानी आगे हीरों की खान के लिए नई साम्राज्यवादी लड़ाई का रास्ता भी खोलती है। एडवर्ड ज्विक की निर्देशित फिल्म ‘ब्लड डायमंड्स’ में भूमिका निभाने के बाद अभिनेता लियोनार्डो डी कैप्रियो हीरा विरोधी आंदोलनों के प्रवक्ता बन गए। उन्होंने कृत्रिम हीरों का निर्माण करने वाली कंपनी में निवेश भी किया।
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शादियों में हीरे को अशुभ मानने वाली संस्कृतियों तक ‘दी बीयर्स’ की पहुंच कंपनी की उस कार्यशैली का नतीजा थी जिसने बाजार में तीन काम किए। पहला काम हीरे के रूढ़िवादी बाजार का रंग-रोगन करना, दूसरा लोगों के बीच हीरे के प्रति रुमानियत पैदा करना। इसके बाद हीरे के गढ़े गए उपभोक्ताओं का नेतृत्व करना। हीरा तो खदानों से निकल रहा था लेकिन ‘दी बीयर्स’ की प्रयोगशाला की परखनलियों में उसके लिए लोकप्रियता और उपभोक्ता तैयार हो रहे थे।
बीसवीं सदी के अंत तक आते-आते ‘दी बीयर्स’ हीरे के बाजार में अपना एकाधिकार तो खो बैठी है लेकिन लोकप्रियता पैदा कर उसे जनता की जरूरत बनाने की रणनीति राजनीति ने अख्तियार कर ली है। आज के दौर में आपकी राजनीतिक विचारधारा क्या है इससे अहम यह है कि आपकी पार्टी का नेतृत्व किसके पास है। नेता भाषण कैसा देता है? क्या वह पढ़ कर भाषण देता है या घंटों बोल सकता है? पहले राजनीति में अहम यह था कि कोई कैसे भी बोल रहा है लेकिन सही कौन बोल रहा है? अब सही-गलत का फर्क मिट कर अहम यह है कि सबसे ज्यादा किसकी आवाज गूंज रही है?
राजनीति में लोकप्रियता का ब्रांड युद्ध और शांति दोनों के समय भुनाया जा सकता है। जेलेंस्की व अन्य नेता इसलिए लोकप्रिय हैं कि वो दुनिया में युद्ध की जरूरत बताते हैं। इसके विपरीत वे नेता भी लोकप्रिय हैं जो युद्ध के खिलाफ शांंति की बातें करते हैं। दोनों खेमे सिर्फ यह देखते हैं कि लोकप्रियता का पारा किधर ज्यादा चढ़ता है।
साल 2024 में कुछ देशों में सत्ता बदली और तुरुप का पत्तानुमा नेता आए। लोकलुभावन राजनीति के दौर में सबसे चिंताजनक स्थिति रही लोकप्रिय नेताओं का अब तक का सबसे अलोकतांत्रिक बोलना। बीसवीं सदी के अर्जित मूल्यों के खिलाफ लुभावने भाषण देना और तालियां बटोरना। राजनीतिक मंचों से मूल्यों के विखंडन को लोकप्रिय बनाना। बीतते 2024 की कई बची तारीखें निरर्थक सी लग रही थीं क्योंकि दुनिया की नजर 2025 की बीस जनवरी पर जाकर टिक चुकी थी। अभी सारे मुद्दे इसलिए रुके पड़े हैं कि इस मुद्दे पर डोनाल्ड ट्रंप क्या रुख लेंगे?
‘दी बीयर्स’ की तरह अमेरिका की राजनीति के कारखाने से निकली लोकिप्रयता की राजनीति जनतंत्र को किस तरफ ले जाएगी? इस राजनीति ने जनता को एक ऐसे बच्चे की तरह बना दिया है जो हमेशा मनोरंजन खोजता है। उसे अपने सामने कुछ न कुछ मजेदार होते देखना है। बच्चे का मकसद किसी समस्या का समाधान नहीं सिर्फ अपना मनोरंजन करना होता है।
लोकप्रियता की इस राजनीति ने जनता को व्यस्क से बच्चा बना दिया है। उसे हर दूसरे दिन नया गांधी और दूसरी, तीसरी, चौथी आजादी पकड़ा दी जाती है। आजादी की रुमानियत भी हीरे जैसी है। खान में श्रमिकों के संघर्ष को भुला सिर्फ चमकते हीरे को ही सामने रखा जाता है। नागरिकों के सामने चमकते लोकप्रिय नेता हैं और नेपथ्य में है अलोकप्रिय संघर्ष की राजनीति।
कृत्रिम संघर्ष के पुल से 2025 में प्रवेश की यह राजनीति राजनीतिक तौर पर हमें व्यस्क बनाएगी या हर चीज में मनोरंजन खोजता बच्चा। क्या ऐसे नेता मिलेंगे जो लोकतंत्र की हिफाजत करते दिखेंगे सदा के लिए? बिना संघर्ष, सवाल और समाधान की कृत्रिम राजनीति के इस वर्षांत के साथ…
आप सबको नए साल की शुभकामनाएं।