तुंदी-ए-बाद-ए-मुखालिफ से
न घबरा ऐ उकाब
ये तो चलती है तुझे
ऊंचा उड़ाने के लिए
सय्यद सादिक हुसैन

आज 2022 का आखिरी दिन है, साल का आखिरी स्तंभ। गुजिश्ता साल की सबसे बड़ी उपलब्धि यही दिख रही कि काम-धंधे से कोरोना की मंदी छट गई है। हवाईअड्डों पर उमड़ी भीड़ ने बता दिया था कि पर्यटन स्थल गुलजार हो गए हैं। टिकट खिड़की से लेकर मंदिर के दर तक कतार ही कतार है। यात्रियों के भरोसे चलने वाले उद्योग खुश हैं कि कमाई के दिन लौट आए। वहीं कुछ यात्री ऐसे भी हैं जिन्होंने राजनीतिक टिप्पणीकारों के स्तंभ से सरोकारी शब्दों की मंदी का मंजर हटा दिया है। सड़क पर निकले उस यात्री का शुक्रिया, जिन्होंने टिप्पणीकारों के तीखे सवाल और तेवर लौटाए। राजनीतिक टीका में सवाल और सलाह के पुनर्जन्म का उत्सवी माहौल देख कर लगता ही नहीं कि यही लोग दिन में 108 बार कहीं कोई विकल्प नहीं यानी ‘टीना’ का जाप किया करते थे।

साल के अंत में राहुल की यात्रा पर Political Commentators की समीक्षा बढ़ी

साल का अंत आते-आते राहुल गांधी ने राजनीतिक टिप्पणीकारों की मौज करवा दी है। भले ही कोई गोवा, मलेशिया, बाली, मालदीव में छुट्टी मनाने पहुंच गया हो लेकिन राहुल गांधी के मामले में ‘काम ही पूजा’ का दर्शन अपनाया जा सकता है और ट्वीट से लेकर आनलाइन वार्तालाप किया जा सकता है। दक्षिण भारत से राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ शुरू होने के बाद जिन स्तंभों में उसे हिकारत की दृष्टि से खारिज किया जा रहा था दिल्ली पहुंचते ही एक हंगामा सा बरपा दिख गया। राहुल की यात्रा को हर कोई अपने तरीके से परिभाषित करना चाहता है। यात्रा में राहुल को क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए सरीखे ऐसे लेख लिखे जा रहे हैं जो एक-दूसरे की नकल-प्रति दिख रहे हैं।

आखिर क्या कारण है कि राजनीतिक हस्ती से सवालों को संग्रहालय में रख आए लोगों के पास राहुल गांधी के लिए हजारों सवाल हैं। इसलिए कि उन्हें पता है, प्रखर पत्रकारिता दिखाने के लिए पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष सबसे सुरक्षित लक्ष्य हैं। उनके पास पूरी स्वतंत्रता है, राहुल गांधी के बारे में कुछ भी लिख सकने की। कुछ ही दिनों पहले की बात है कि टीवी चैनल पर बहस के दौरान वरिष्ठ समाचार प्रस्तोता के मुंह से राहुल गांधी के लिए गाली तक निकल गई थी। याद करिए, इसके पहले ऐसा कब हुआ था कि किसी राष्ट्रीय पार्टी के पूर्व अध्यक्ष, विपक्ष का चेहरा, सांसद, प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के लिए समाचार प्रस्तोता के मुंह से गाली निकल जाए। हालांकि, समाचार प्रस्तोता ने अपनी इस हरकत के लिए माफी मांगी थी।

नफरत के खिलाफ यात्रा की खुशी को राहुल ही समझते है

जब राहुल गांधी कहते हैं कि मेरी यात्रा नफरत के खिलाफ है तो वही लोग यकीन नहीं करते हैं जो टीवी से लेकर अखबार तक में उनके लिए ‘पप्पू’ जैसे असंसदीय शब्द लिख कर, बोल कर उनके खिलाफ नफरत का इजहार करते हैं। इस तरह की नफरत के खिलाफ वही यात्रा निकाल सकता है जो इसका शिकार हो। जनसंचार के हर मंच से नफरत झेल रहे राहुल को जब सड़क पर जनता का प्यार मिलता दिख रहा है तो इसकी खुशी को भी फिलहाल सिर्फ राहुल गांधी ही समझ सकते हैं।

कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने नई दिल्ली में सोमवार, 26 दिसंबर, 2022 को पूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को श्रद्धांजलि अर्पित की। (पीटीआई)

सड़क पर राहुल गांधी को देख कर शुरू में जिस तरह से शाब्दिक नफरत उड़ेली जा रही थी, उसने 2020 में सड़क पर चल रहे मजदूरों की याद दिला दी जो कोरोना के कारण अपने गृह-प्रदेश जाने के लिए मजबूर हुए थे। उस वक्त अपने घरों में सुकून से बैठे लोगों के लिए सरकार से सवाल नहीं था बल्कि उनके लिए मजदूरों का सड़क पर निकलना बवाल था। सरकार पर पूरा भरोसा था, लेकिन मजदूरों पर गुस्सा था कि वे कोरोना फैला देंगे। धीरे-धीरे मजदूरों के पक्ष में लोग आने शुरू हुए, और सड़क पर चल रहे मजदूरों को मनुष्यता की नजर से देखा जाने लगा।

2020 में सड़क पर चल रहे मजदूरों के लिए भी ऐसा ही भाव उमड़ा था

लेकिन, राजनीतिक टिप्पणीकार अभी भी राहुल गांधी को एक राजनीतिक अपराधी की तरह ही देख रहे हैं कि बताइए इस यात्रा का नतीजा क्या रहा? अरे यात्रा गुजरात में तो गई नहीं वहां चुनाव था तो क्या मतलब, बिहार में नहीं गई, उत्तर प्रदेश में छू कर निकल गए तो क्या किए? विपक्ष के लोग आपके साथ क्यों नहीं? राहुल गांधी अपनी यात्रा को लेकर लगातार कह रहे हैं कि नफरत कम कर रहा हूं, तो शायद यह लक्ष्य राजनीतिक टिप्पणीकारों के पाठ्यक्रम से बाहर का हो गया है। शायद राजनीति का मतलब संसदीय चुनाव जीतना, जोड़-तोड़ कर सरकार बनाना रह गया है। बिना चुनावी सीट जीते यात्रा का भला क्या मतलब हो सकता है?

मजेदार बात यह है कि राहुल गांधी की यात्रा पर क्या छप रहा है, क्या दिख रहा है इसकी कोई चिंता नहीं कर रहा है। खुद राहुल गांधी ही नहीं कर रहे हैं। यही बात अहम है कि राहुल गांधी इन सवालों की चिंता नहीं कर रहे जो टिप्पणीकार पूछ रहे कि यात्रा का हासिल-ए-चुनाव क्या है।

यात्रा आधी से ज्यादा पूरी हो गई है और उसके कश्मीर पहुंचने की तैयारी हो चुकी है। अभी तक यात्रा को लेकर राहुल का मकसद साफ दिख रहा है कि कांग्रेस की सर्वधर्म सद्भाव वाली बुनियाद पर टिके हुए हैं। मंदिर-मस्जिद, गिरजाघर जाकर हिंदू-मुसलिम-सिख-ईसाई सब हैं भाई-भाई वाले परिदृश्य में गुम हो चुके सुर को आलाप देने की कोशिश कर रहे हैं।

दिल्ली में राहुल ने वह भी किया, जिसकी उम्मीद तक कौन बनेगा फलां-फलां की भविष्यवाणी करनेवाले राजनीतिक पत्रकारों व टिप्पणीकारों ने नहीं की थी। राहुल गांधी पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की समाधि पर गए। कुछ समय से पूर्व प्रधानमंत्रियों व विपक्ष के नेताओं की छवि धूमिल करने की जो प्रवृत्ति चल रही है, राहुल ने पीछे से उनकी पीठ पर भी धप्पा दे दिया है। राहुल हर उस हवा के खिलाफ जा रहे हैं जिसका रुख राजनीतिक टिप्पणीकारों ने तय किया है।

2014 का आम चुनाव हारने के बाद कांग्रेस से सबसे ज्यादा सवाल सड़क और संगठनात्मक स्तर पर ही किए जा रहे थे। कहा जा रहा था कि बिना संगठनात्मक ढांचा सुधारे, सड़क पर उतरे कांग्रेस का कुछ नहीं हो सकता। और, यह सवाल सटीक था, इससे भटकने की जरूरत भी नहीं थी। लेकिन, अब इन सवालों को समझ कर राहुल सड़क पर उतर चुके हैं, कांग्रेस को गांधी परिवार के बाहर का अध्यक्ष मिल चुका है, संगठन को दुरुस्त करने की कवायद हो रही है तो फिर ‘भारत जोड़ो यात्रा’ को चुनावी सीटों के आंकड़ों पर खारिज क्यों किया जा रहा है।

राजनीतिक टिप्पणी के स्तंभ को हर हफ्ते आना होता है, टीवी पर परिचर्चा रोज होनी होती है, लेकिन राजनीतिक पर्यावरण बनने और बदलने में पीढ़ियों का समय लगता है। ऐसा नहीं है कि बस इस एक यात्रा से कांग्रेस व राहुल गांधी विपक्ष का सबसे मजबूत चेहरा बन जाएंगे या केंद्रीय सत्ता हासिल कर लेंगे। अभी संगठन से लेकर सत्ता तक भारतीय जनता पार्टी अपने सुनहरे दौर में है, इसलिए कांग्रेस की चुनौती बहुत बड़ी है।

शनिवार, 24 दिसंबर, 2022 को नई दिल्ली में लाल किले के पास भारत जोड़ो यात्रा के दौरान समर्थकों को संबोधित करते हुए कांग्रेस नेता राहुल गांधी। (पीटीआई फोटो)

भारत जोड़ो यात्रा वह शिशु कदम है जो आगे राहुल गांधी और कांग्रेस की चाल को तेज कर सकता है। लोकतंत्र में विपक्ष वैसे ही जरूरी होता है जैसे आधुनिक फोन में इंटरनेट। राहुल गांधी ने बस विपक्ष की तरंगें फिर से भरी हैं, देखना है कि कितनी दूर तक जाते हैं। राजनीति में सक्रिय निरंतरता सबसे जरूरी है, और उम्मीद की जा सकती है कि राहुल इसे बनाए रखने की कोशिश करेंगे।

फिलहाल तो राहुल गांधी गुस्साए राजनीतिक टिप्पणीकारों की गुस्साई टिप्पणियों के सामने वैसे ही मोहब्बत-मोहब्बत कर रहे जैसे गुस्सा कर रहे मां-बाप को मनाने के लिए बच्चे को उन्हें बोसा देने के अलावा कुछ नहीं सूझता। साल के अंत तक सिले होठों को सवाल तो दे गया ये स्वयंभू नेता मोहब्बतवाला…। राहुल के इस चलने के अभी और भी चित्र बनने हैं यह तो तय है।