Rahul Gandhi Yatra And Political Impact On Congress: कभी संसद पर प्रभुत्व रखने वाली कांग्रेस को सड़क का महत्त्व समझ आते ही राहुल गांधी ने ‘भारत जोड़ो यात्रा’ शुरू कर दी। अहम चुनावी राज्यों से यात्रा को दूर रखने की रणनीति बता रही है कि राहुल गांधी समझ चुके हैं कि राजनीतिक परिवर्तन इतनी आसानी से नहीं आता है। यात्रा को हम प्रायोगिक शिक्षा कह सकते हैं जो आपकी समझ का विस्तार करती है। इस यात्रा के नफे-नुकसान का तुरंता नतीजा निकालना लोकतंत्र के पाठ्यक्रम को कमतर करना होगा। मध्य प्रदेश में जब राहुल गांधी की यात्रा आधी पूरी हो चुकी है तो लोकतंत्र के प्रति उनकी विनयशील सी दिखाई जा रही छवि पर बेबाक बोल

मैं अकेला ही चला था
जानिब-ए-मंजिल मगर
लोग साथ आते गए
और कारवां बनता गया

मजरूह सुल्तानपुरी

‘राहुल गांधी आपके दिमाग में हैं, मेरे दिमाग में नहीं। मैं राहुल गांधी को बहुत पीछे छोड़ चुका हूं’। पनी पैदल यात्रा में आधी दूरी तय कर चुके राहुल गांधी कहते हैं कि मैं राहुल गांधी को बहुत पीछे छोड़ आया हूं। राहुल गांधी ने यात्रा की शुरुआत में कहा था कि हमारी ‘भारत जोड़ो यात्रा’ राजनीतिक नहीं है। यह समान विचार के लोगों को साथ लेकर चलने की बात है। हमारा मकसद देश के बुनियादी मुद्दों पर बात करना है।

परिवर्तन। आजादी के पहले और आजादी के बाद यह एक शब्द है जो राजनीति के मैदान में अपना अर्थ खोजता रहा है और समय के साथ इसके अर्थ बदलते भी रहे हैं। आज जब राहुल गांधी की यात्रा का 87वां दिन है तो हम उनके साथ परिवर्तन शब्द की पड़ताल कर सकते हैं। जहां तक भारत जोड़ो यात्रा की जनसंचारी छवि का सवाल है तो बहुआयामी संचार व्यवस्था के जरिए सामाजिक मंचों पर अच्छी तस्वीरें आ रही हैं।

बच्चों से लेकर गौरी लंकेश, रोहित वेमुला के परिजन तक यात्रा में साथ आए

गौरी लंकेश की बहन, रोहित वेमुला की मां, बलात्कार पीड़िता की मां, मेधा पाटकर, अपनी व्यथा कहते युवा, मनोरंजक सवाल करते यू-ट्यूब पत्रकार, स्कूली बच्चियां, खेतिहर मजदूर, किसान, शारीरिक चुनौतियां झेल रहे लोग। यात्रा की जारी की जा रही तस्वीरों को देखें तो राहुल से मुलाकातियों की सूची बहुत लंबी है, सार यही कि पीड़ित और विपक्ष की पहचान वाले हर चेहरे को कैमरे के चौखटे में रखने की कोशिश की गई है।

पिछले आठ सालों से कांग्रेस की राजनीति के संदर्भ में अभी तक ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के लिए जिस शब्द का इस्तेमाल किया जा सकता है वह है-सफलता। ‘भारत जोड़ो यात्रा’ अभी तक उस संदर्भ में कामयाब दिख रही है कि राहुल के साथ वंशवादी गांधी की छवि तोड़ने की पूरी कोशिश की जा रही है। अभी तक बनाई गई सुकुमार राजकुमार की छवि से निकलने की यह यात्रा आगे जनता के लिए छलावा साबित हो सकती है, लेकिन आज के दौर में इस यात्रा के दौरान राहुल गांधी वही करने की कोशिश करते दिख रहे हैं जिसे भारतीय लोकतंत्र में विपक्ष कहा जाता है।

यह विश्लेषणों और नतीजों की हड़बड़ी का दौर है। यात्रा में राहुल के एक कदम आगे बढ़ते ही उनके चार कदम आगे के बारे में कहा जाने लगा। शुरुआत केरल से हुई कि हिंदी प्रदेश में कांग्रेस का आधार नहीं बचा है, वहां जाने का जज्बा नहीं इसलिए केरल में वाम सरकार को बदनाम करने के लिए सबसे ज्यादा दिन ‘भारत जोड़ो यात्रा’ को रखा गया है।

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मध्य प्रदेश के खंडवा और राजगढ़ में समर्थकों के साथ राहुल गांधी। (फोटो- पीटीआई)

वहीं अटकलें लगने लगीं कि हार के डर से गुजरात नहीं जाएंगे तो हिमाचल नहीं जाएंगे। सबसे ज्यादा अटकलें गुजरात और हिमाचल पर क्योंकि वहां विधानसभा चुनाव की प्रक्रिया चल रही है और केंद्रीय सत्ता पक्ष ने दोनों जगह अपनी ताकत झोंक रखी है। ज्यादातर राजनीतिक विश्लेषकों ने पदयात्रा के शुरुआती दौर में ही राहुल को डरा हुआ करार दिया कि संभावित हार को देखते हुए चुनावी राज्यों से नहीं गुजर रहे हैं।

पदयात्रा के नक्शे से हिमाचल और गुजरात को अलग रखना राहुल गांधी की रणनीति का हिस्सा हो सकता है। यह कहना बहुत जल्दी होगी कि इन दोनों राज्यों में हार के डर से राहुल गांधी नहीं गए। पहली रणनीति तो यही कि यात्रा के अराजनीतिक रखने का एलान करना। अगर राहुल यात्रा के दौरान गुजरात और हिमाचल में चुनावी रैलियों को संबोधित करते तो सबसे पहले यात्रा ही दागदार होती कि इन्हीं दो राज्यों के लिए शुरू किया था।

पार्टी की रणनीति रही कि चुनावों को स्थानीय नेताओं के हवाले ही रखें

गुजरात और हिमाचल में कांग्रेस की रणनीति को देखें तो हमें वहां भी ‘परिवर्तन’ करने की मंशा ही दिख रही है। कांग्रेस ने शायद रणनीति बनाई है कि स्थानीय चुनावों को स्थानीय नेताओं के हवाले ही रखना चाहिए। स्थानीय नेता अपने स्थानीय मुद्दों पर ही लड़ाई लड़ेंगे। ‘सितारा प्रचारकों’ का चलन कांग्रेस ही लेकर आई थी तो इस मुद्दे पर अब वह जमीन पर आना चाहती है। हालिया चुनावी कार्यक्रमों में कांग्रेस की तरफ से किसी सितारा प्रचारक की सूची नहीं जारी की गई।

राहुल गांधी जिस तरह से राष्ट्रीय और वृहत्तर मुद्दों पर बोल रहे हैं उससे लगता है कि कांग्रेस अपने राष्ट्रीय नेताओं को राष्ट्रीय स्तर पर ही रखना चाहती है। इंदिरा गांधी के भी दौर में लोकसभा चुनावों में वे 30-40 से ज्यादा चुनावी रैलियों को संबोधित नहीं करती थीं। वहीं आज के दौर में राष्ट्रीय नेता 300 से ज्यादा रैलियों का आंकड़ा पार कर जाते हैं।

कांग्रेस के लिए राष्ट्रीय नेताओं का अनुभव भी बुरा रहा

हाल के दिनों में राहुल गांधी के लिए कांग्रेस के राष्ट्रीय नेताओं का अनुभव भी बुरा रहा है। वे इतने आत्मकेंद्रित हो जाते हैं कि उनके लिए अपनी पहचान सबसे अहम होती है। गुलाम नबी आजाद, कपिल सिब्बल जैसे नेताओं से तो उन्हें यही सबक मिला है। अभी तो राष्ट्रीय नेता कांग्रेस के लिए शर्मिंदगी का ही विषय बनते जा रहे हैं। केरल में शशि थरूर अपने निजी वजूद की जमीन तलाशते नजर आ रहे हैं।

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उज्जैन में महाकालेश्वर के दरबार में ध्यान मग्न कांग्रेस नेता कमल नाथ के साथ राहुल गांधी। (फोटो- पीटीआई)

इसलिए नए स्थानीय नायकों पर भरोसा करना ज्यादा जरूरी दिख रहा है ताकि कांग्रेस दिल्ली दरबार की संस्कृति से बाहर आए। गुजरात और हिमाचल चुनावों के समय अगल-बगल से गुजर रहे राहुल गांधी फिलहाल इन दोनों राज्यों को प्रयोगशाला की तरह देख रहे हैं। पिछले विधानसभा चुनावों में गुजरात में कांग्रेस का प्रदर्शन बेहतर होता जा रहा था। वह औसतन दस से बारह सीटों की बढ़त ले रही थी। पिछली बार तो गुजरात में कांग्रेस को 77 सीटें मिली थीं। ऐसे में इस बार राहुल गुजरात में आरोपों-प्रत्यारोपों से दूर हैं। अभी तक वे अपने प्रयोग को लेकर स्थिर दिख रहे हैं।

यात्रा कांग्रेस पार्टी के साथ पूरे भारतीय राजनीतिक परिदृश्य के लिए संदेश है

दुनिया के राजनीतिक इतिहास में यात्राओं का अपना महत्त्व है। एक तरह से कहें तो दुनिया के इतिहास में यात्रियों ने नए देश खोजे तो इस कारण गुलाम उपनिवेश भी बनाए गए। राहुल गांधी की अब तक की यात्रा कांग्रेस पार्टी के साथ पूरे भारतीय राजनीतिक परिदृश्य के लिए संदेश है। पहला संदेश है प्रयोग और संयम का। अगर आप में संयम नहीं है तो आप कोई भी परिवर्तनकारी प्रयोग नहीं कर सकते। राजनीतिक टिप्पणीकारों को भी थोड़ा देख कर, रुक कर समझने का संदेश है। यह नहीं कि 300 किलोमीटर की चुनावी यात्रा में कार चालक से बात कर चुनावी नतीजे का एलान कर दिया तो एक दिन की यात्रा के बाद ही कांग्रेस की पूरी आगे की कुंडली लिख दी। राजनीतिक बदलाव कोई सिनेमा घर का पर्दा नहीं जहां हफ्ता बदलते ही फिल्म बदल जाती है।

लोकतंत्र की किताब में सबसे मुश्किल व उम्मीदों भरा अध्याय है विपक्ष का। 2014 में चुनाव के बाद तकनीकी रूप से संसद के गलियारे में कांग्रेस विपक्ष के तमगे के काबिल भी नहीं रही थी। आज उन्हीं आंकड़ों के साथ जनता के बीच राहुल गांधी विपक्ष का चेहरा बनते हुए दिख रहे हैं। हिमाचल और गुजरात का प्रयोग राहुल गांधी के लिए नाकाम भी हो सकता है, लेकिन उनकी इस यात्रा का हासिल धनात्मक होगा जो जरूरी नहीं कि चुनावी सीटों के रूप में गिना जाए।

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भारत जोड़ो यात्रा के दौरान मध्य प्रदेश के उज्जैन में पीड़ित महिलाओं के साथ राहुल गांधी। (फोटो- पीटीआई)

राहुल गांधी की प्रयोगयात्रा के बाद एक संयमी व विनयशील नेता का चेहरा सामने आया है। प्रतिरोध और पीड़ित चेहरों के साथ वाला चेहरा जो विपक्ष की पहली शर्त है। जिस कांग्रेस ने विश्व व्यापार संघ से लेकर डंकल प्रस्ताव के दस्तावेजों पर दस्तखत किए थे आज वह इनके प्रभावितों के साथ खड़ी होने की बात कह रही है। कांग्रेस को मर जाने की सलाह देने वाले योगेंद्र यादव उनके साथ चल रहे हैं। संस्कृत के श्लोक में कहा गया है कि विद्या विनय देती है। यात्रा भी एक तरह की शिक्षा है जो शायद राहुल के साथ कांग्रेस को जनता के प्रति विनयशील बना दे। लोक-कथाओं में कहा गया है कि होशियार वही है जो दूसरे के प्रयोग से सीख ले। अभी तक चली यात्रा में कांग्रेस के साथ हम सबके लिए थोड़ी सी सीख है।

राजनीतिक दल जब लोकतांत्रिक शिक्षण-प्रशिक्षण का काम करते हैं तो लोकतंत्र को थोड़ा और मजबूत करते हैं। फिलहाल तो हर मुद्दे पर चीखते-चिल्लाते, गुस्सा से करते लोकतंत्र को विनय व संयम की जरूरत दिख रही है जो विपक्ष के हिस्से से ही आ सकती है। राजनीतिक बदलाव की डगर बहुत लंबी होती है। अभी तो श्रीनगर ही दूर है।