ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भाजपा की सदस्यता स्वीकार कर ली और उन्हें राज्यसभा का टिकट भी मिल गया। तो क्या यह कांग्रेस में भूत बनाम भविष्य की लड़ाई है? क्या सिर्फ इतनी सी बात है कि देश की सबसे पुरानी पार्टी के पुराने लोग नए लोगों को आगे नहीं बढ़ने देना चाह रहे हैं? कांग्रेस आलाकमान बेहतर कदम उठा कर इस हालात को रोक सकता था? सचिन पायलट को राजस्थान तो ज्योतिरादित्य सिंधिया को मध्य प्रदेश की कमान दी जाती तो कांग्रेस बहुत मजबूत स्थिति में रहती, लोकसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत बटोरती और राहुल गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा नहीं देना पड़ता? इन सवालों के साथ एक तथ्य यह कि ज्योतिरादित्य सिंधिया अपनी लोकसभा सीट पर बुरी तरह हारे थे। फिलहाल तो भाजपा ने उस नामदार चेहरे का गाजे-बाजे से स्वागत किया है जिन्हें लोकसभा क्षेत्र में कामदार के सवाल पर नकारा गया था।

आजादी के बाद भी भारतीय राजनीति में महारानी और महाराजाओं का बोलबाला कम नहीं हुआ। यह एक ऐसी सामंती विरासत थी जो लोकतांत्रिक रूप से चुने गए नेताओं ने भी ग्रहण की। राजा का बेटा राजा तो मंत्री का बेटा मंत्री। वाम और कुछ चुनिंदा दलों को छोड़ इसमें सभी एक समान हैं। आज भी भारत एक ऐसा लोकतंत्र है जिसमें राजा के बेटे को कहीं कोई दिक्कत नहीं होती। और न ही आजादी के बाद लोकतांत्रिक रूप से चुने राजाओं की संतानों को। कुछ दिनों पहले बिहार के अखबारों में पुष्पम प्रिया चौधरी बिहार के प्रमुख अखबारों में पहले पन्ने का विज्ञापन देकर खुद को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर देती हैं। पार्टी को पंजीकृत कराए बिना ही घोषणा कर देती हैं कि उनकी पार्टी ‘प्लूरल्स’ 2020 का बिहार विधानसभा चुनाव लड़ेगी। उनके पिता व जद (एकी) के नेता मीडिया के सामने मासूमियत से बोलते हैं कि सुबह विज्ञापन देख कर उन्हें भी लगा कि यह उनकी बेटी है। उन्हें नहीं मालूम था कि उनकी बेटी ऐसा कोई कदम उठाएगी। अब उनके पिता को कितना मालूम था यह कोई शोध का विषय नहीं, लेकिन मध्य प्रदेश से लेकर बिहार तक की राजनीति पर शोध जरूर हो सकता है कि पुराने राजाओं से लेकर नए तक के बच्चों को कोई दिक्कत नहीं होती है। उनके पास इतना पैसा है कि सीधे अखबारों में विज्ञापन देकर राजनीति में प्रवेश कर सकते हैं। बिहार इतना पिछड़ा क्यों हैं शायद यह सवाल पुष्पम प्रिया ने अपने पिता से नहीं किया होगा, जिनकी पार्टी ने डेढ़ दशक से सुशासन और विकास का तमगा थाम रखा है। बिहार में निर्धन से लेकर काले धन के खेल को समझने के लिए पुष्मप प्रिया का विज्ञापन ही काफी है। जिस बिहार की जमीन से कांग्रेस के विकल्प का नारा निकला था, एक विचारधारा निकली थी वहां अब सूरज उगते ही अखबार की जर्सी के रूप में मुख्यमंत्री पद का स्वघोषित उम्मीदवार निकल जाता है।

एक राजनेता की बेटी विज्ञापनों से खुद को मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित कर देती हैं तो एक राजा से राजनेता बनने वाले की संतान कांग्रेस को छोड़ भाजपा में चली जाती है। अब सवाल यह है कि सिंधिया को भाजपा में ऐसा क्या मिलने की उम्मीद हुई थी। कांग्रेस में आगे वो मुख्यमंत्री बन सकते थे और इसकी संभावना खत्म नहीं हुई थी। अगर राजनीतिक फायदे के रूप से देखें तो लेन-देन का कोई बहुत बड़ा मसला नहीं बनता है। सिंधिया कांग्रेस की केंद्रीय कार्यकारिणी में थे और उनकी अहमियत किसी भी तरह से कम नहीं थी। संसद में राहुल गांधी के आंख मारने के चर्चित घटनाक्रम के वक्त भी दिखा था कि वे पार्टी अध्यक्ष के कितने करीब हैं। लेकिन यह भी सच है कि कुछ भी अचानक नहीं हुआ है।

सिंधिया के मामले में खतरे की घंटी तब बजी थी जब उन्होंने अनुच्छेद-370 के मसले पर ट्वीट किया था। लेकिन इस घंटी को कांग्रेस ने सुना नहीं और ऐन होली के दिन उसका नगाड़ा बज गया कि अब कांग्रेस का क्या होगा। अनुच्छेद-370 पर सिंधिया के अलग सुर से साबित हो गया था कि पार्टी विचारधारा के स्तर पर काफी कमजोर हो चुकी है। देश की सबसे पुरानी पार्टी के बारे में आज अगर चिंता करनी है तो इसी विचारधारा के स्तर पर करनी है।

सिंधिया का कांग्रेस छोड़ भाजपा में जाना विचारधारा का संकट है। कांग्रेस ने खुद को जिस उदारवादी राज और समाज का अग्रदूत बनाया था वह उस पर टिक नहीं सकी। अपनी विचारधारा को बचाने के लिए उसने किया भी क्या? अपनी जमीन पर कठोर श्रम करने के बजाए भाजपा ने अपने हिंदुत्व की विचारधारा पर जो मेहनत की कांग्रेस उसी में बटाईदार बनने के लिए पहुंच गई। कांग्रेस की जमीन पर वैचारिक सूखा है तो भाजपा की हरियाली का हिस्सेदार बनने को कई तैयार हैं।
यह मुख्यमंत्री का पद और राज्यसभा का टिकट तो बहाना है। कांग्रेस के पास कोई वैचारिक धुरी नहीं बची है और उसके अंदर उदारवादी विमर्श खत्म हो रहा है। भाजपा ने कांग्रेस को वैचारिक आधार पर जो बेदखल किया है उसके खिलाफ पार्टी में किसी तरह की छटपटाहट भी तो नहीं दिख रही है। ज्योतिरादित्य का अनुच्छेद-370 के खात्मे के पक्ष में ट्वीट करना इस बात का सबूत था कि कांग्रेस का उदारवादी वैचारिक गढ़ पूरी तरह से ढह चुका है। जिस उदारवाद की वह वारिस है राजनीति के मैदान में उसकी जरूरत को ही खत्म किया जा रहा है। सिंधिया का संकट वैचारिक ही है। 370 पर ट्वीट की घंटी जब मुनादी में बदली तब तक बहुत देर हो चुकी थी।

कांग्रेस अब भी खुलकर अपनी विचारधारात्मक लड़ाई को आगे नहीं लाएगी तो उसके पूरे आधार को ही निगल लिया जाएगा। पिछले कई चुनावों में देखा गया कि विश्वविद्यालय परिसरों से लेकर देश के कई जगहों पर चुनावों में लोगों ने अपने स्तर पर नजरें उठा कर देखा कि हमारी बात कौन कर रहा है। किसानों से लेकर कामगारों का पूरा वर्ग नेतृत्वहीन होकर अपने स्तर पर संघर्ष कर रहा है। दिल्ली में लोगों ने लोकतांत्रिक भाषा बोलने वालों को चुना, लेकिन कांग्रेस की वारिस आम आदमी पार्टी के रूप में।
कमलनाथ, दिग्विजय हों या ज्योतिरादित्य सिंधिया ये सभी कांग्रेस में व्यक्तिवाद के ही प्रतीक हैं। कांग्रेस में व्याप्त व्यक्तिवाद की व्याधि के सामने तो राहुल गांधी तक नहीं टिक सके और उन्हें पार्टी का अध्यक्ष पद छोड़ना पड़ा। जब राहुल गांधी ने एलान कर दिया था कि न तो मैं और न मेरे परिवार का कोई सदस्य पार्टी का अध्यक्ष बनेगा तो उनकी माताजी ही अपने बेटे के सिद्धांत के आड़े आ गर्इं। सोनिया गांधी चाहतीं तो परिवार के बाहर से एक अध्यक्ष चुना जा सकता था। लेकिन वह भी संभव नहीं हो सका। इसके पहले भी देखा गया है कि कांग्रेस में उन लोगों को हमेशा से बाहर का रास्ता देखना पड़ा है जिन्होंने खुद से अपने अधिकारों की मांग की। लेकिन ऐसा वर्चस्ववादी संघर्ष हर राजनीतिक दल में अपने अलग-अलग रूप में है। यह सब उतना मायने नहीं रखता अगर कांग्रेस ने अपनी वैचारिक लड़ाई छोड़ी नहीं होती।

पिछले कुछ दिनों से ऐसे हर राजनीतिक हादसे के बाद सबसे पहला सवाल यही आता है कि क्या कांग्रेस पार्टी पूरी तरह खत्म हो जाएगी? राहुल गांधी ने विधानसभा चुनाव के समय कांग्रेस के युवा और वरिष्ठ नेता के साथ लियो टॉल्सटाय की पंक्ति से शीर्षक दिया था-दो सबसे शक्तिशाली योद्धा हैं संयम और समय। लेकिन दरबारी नेताओं के पास यही दो चीज नहीं होती है। अच्छा है कि कांग्रेस का दरबार खाली हो रहा है। आजादी की लड़ाई के समय महात्मा गांधी ने नारा दिया था करो या मरो। अब भी कांग्रेस ने विपक्ष के तौर पर अपनी वैचारिकता को बचाने के लिए कुछ नहीं किया तो उसका मरना तय है। भारत अभी राजनीतिक संभावनाओं की प्रयोगशाला है। यहां तो उम्मीदों का ऐसा निर्वात है कि सुबह अखबार के विज्ञापन में मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार मिल जाता है। वैचारिकी के खाली मैदान में अब यह कांग्रेस पर है कि वह उम्मीदों का भविष्य बने या निराशा का भूत।