भारतीय खेल संघों में पचास फीसद जगहों में भी मानकों के मुताबिक यौन उत्पीड़न शिकायत निवारण समिति नहीं है। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपने कंधों पर तिरंगा लहरा कर दौड़ने वाली खिलाड़ी बाल यौन उत्पीड़न जैसे गंभीर आरोपों के साथ धरने पर बैठी हैं तो आरोपी फूल मालाओं से लद कर कह रहा है कि इस्तीफा नहीं दूंगा। अपराध के आरोप पर यह तेरा है तो, यह मेरा है के वर्गीकरण से उपजे हालात पर बेबाक बोल में प्रश्न, क्या कानून अनेक है?

मैंने किया तो मैंने किया
तूने किया तो क्यों किया
मैंने दिया तो आबे हयात
तूने दिया तो जहर दिया
जंतर-मंतर, महिला पहलवान और बृजभूषण शरण सिंह। ये छवियां क्या कहती हैं? क्या हम उस स्थिति में आ गए हैं जब अपराध के आरोप का यह तेरा है, और यह मेरा है में वर्गीकरण होगा। स्पष्टीकरण होगा-यह सत्ता का गलियारा है, जहां कानून अनेक है। हमने सांसदों के भ्रष्टाचार को रोकने के लिए लोकपाल जैसा जो शिशु कदम उठाया था, उसकी कोई लाज रही नहीं। अरविंद केजरीवाल विधानसभा में वही बोलते हैं जो बाहर नहीं कह सकते। वहां बोलने के लिए अभयदान मिला हुआ है, वहां कानून संज्ञान नहीं लेता।

इस बार इल्जाम सत्ताधारी खेमे पर है

वैश्विक मंच पर पदकों से कभी ये दमकते चेहरे आज सिसकते हुए शिकायत कर रहे हैं तो आपको बिल्कुल भरोसा नहीं हो रहा है। क्योंकि, इस बार इल्जाम सत्ताधारी खेमे पर है। याद करें, लखीमपुर कांड में किसानों की हत्या में बेटे के आरोपशुदा होने के बाद गृह मंत्रालय के गलियारे में सीना चौड़ा कर घूमते हुए अजय मिश्र को। इस्तीफा मांगने वालों के सामने सत्ता पक्ष ने अजय मिश्र का जयकारा किया कि ऐसे आरोपों के बाद भी लखीमपुर खीरी में सभी सीटें जीत गए।

विभिन्न स्रोतों के आंकड़े बताते हैं कि हमारी संसद में सौ से ज्यादा सांसदों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। हाल के दिनों में इनके सजायाफ्ता होने की खबरें भी आ रही हैं। जब अतीक अहमद के बारे में विदेशी एजंसी ने ‘पूर्व कानून निर्माता’ लिखा तो कई लोग आहत हुए कि ऐसा क्यों लिखा। लेकिन, यह कितना बड़ा सच है कि हमारे लिए कानून कुछ वैसे लोग भी बना रहे हैं जिन्हें भविष्य में कानूनन अपराधी घोषित किया जा सकता है, कुछ को किया जा चुका है।

मनीष सिसोदिया पर इल्जाम लगते ही पूरी भाजपा उनका इस्तीफा मांगने के लिए सड़क पर आ जाती है। लेकिन, आरोप तेज होने के साथ ही बृजभूषण सिंह के गले में गेंदे की माला का मेला लग गया। वे कई मंचों पर शान से कहते हैं, इस्तीफा नहीं दूंगा, आरोप साबित हुए तो जान दे दूंगा। लेकिन महोदय, राजनीतिक शुचिता आपकी जान मांग ही नहीं रही है। शुचिता का काम मामले की जांच तक आपके इस्तीफे भर से हो जाएगा। निर्दोष साबित होने पर आपको कोई और अच्छा पद मिल ही जाएगा।

सत्ता पक्ष को भी इस्तीफा देने में वही डर है कि पता नहीं मामले का अंजाम क्या होगा? एक बार इस्तीफा देने के बाद पता नहीं क्या होगा? निर्दोष साबित होने में भी तो सालों लगेंगे। जी, सालों लगते हैं। इतिहास पर नजर डालें कि पीड़ित कितने साल इंतजार करते हैं।

वह साल 1988 था। पंजाब प्रशासन में वरिष्ठता के क्रम में पांचवीं पंक्ति की महिला। ऐसे पदनाम को सुनते ही ऐसी सशक्त महिला का चेहरा सामने आएगा जिसे देख कर अदब से आंखें नीची होती होंगी। लेकिन, पंजाब प्रशासन की यह अधिकारी देश के इतिहास में वह महिला साबित हुई जो भारतीय अदालत में सबसे पहले यौन उत्पीड़न के मामले को लेकर पहुंची। रुपन देओल बजाज की गरिमा पर एक समारोह में हमला हुआ। वह भी उनकी पति की मौजूदगी में। सदमे में पहुंची बजाज थाने में प्राथमिकी दर्ज करवाती हैं जहां कोई जांच नहीं हुई।

उन्होंने इस लंबी लड़ाई को लड़ने की ठान ली। बजाज के साथ न्याय तब होता है जब सुप्रीम कोर्ट मामले में दखल देता है। 2005 में दोषी को सजा होती है।

आज जब देश की ओलंपिक पदकवीर जंतर-मंतर पर धरना दे रही हैं तो इस मसले पर बात करने से पहले उस इतिहास को याद करना जरूरी था। इस बहस में सबसे पहले इन कुतर्कों को खारिज किया जाए कि पहलवानों का शोषण कोई कैसे कर सकता है। तब क्यों नहीं बोली? इस कैसे का जवाब रुपन देओल बजाज 1988 में दे चुकी थीं, अगर हम उसे सुनना चाहें। बजाज के लगाए आरोप लंबे समय तक अदालत में खारिज होते रहे। हजारों पन्नों की किताबों से भी यह बात समझने में मुश्किल हो रही थी कि बजाज की स्त्री गरिमा के हनन को किस तरह से परिभाषित किया जाए।

पंजाब से सटे हरियाणा में खिलाड़ी रुचिका गिहरोत्रा की खुदकुशी स्याह सबक है कि ऐसे मामलों में चुप्पी और देरी का अंजाम क्या होता है। उभरती हुई टेनिस खिलाड़ी रुचिका का सब कुछ उसी दिन से डूबने लगता है जब उसने यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया। जिस बच्ची के साथ पूरे तंत्र को खड़ा हो जाना चाहिए था उसे स्कूल से निकाल दिया गया। यौन उत्पीड़न और उसकी शिकायत के बाद बदले हालात से परेशान रुचिका ने आत्महत्या कर ली। सालों चली लड़ाई में दोषी को छह महीने की सजा हुई। रुचिका भी देश के लिए पदक जीत सकती थी, अगर उसकी शिकायत के बाद उसे समाज व सत्ता से मानसिक सुरक्षा मिली होती।

रुचिका गिहरोत्रा के उदाहरण से समझिए कि महिला पहलवानों के इस प्रदर्शन पर सबसे भद्दा हमला इसे ‘जीजा-साली संघर्ष समिति’ कह कर खारिज करना है। रुचिका का दर्द उसके परिजनों और करीबी दोस्तों के अलावा किसने समझा था? अपने लोगों के असीमित सहयोग और सीमित संसाधनों के बल पर ये पदक लेकर लौटती हैं।

उनके पदक की चमक से जब आंखें चुंधियाती हैं तो हम अपनी बैठकी से देश की बेटी, देश की बेटी, गर्व-गर्व ट्वीट करना शुरू करते हैं। फिर टीवी पर आंसू बहाते हुए उनकी खबरें देखते हैं कि कोई फलां राज्य की खिलाड़ी माड़-भात खाकर खेलने जाती थी तो किसी के पैरों में जूते नहीं होते थे। हम खुद के सामने खुद को अच्छा साबित करने के लिए आंसू गिराते हैं। लेकिन, जैसे ही खिलाड़ी उत्पीड़न के आरोप लगाती हैं आंसुओं को विपरीत बल से आंखों में वापस ले जाकर नफरत की चिंगारी निकाली जाती है कि अभी तक क्यों नहीं बोली। अरे, आरोपी के साथ तो हंसती हुई तस्वीर है।

एक तो गरीबी और दूसरा खेल के मैदान का संघर्ष। आपके घर के बाहर का कोई आदमी शायद ही समझे कि माड़-भात से मुक्ति और हासिल हुई जरा सी आफियत के बाद इस तरह के सवालों से जूझना कितना मुश्किल होता है कि शिकायत के बाद क्या होगा? खेल के मैदान पर तमगा हासिल करने के लिए आपने क्या खोया है, यह कोई आपका अपना ही समझेगा, इंटरनेट पर हैशटैग देश की बेटी साक्षी मलिक देख कर ट्वीट करनेवाला नहीं।

ताजा मामले में सुप्रीम कोर्ट की पीठ के सामने दिल्ली पुलिस के वकील कहते हैं, ‘अगर शीर्ष अदालत को लगता है कि सीधे प्राथमिकी दर्ज की जा सकती है तो ऐसा किया जा सकता है’। सवाल यही है कि शीर्ष अदालत के दखल के पहले ऐसा क्यों नहीं किया गया? बाल यौन उत्पीड़न को संगीन आरोपों में माना जाता है। इसमें भी सुप्रीम कोर्ट के दखल के बाद प्राथमिकी दर्ज हो तो क्या उम्मीद की जा सकती है?

कितने लोगों के पास सुप्रीम कोर्ट जाने का संसाधन या हौसला जुट पात है। रुपन देओल बजाज के दो दशक के संघर्ष का हासिल आज क्या है?
इस मामले में भारतीय ओलंपिक संघ की अध्यक्ष पीटी उषा के बयान ने उस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति को एकदम से सामने ला दिया है, जहां हर कुछ विभाजित हो रहा है। पीटी उषा का बयान हो या इस मामले में किसी और का, यह बताने के लिए काफी है कि आज हर किसी ने अपना पक्ष चुन लिया है। हर किसी को या तो इस पार रहना है या उस पार।

ऐसे में सबके पास काटो और चिपकाओ बयान ही है-पहले क्यों नहीं बोली। पीटी उषा यौन उत्पीड़न की शिकायत को जंतर-मंतर पर ले जाने को अनुशासनहीनता कह रही हैं। आरोप और जांच के बीच यह सवाल नहीं होना चाहिए कि पहले क्यों नहीं बोली, उस जगह पर जाकर क्यों बोली। जिस दिन बोली, जब बोली, जहां पर बोली पुलिस का काम है प्राथमिकी दर्ज कर जांच शुरू करना।

पुलिस हो या पीटी उषा, समाज का भरोसा कई सीढ़ियों पर चढ़ कर बनता है। कल पीटी उषा की सफलता को देख न जाने कितने लोगों ने अपनी बेटियों को उड़न परी बनने के लिए पंख दिए होंगे, हिचकते हुए घर से निकाला होगा। आज उन्हीं की वजह से लड़कियां गलत के खिलाफ बोलने में और देर करेंगी कि पीटी उषा भी बोलने को अनुशासनहीनता बता रही हैं।

शायद उन्हें इस बात की जानकारी हो गई होगी कि भारतीय कुश्ती संघ में यौन उत्पीड़न की शिकायत के लिए आंतरिक समिति नहीं है। इंसाफ मांग रही खिलाड़ियों को लेकर पीटी उषा का कथित अनुशासन और आरोपी के पक्ष का शासन कह रहा-कानून अनेक है।