एक निजी एअरलाइंस की कंपनी उड़ान भरती है और उद्घोषक विमान के चालक दल के सदस्यों में महिलाओं और केबिन क्रू के सदस्यों में पुरुष नाम लेता है। महिलाएं विमान उड़ा रही थीं और पुरुष यात्रियों के खान-पान और अन्य सुविधाओं का ख्याल रख रहे थे, शिशुओं को भोजन कराने और डायपर बदलने में मदद कर रहे थे। बाजार की दी हुई इस आसमानी बराबरी से जब हम जमीन पर उतरते हैं तो एक पार्टी की मुखर प्रवक्ता पार्टी से नाराजगी जताती हैं कि उनके साथ दुर्व्यवहार करने वाले लोगों पर कार्रवाई निरस्त कर दी गई। पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी के अपमान से दूसरी पार्टी के समर्थकों को मतलब नहीं और दल बदलते ही जयाप्रदा के अपमान पर पूरा ‘सामाजिक न्याय’ चुप्पी लगा जाता है। चुनावी माहौल में पौरुषतंत्र के पाठ पर बेबाक बोल।
पुलवामा हमले के बाद भारत के हवाई हमले को लेकर टेलीविजन परिचर्चा में सरकारी पक्ष के नेताजी अपना पक्ष रख रहे थे। परिचर्चा में शामिल हुए विपक्षी नेता के सवालों से नाराज होकर उन्होंने कहा, ‘अगर विपक्षी दल डरा हुआ है तो जाकर चूड़ियां और पेटीकोट पहने’। इस उदाहरण के बाद महिला समाचार प्रस्तोता नाराज हो गई और उन्होंने कहा, ‘विपक्ष को आपसे सवाल पूछने का हक है लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि जवाब देने में आप कुछ भी बोलते जाएं…चूड़ियां पहनने वाली महिलाएं फाइटर जेट उड़ाती हैं और कोई भी महिला विरोधी बयान बर्दाश्त नहीं होगा…’। समाचार प्रस्तोता नाराज हो रही थीं और नेताजी असमंजस में थे कि उन्होंने तो बस एक मुहावरे का प्रयोग किया था जिसमें गलत क्या था। कैमरे में दिख रहा नेताजी के चेहरे का भोलापन बता रहा था कि वे प्रस्तोता के वैचारिक स्तर तक नहीं पहुंच पा रहे थे।
गंभीर बहस के दौरान यह दुखदायी स्थिति इसलिए बनी क्योंकि प्रस्तोता और नेता के बीच चेतना का फासला था। ऐसा ही माहौल टीवी के बाहर दर्शकों का भी था। कुछ लोग प्रस्तोता के गुस्से का वैचारिक आधार तो समझ रहे थे और कुछ लोग नेताजी के प्रति सहानुभूति जता रहे थे। भारतीय समाज और राजनीति के विडंबना का यह दृश्य सोशल मीडिया पर विचरण कर लाइक और कमेंट बटोर रहा था।
नेता और प्रस्तोता के बीच चेतना का यह फासला पूरे देश के स्तर पर है। बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी को जब सत्ता पक्ष के मंत्री घूंघट में रहने की सलाह देते हैं तो उनकी पार्टी के समर्थकों को ये समझ नहीं आता कि इसमें गलत क्या है। वहीं सपा नेता की घोर आपत्तिजनक टिप्पणी मंच पर बैठे पार्टी के मुखिया को ही गलत नहीं लगी तो फिर उसके आम कार्यकर्ताओं और समर्थकों से उम्मीद छोड़िए कि खान साहब की राजनीतिक सेहत पर इसकी आंच आने देंगे। पिछले दिनों दिल्ली में हुए एक समारोह में उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री इस बात को लेकर बहुत उत्तेजित थे कि एक अखबार ने उनकी तुलना औरंगजेब से कर दी थी। यह उन्हें अपने लिए घोर अपमानजनक लग रहा था। मुसलमान शासक की पहचान से आहत नेता मंच पर अगर अपने नेता द्वारा एक स्त्री की अस्मिता पर प्रहार कर रहे बयान से ‘कूल’ थे तो यही पहचान की राजनीति की सीमा भी बताता है।
एक पहचान अपने लिए वोट मांग सकती है लेकिन दूसरे के लिए संवेदनशील नहीं हो सकती है। पहचान के सीमित दायरे में सामाजिक न्याय रखेंगे तो वह समाज को और विद्रूप व खोखला ही बनाएगा। कल तक सत्ता विरोधी रुझान आज जाति और धर्म की पहचान तक सीमित है तो उसका असर यह है कि पति शत्रुघ्न सिन्हा भाजपा को ‘खामोश’ बोलकर कांग्रेस के सदस्य बनते हैं तो उनकी पत्नी समाजवादी पार्टी की सदस्यता ग्रहण कर अचानक से राजनाथ सिंह के मुकाबले खड़ी कर दी जाती हैं। नई-नई सपाई पूनम सिन्हा के लिए कार्यकर्ता जब तालियां बजा रहे हैं तो उनके लिए नई-नई भाजपाई जयाप्रदा के लिए कोई संवेदनशीलता और हमदर्दी नहीं है। अचानक से राजनाथ सिंह के खिलाफ खड़ी की गई पूनम सिन्हा को महिला सशक्तिकरण का उदाहरण तो नहीं मान सकते। जया प्रदा और राबड़ी देवी को भी आज यह अपमान इसलिए झेलना पड़ रहा है कि राजनीति में उन दोनों का प्रवेश मर्दवादी समीकरण के संरक्षणवाद के ही तहत हुआ था। आजादी के बाद से 2019 तक महिलाओं के प्रतिनिधित्व का यही समीकरण है।
2019 के चुनावी पाठ को देखिए। केंद्र की मंत्री एक ऑनलाइन सर्वेक्षण करवाती हैं कि उनके साथ गलत भाषा नहीं बोली जाए। मंत्री जी का कसूर था कि पासपोर्ट कर्मचारी के दुर्व्यव्हार मामले में उन्होंने एक मुसलिम उपनाम की महिला के पक्ष में कदम उठाया था। यह बात उनकी पार्टी के समर्थकों को नागवार गुजरी और जब मंत्री ने इसके खिलाफ अपनी आवाज उठाई तो मंत्री के पति तक संदेश पहुंचा दिया गया कि उन्हें अपनी पत्नी को पीटना चाहिए। स्मृति ईरानी से लेकर प्रियंका गांधी वाड्रा तक को जो लैंगिक दुराभाव झेलना पड़ा उसे देख, सुन, पढ़ कर जवाहरलाल नेहरु से खफा होना तो लाजिम है।
इस लैंगिक विमर्श में हम बहुत जिम्मेदारी और गंभीरता से पिछले 70 साल और जवाहरलाल नेहरु को ला रहे हैं। नेहरु प्रतीक रहे हैं नए भारत के निर्माण के, छोड़ो कल की बातें, कल की बात पुरानी का नारा लगाने वाले। लेकिन दुखद है कि पिछले सत्तर साल में आधुनिकीकरण के साथ जो सामंती मानसिकता की दीवार मजबूत हुई है वह पूरी प्रक्रिया पर सवाल उठाती है। पिछले सत्तर सालों में सामंतवाद के ढांचे को तोड़ने की ईमानदार कोशिश हुई होती तो आज ऊपर वर्णित समाचार प्रस्तोता और नेता एक-दूसरे को लेकर इतने हैरान-परेशान नहीं होते।
आजादी और आधुनीकीकरण के बाद भारतीय राज और समाज में महिला मुक्ति का सवाल सिर्फ प्रतिनिधित्व का सवाल बनकर रह गया। प्रतिनिधत्व की अगुआई ने महिला मुक्ति का मार्ग बनने ही नहीं दिया। सामाजिक संरचना में बदलाव किए बिना यह संभव भी कैसे हो सकता था। सामाजिक न्याय जैसा शब्द महिमामंडित तो खूब हुआ लेकिन इसका हासिल प्रतिनिधित्व तक रह गया। कुछ जगहों पर महिला को जगह मिल गई, लेकिन उस जगह पर मालिकाना हक पितृसत्ता का ही रहा।
सामाजिक न्याय का मतलब है सामाजिक भेदभाव को दूर करना, और पिछले सत्तर सालों में इसकी सचेत कोशिश दूर-दूर तक नहीं दिखती। इसके लिए दरकार थी बुनियादी ढांचे में ईमानदार बदलाव की। समाज में जो अधिकार है, जमीन का सवाल है, खेती-किसानी और अन्य संपत्ति का बटवारा, इन बुनियादी सवालों में कोई परिवर्तन आया क्या? इन सबको दरकिनार कर महज प्रतिनिधित्व से मुक्ति मिल जाएगी क्या? ढांचे को यथावत रख प्रतिनिधत्व के सिंहासन पर बैठाने की साजिश यही है कि सामंती ढांचे को मलबा होने से बचाया जाए। औरत-मर्द, ऊंच-नीच, अगड़ा-पिछड़ा की मुखर पहचान बनी रहे। कुछ चेहरों को प्रतिनिधित्व दे बदलाव की पूरी मुहिम पर चुप्पी साध ली जाए। लेकिन यहां ध्यान रखने की बात यही है कि प्रतिनिधित्व सीमित होता है और सामाजिक न्याय असीमित। और इसी असीमित से डरती है सामंती व्यवस्था। लंबे समय तक औपनिवेशिक गुलामी झेलने के बाद सामंतों ने जो अंग्रेजों से समझौता कर लिया उसी का उत्पाद थी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस। आजादी के बाद जनता की सोच में परिवर्तन का लक्ष्य हो सकता था, सामंती चेतना बदलने का जिसमें हमारी सत्तर साल वाली व्यवस्था नाकाम रही। सामाजिक न्याय की हांडी चढ़ा कर उसमें परिवारवाद की खिचड़ी पकाई गई। जातिवादी समीकरण से सत्ता हासिल करना ही लक्ष्य बन गया है। तो ऐसा समाज महिलाओं को कितना न्याय दे सकता है यह कोई बहुत उलझन भरा सवाल नहीं है।
चाहे राबड़ी देवी हों या जया प्रदा, इनके प्रति मर्दवादी सामंती टिप्पणियों से नाराजगी किनको है? बुरा उन्हीं को लग रहा है जो सामंती सोच से आगे बढ़ चुके हैं। और इतना सा भी उदारीकरण पूंजीवादी बाजार की स्वचालित सीढ़ियों की वजह से आया है न कि सामाजिक न्याय की सीढ़ियों पर हांफ कर चढ़ने से। आज जब ऐसे मामलों पर सुप्रीम कोर्ट या चुनाव आयोग कोई फैसला सुनाता है तभी हम संतोष व्यक्त कर पाते हैं। लेकिन कुछ संवैधानिक संस्थानों के जरिए हम चेतना को नहीं बदल सकते हैं। जब तक संरचना में बदलाव नहीं होगा तो चेतना में बदलाव नहीं होगा। सीने की पैमाइश को पैमाना बनाया जाएगा तो फिर महिलाओं के लिए घूंघट ही आएगा। इस चुनावी पाठ का सार तो फिलहाल लोकतंत्र को पौरुषतंत्र में ही दिखा रहा है। अब जल्द से जल्द ये सूरत बदलनी चाहिए वरना महज हंगामा खड़ा करने वालों की फौज खड़ी है।