सत्ता पक्ष के आरोप के अनुसार कांग्रेस लोगों की संपत्ति का एक्स-रे करेगी या नहीं, यह दूर की बात है, लेकिन प्रवर्तन निदेशालय जैसी संस्था दिल्ली के मुख्यमंत्री की थाली का एक्स-रे कर चुकी है। निजता के खतरे पर सवाल उठाते हुए हमने यह नहीं सोचा था कि जल्दी ही एक मुख्यमंत्री के खान-पान की निजता का हनन कर उन्हें आम और आलू-पूरी खाने के नाम पर शर्मिंदा करने की कोशिश होगी कि देखिए मधुमेह के मरीज जमानत पाने के लिए ऐसा कर रहे हैं। लोकतांत्रिक संस्थाओं के साफ-साफ दिख रहे क्षय का असर है कि पांच साल तक चुनावी धुन में रहने वाले राजनीतिक दल के लिए मतदान केंद्र पहुंचने का जनता के बीच उत्साह कम हो रहा है। राम मंदिर में तो श्रद्धालुओं की लंबी कतार लग रही है, लेकिन सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के मतदान केंद्र में मतदाताओं की कतार पहले की तुलना में छोटी हो रही है। महाराष्ट्र की जनता संदेश दे रही है कि वोट देकर क्या करें जब नेता दलबदल कर मनचाही सरकार बना लें। मुख्यमंत्री के थाली के एक्स-रे से लेकर उदासीन मतदाता के संबंध की व्याख्या करता बेबाक बोल।
मैं जो बोला कहा के यह आवाज उसी खाना-खराब की सी है –मीर तकी मीर
यह तो बहुतों को मालूम है कि उद्धृत शेर में ‘खाना खराब’ में खाना का अर्थ दिमाग से है। मीर तकी मीर ने इसे लिखते हुए सोचा भी नहीं होगा कि आगे चलकर भारतीय राजनीति में ऐसा समय आएगा जब इसका मतलब हिंदी के ‘खाना खराब’ से लिया जाएगा। मधुमेह ऐसी बीमारी है जिसके लिए पूरी दुनिया में अलग-अलग मानदंड हैं।
मधुमेह के ही इतने प्रकार हैं कि इस बीमारी के एक मरीज की दवाई और खान-पान दूसरे मरीज से अलग होता है। इसलिए न तो इस बीमारी के लक्षणों का सामान्यीकरण किया जा सकता है और न ही इसके मरीजों के खान-पान को फार्मूलाबद्ध किया जा सकता है कि मधुमेह के सभी मरीज किसी खास तरह का खाना खाएं या न खाएं।
भारतीय आहार विशेषज्ञों के एक तबके का आरोप है कि मधुमेह की बीमारी में पूरी तरह पश्चिम के मानकों का इस्तेमाल किया जाता है जबकि भारत की जलवायु विविध है। सेब बनाम आम पर भी बहस है कि पश्चिम के प्रभाव के कारण ही मधुमेह के मरीज को सेब खाने की तो सलाह दी जाती है, लेकिन आम को वर्जित बता दिया जाता है।
मधुमेह का ऐसा कोई मरीज नहीं है जो आम या आलू-पूरी नहीं खा सकता है। सीमित मात्रा में अगर मौसमी फल और अन्य चीजें न खाई जाएं तो शरीर में बहुत तरह के पोषक तत्त्वों की कमी हो सकती है जो अलग तरह की समस्या पैदा कर सकती है। मधुमेह और आहार पर इस शुरुआती चर्चा को पढ़ कर पाठक कहीं झुंझला न बैठें कि यह राजनीतिक स्तंभ है या कोई आहार या सेहत से संबंधित? भला स्तंभकार हमारा वक्त क्यों जाया कर रहा है?
भारत में लोकसभा चुनाव के लिए चल रहे मतदान के दौरान यह चर्चा इसलिए कि कुछ सालों पहले निजता के हनन और राज्य की निगहबानी का जो खौफ जताया जा रहा था आज वह सच साबित हो रहा है। प्रवर्तन निदेशालय ने सारी हदों को पार करते हुए एक मुख्यमंत्री के खान-पान पर सवाल उठा दिए। किसी व्यक्ति का मर्ज उसकी निजता का मामला होता है। उसका खाना भी निजता का मामला होता है।
जब अदालत में अरविंद केजरीवाल के लिए ऐसे सबूत पेश कर दिए गए कि अदालत ने अपनी शुरुआती टिप्पणी में उन पर शराब घोटाले के मुख्य साजिशकर्ता दिखने का अंदेशा जताया है तो फिर उनकी छवि को मलिन होने के लिए और क्या रह जाता है? तर्क, सबूत, दलील सभी सिर्फ और सिर्फ शराब घोटाले के इर्द-गिर्द होने चाहिए। प्रवर्तन निदेशालय आम मोहल्लों की वैसी छवि प्रस्तुत कर रहा है जहां दूसरों के घर की खुसुर-फुसुर कान लगा कर सुनी जाती हो। दरवाजे की ओट से झांक कर देखा जा रहा हो कि किसके घर में क्या पक रहा? पकवान देसी घी में बने या वनस्पति तेल में।
देश की एक सशक्त एजंसी की तुलना ऐसे मोहल्ले के किस्सों से करना एक भयावह खतरे को कमतर करने की बात है। कहने का आशय यह है कि पहले जो झगड़ा मोहल्लों में करवाया गया कि उसके फ्रिज में क्या है, उसके टिफिन में क्या है वो सोशल मीडिया तक पहुंचा दिया गया कि फलां त्योहार के समय उसने ये खा लिया तो वो खा लिया। जहां चुनावी मैदान में बहस इस विषय पर होना चाहिए था कि महंगाई की वजह से लोगों की थाली से खाना कम क्यों हो रहा है, पौष्टिक पदार्थ गायब क्यों हो रहे हैं तो बहस इस पर चली गई कि किसने क्या खा लिया।
कुछ समय पहले राजनीतिक गलियारे की बहस के जरिए मीम लोकप्रिय हुआ, रसोड़े में कौन था? एकता कपूर मार्का धारावाहिक जिसमें सास, बहू की हर हरकत पर नजर रखती है। अब ईडी के ‘आम आरोप’ देख कर स्याह हास्य सूझता है कि मिल गया एकता कपूर मार्का सास के सवाल का जवाब। रसोड़े में ईडी थी।
भारतीय अदालतों के कई न्यायमूर्ति विभिन्न मंचों पर यह ताकीद करते आए हैं कि जमानत नियम और जेल अपवाद होने चाहिए। इस न्याय-सिद्धांत को परे रख प्रवर्तन निदेशालय ने अरविंद केजरीवाल पर आरोप लगाया कि दिल्ली के मुख्यमंत्री शर्करा का स्तर बढ़ाने के लिए आम और आलू-पूरी खा रहे हैं। आम आदमी पार्टी की बात समझी जा सकती है वो अपने नेता की छवि बचाने और जमानत के लिए सेहत से लेकर कई तर्क दे सकती है।
लेकिन, प्रवर्तन निदेशालय जब एक मुख्यमंत्री के आम और आलू-पूरी खाने की बात को सार्वजनिक करता है तो लगता है कि अब संस्थाओं के क्षय के लिए क्या बचा है? संस्था अपनी गरिमा भूल कर एक मुख्यमंत्री पर उसी तरह आरोप लगा रही है जिस तरह ससुरालियों की छवि है कि बहू कामचोरी करने के लिए बीमार पड़ गई।
अरविंद केजरीवाल जमानत मिल जाए इसलिए शर्करा का स्तर बढ़ा रहे हैं यह हास्यास्पद तर्क देकर तो ईडी ने संस्थाओं के क्षय वाली इतिहास की किताब में अपना अध्याय सुरक्षित कर ही लिया है। लगता है कि प्रवर्तन निदेशालय के अधिकारी फिल्मी किस्से खूब पढ़ते हैं कि इस नायक ने फिल्म के पहले वजन इतना घटाया तो इतना बढ़ाया।
लेकिन, वजन और शर्करा के स्तर में बहुत फर्क है। यह इंसान के बस में नहीं कि वह मनचाहे स्तर पर शर्करा के स्तर को ऊपर ले जाए और फिर आबरा का डाबरा बोल कर उसे नीचे भी कर दे। शर्करा का स्तर जिस तरह बहुअंगीय नाकामी का जिम्मेदार होता है तो यह बताना विडंबना की हद है कि कोई आदमी जमानत के लिए शर्करा के स्तर को अपनी अंगुलियों पर नचा सकता है।
चुनाव के पहले चरण के मतदान के बाद सभी राजनीतिक दल ‘मतदाताओं में उत्साह की कमी’ से परेशान हो गए। रामलला के मंदिर में तो रोज श्रद्धालुओं की लंबी कतार लग रही है, लेकिन उत्तर प्रदेश में पहले चरण में ही मतदाताओं की कतार छोटी दिखी थी। सवाल यही है कि उत्तर प्रदेश व कई अन्य जगहों पर मतदाताओं में उत्साह की कमी का जिम्मेदार कौन है?
ऐन चुनाव के वक्त पदासीन मुख्यमंत्री की गिरफ्तारी के बाद आम और आलू-पूरी को लेकर उनकी छवि मलिन करना, नेताओं का मूल मुद्दों के आस-पास भी नहीं फटकना। यहां चिंता इस बात की कम है कि मुख्यमंत्री जैसा खाना आम बंदियों को मिलता है या नहीं, यहां इस बात की ज्यादा चिंता है कि जब मुख्यमंत्री की निजता का इस तरह हनन हो रहा है तो आने वाले वक्त में आम लोगों की निजता का क्या होगा?
बात आहार की है तो एक तबका ऐसा भी है कि वह सामान्य दिनों में निरामिष खाता भी है तो खास पर्व के समय में सामिष ही खाता है और इस तरह की शुचिता की उम्मीद करता है कि उसके आसपास निरामिष भोजन की तस्वीर भी न दिखे। अगर चुनावों को चुनाव आयोग से लेकर राजनीतिक दल पर्व कहते हैं तो उसे शब्दश: पर्व की तरह लेना शुरू करें।
जैसे पर्व के दिनों में शुचिता का पूरी तरह ख्याल रखा जाता है तो कम से कम चुनावी पर्व के समय ही जनता की तसल्ली के लिए शुचिता का ध्यान रखा जाए। जनता को सियासत की हकीकत तो मालूम है लेकिन लोकतंत्र का दिल बहलाने के लिए चुनाव के समय तो शुचिता का आवरण सरकारी एजंसियों से लेकर राजनीतिक दल ओढ़ा करते थे।
आचार संहिता का अचार बना कर यह नहीं कहते थे कि देखो फलां ने इसे अपना रक्तचाप बढ़ाने के लिए खा लिया कि रक्तचाप बढ़े तो जमानत मिले। चुनाव के फिजा को इतने निम्नस्तरीय माहौल में ले जाकर जनता में मतदान के लिए उत्साह ढूंढ़ा जा रहा है। सलाम है उस जनता को जो ऐसे माहौल में भी मतदान को पहला नागरिक कर्त्तव्य मान कर वोट देने के लिए बाहर निकल रही है, खुद में उत्साह बचाए रख रही है कि वह सुबह कभी तो आएगी…।