जब भी कविता के बारे में सोच-विचार की प्रक्रिया शुरू होती है, तो बरबस ही संस्कृत काव्यशास्त्र के आचार्य भामह की पंक्ति कौंध जाती है- ‘शब्दार्थौ सहितौ काव्यम्’। भामह ने कहा कि शब्द और अर्थ का सहित भाव कविता है। आखिर यह सहित भाव क्या है? जब शब्द और अर्थ ‘सत्यम शिवम सुंदरम्’ की अभिव्यक्ति के लिए परस्पर पूरक भी हों और एक तरह की स्पर्धा में भी हों तो संभवत: उसे शब्द और अर्थ का सहित भाव कहा जा सकता हो। कितनी अद्भुत होती होगी वह प्रक्रिया, जिसमें पूरकता हो, लेकिन साथ ही स्पर्धा भी हो। स्पर्धा कैसी भला!
शब्द सोचें कि अर्थ अपने सर्वसुंदर रूप में, अपने परम शिखर के रूप में अभिव्यक्त हो और उसे प्रेरित करने के लिए शब्द स्वयं अपने सौंदर्य और लयात्मकता के उत्कर्ष तक पहुंचने का प्रयास करे। और अर्थ की अनुभूति यह हो कि शब्द का संगीत, शब्द का सौंदर्य ही उसे उसके मर्म के दर्शन कराता है, इसलिए वह कुछ ऐसा करे कि शब्द अपने परम सौंदर्य को प्राप्त हो। दोनों के बीच एक ऐसी स्पर्धा जो अपने लिए न हो, बल्कि दूसरे के विजय के लिए हो। जहां भी शब्द की चेतना समय और काल के पार पहुंची है, वहां हो न हो यही प्रक्रिया घटित हुई हो।
आखिर शब्द और अर्थ का सहित भाव कब और कैसे घटित होता है? शायद स्वयं से, प्रकृति से, समस्त जीव-जगत से संवाद करते हुए कुछ औदात्त के क्षण घटित होते होंगे। औदात्त की कौंध से उन क्षणों में हमारे अंतरतम पर जमी तम की परतें धुलने लगती होंगी और अंतरतम के दर्पण में स्वयं की छवि दिखने लगती होगी। उन क्षणों में ही संभवत: रचनाकार खुद का साक्षात्कार कर पाते होंगे और शायद ऐसे ही क्षणों में शब्द और अर्थ का सहित भाव घटित होता हो! क्या ऐसा कहा जा सकता है कि कविता रूह के आईने में स्वयं को, जगत को और जगत से स्वयं के रिश्ते को देखने की प्रक्रिया है!
बहुत कम पलों के भीतर घटित स्वयं से यह साक्षात्कार किसी योगी या ऋषि का आत्म साक्षात्कार नहीं है। एक कलाकार का आत्म-साक्षात्कार है। एक योगी के आत्म साक्षात्कार से रहस्यमय ज्ञान उत्पन्न होता है और एक कवि के आत्म साक्षात्कार से कविता। ऐसे ज्ञान के प्रति वही आकर्षित होते हैं, जो भव सागर से मुक्ति चाहते हैं या कि ब्रह्मांड के रहस्य को जानना चाहते हैं। जबकि कविता साधारणता के सौंदर्य को जीने वाले सहज जीवन के योगी यानी सर्वसाधारण को आकर्षित करती है और अपने रस से उनके जीवन में आनंदलय की निर्मिति करती है। इस अर्थ में कविता का दायरा व्यापक है। उसका विस्तार बहुत विस्तारित है। रस के संदर्भ में तैत्तिरीय उपनिषद् का रस से संबंधित श्लोक भी इस भाव की अभिव्यक्ति कही जा सकती है- ‘रसो वै स:। रसं ह्येवायं लब्ध्वानंदी भवति।’ यानी वह रस-रूप है। जो इस रस को पा लेता है, वही आनंदमय बन जाता है।
ज्ञानी रूमी को नहीं, कवि और प्रेमी रूमी को जानता है सारा संसार
कई बार लगता है कि ईश्वर जब-जब अपनी ही बनाई सृष्टि के सौंदर्य से आनंदित होकर अभिभूत होता होगा, तब-तब वह किसी कवि, संगीतकार या कलाकार की रचना करता होगा। यानी कवि, कलाकार और संगीतकार ईश्वर के परम आनंद की अभिव्यक्ति हैं। शायद इसीलिए रूमी के मुर्शिद शम्स तबरेज उनके ज्ञान की गंगा को बहा कर उन्हें कवि होने के लिए प्रेरित करते हैं और आज सारा संसार ज्ञानी रूमी को नहीं, कवि और प्रेमी रूमी को जानता है। अगर कविता के बारे में कविता की छांव में बैठ कर सोचा जाए तो कहा जा सकता है कि जीवन के बहाने कविता सृष्टि की लीला में शामिल होती है और जीवन से बहुत आगे बढ़ जाती है। शायद जीवन के अभाव को भाव में रूपांतरित कर देना भी कविता की लीला का ही एक हिस्सा है और ऐसा करते हुए कविता जीवन से बहुत आगे भी बढ़ जाती है।
कवि भाषा का सर्जक होता है। वह भाषा का नवीनीकरण करता है। कवि एक तरह से शब्द की मुक्ति का यज्ञ भी करता है। समय के साथ शब्द का जो संकुचन हो जाता है, कवि उस अर्थ-संकुचन से शब्द को मुक्त करता है। इतना ही नहीं वह शब्द का अर्थ-विस्तार तो करता ही है, उसमें नए अर्थ भी भरता है। इसी अर्थ में कवि शब्द की आध्यात्मिक साधना का माध्यम बन जाता है। शब्द की चेतना को निरंतर उत्कर्ष पर पहुंचाना भी उसका ध्येय होता है। भारतीय ज्ञान परंपरा में शब्द को ब्रह्म कहा गया है। यानी शब्द ईश्वर है। इतना ही नहीं, ब्रह्मविद्योपनिषद् में कहा गया है कि ‘जिस शब्द में लय होती है, वह परब्रह्म है।’ इस दृष्टि से कवि न केवल ब्रह्म, बल्कि परब्रह्म की रचना का सामर्थ्य रखता है, क्योंकि वह केवल शब्द के पुनरुद्धार का ही काम नहीं करता, नए शब्द भी रचता है और उसे लयात्मकता भी प्रदान करता है। कवि की कविता में शब्द और लय मिलकर भाषा का एक रहस्यमय संसार रचते हैं।
आध्यात्मिक यात्रा में कविता जादू की डिबिया
शब्द की इस आध्यात्मिक यात्रा से ही एक अच्छी कविता जादू की डिबिया बन जाती है। ऐसी जादू की डिबिया कि एक ही कविता एक ही व्यक्ति द्वारा जितनी बार बांची जाती है, उतनी ही बार अपने ऊपर से रहस्य का नया पर्दा उठाती है। कह सकते हैं कि नूतनता ही कविता का धर्म है। इसीलिए कविता एक सतत प्रक्रिया है, जो कवि के कविता पूरी कर लेने के बाद भी चलती रहती है। जैसे पहाड़ के हृदय से नदी निकलकर रुकती नहीं, वह सतत चलती रहती है और हर मोड़ पर उसका सौंदर्य बिल्कुल नूतन होता है। किसी भी रूप में जीवन में कविता की उपस्थिति मनुष्य के लिए वरदान है। जीवन के रेगिस्तान में गुलाब के उपवन जैसा!