आमतौर पर रिश्तों को हम यही समझते आ रहे हैं कि ये हमें सामाजिक समर्थन, भरोसा, प्रेम और खुशी देते हैं। अकेलेपन और अलगाव से दूरी बनाने में अहम भूमिका निभाते हैं। वहीं मुश्किल वक्त में ये साथ भी निभाते हैं। लेकिन अगर हम आज के समय पर गौर करें तो ये रिश्ते कई बार खोखले दिखने लगते हैं। रिश्तों की परिभाषा पूरी तरह उलट गई है। हालात ऐसे हैं कि अगर कोई व्यक्ति शादी करने का विचार बनाए भी तो मन में एक भय बना रहता है कि क्या यह रिश्ता निभ भी सकेगा या यह हर खुशी का अंत बन जाएगा!

ऐसी आशंका हावी दिखती है कि जिसके साथ हम रिश्ते में हैं, क्या पता वही हमारा अंत न कर दे या हमें खुद ही जीवन लीला समाप्त करने के लिए मजबूर कर दे। रिश्तों में लोगों का इस तरह दम घुटता देख कर किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को अफसोस हो सकता है। राष्ट्रीय अपराध रेकार्ड ब्यूरो यानी एनसीआरबी के अनुसार, प्रेम, विवाह से संबंधित हत्या जैसे जघन्य अपराधों के मामलों में भारत तीसरे नंबर पर है। वर्ष 2013 से 2022 तक लगभग तीस हजार हत्याएं हुर्इं और चौहत्तर हजार एक सौ अस्सी लोगों ने आत्महत्या की।

इन आंकड़ों में सबसे अधिक अठारह से पैंतीस आयुवर्ग के लोग शामिल हैं। बात तलाक की करें तो बीते दस सालों में भारत में प्रति एक हजार विवाह में से लगभग सात विवाह तलाक की भेट चढ़े, लेकिन अब इनका अनुपात बढ़कर दो सौ में से तीन हो गया है। तलाक का दंश झेलने वालों में पच्चीस से पैंतीस वर्ष आयुवर्ग के लोग ज्यादा हैं।

आखिर हमारी युवा पीढ़ी किस राह पर चल पड़ी है कि रिश्तों को संजोना उनके लिए चुनौती बनता जा रहा है? तत्काल संतुष्टि की महत्त्वाकांक्षा का सिरा क्या है? वे चाहे प्रेम, पैसा, भावनात्मक, शारीरिक-मानसिक, किसी भी तरह का अभाव अपनी जिंदगी में झेल रहे हों, उसके लिए धैर्य न रख कर सिर्फ जल्द से जल्द पाकर संतुष्ट हो जाना चाहते हैं। अगर वे किन्हीं स्थितियों में हासिल न कर सके, तो हताशा में डूबने लगते हैं और जाने-अनजाने में ऐसा कदम उठा लेते हैं जो उनके लिए और उनके अपनों के लिए घातक सिद्ध होता है।

रिश्तों की ये तस्वीरें यह समझाती हैं कि समाज में मानसिक स्वास्थ्य, भावनात्मक सहयोग और पारिवारिक समर्थन अगर दुरुस्त नहीं किए गए, तो जघन्य अपराध की घटनाएं छोटे-मोटे झगड़ों की तरह आम हो जाएंगी। जरूरी है कि रिश्तों को सही तरीके से समझने और सुलझाने की कोशिश की जाए। अगर हम रिश्ते में संवेदनहीनता और समय पर समझ की कमी पर काम करें, तो बिगड़ते रिश्ते को आसानी से सुधारा जा सकता है।

दरअसल, कई बार रिश्ते बिगड़ने का कारण अहं, अपरिपक्वता, समझ की कमी और अत्यधिक अपेक्षाएं होती हैं, जो बाद में उलझ कर तकरार और हिंसा का कारण भी बन जाती हैं। सबसे पहले यह सोचना जरूरी है कि रिश्ते में विश्वास की नींव पक्की हो और परस्पर सम्मान की भावना को कम न होने दिया जाए।

असमंजस की स्थिति में में किसी भरोसेमंद और परिपक्व व्यक्ति की मदद लेना चाहिए, वह चाहे कोई करीबी हो या फिर कोई पेशेवर परामर्शदाता। इसकी मदद से रिश्ते में बढ़ती घुटन से बाहर निकला जा सकता है और सही निर्णय लेने में सक्षम हुआ जा सकता है।

इसके समांतर मानसिक स्वास्थ्य पर गौर करें तो हालात बेहद चिंताजनक दिखते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़े बताते हैं कि भारत में हर सातवां व्यक्ति मानसिक रोग की गिरफ्त में आता जा रहा है। रिश्तों में तनाव, अकेलापन और भावनात्मक अस्थिरता इसके प्रमुख कारण हैं। इंटरनेट के इस युग में सोशल मीडिया और ‘डेटिंग एप’ के कारण रिश्तों में ‘तत्काल संतुष्टि’ की प्रवृत्ति बढ़ी है।

आजकल कई बार रिश्ते तभी तक निभाए जाते हैं, जब तक वह उबाऊ न हो। दो लोगों के बीच ऊब की स्थिति कब और क्यों आती है, इस पर गौर करना किसी को जरूरी नहीं लगता। अगर ऐसी स्थिति आ भी जाए तो उससे पार पाने और जीवन में फिर से ताजगी लाने की कोशिश से पहले ही लोग हार या समर्पण की घोषणा कर देते हैं और जीवन देने वाले रिश्तों को भी बोझ बना लेते हैं।

‘प्यू रिसर्च’ के मुताबिक, आज के युवा औसतन छह महीने से एक वर्ष में ही रिश्तों से असंतुष्ट हो जाते हैं और जल्दी से बाहर निकलने की प्रवृत्ति रखते हैं। इससे पता चलता है कि युवाओं में धैर्य और समझदारी की कमी लगातार बढ़ती जा रही है। अगर हम रिश्ते को संपूर्ण बनाने की जद्दोजहद करने के बजाय रिश्ते को वास्तविक बनाने की कोशिश करें तो इसके लिए हमें अपेक्षाओं में कमी के साथ-साथ समझदारी, संवाद और आपसी सम्मान में ज्यादा निवेश करने की जरूरत होगी, ताकि रिश्ते घुटन के बजाय आनंददायक हों।

भावनात्मक समर्थन, मानसिक स्वास्थ्य और पारिवारिक संवाद पर ध्यान नहीं दिया जाए, तो रिश्ते एक ऐसी त्रासदी बन सकते हैं जो न हमें जीने देगी और न मरने। यह स्थिति समाज के लिए एक चेतावनी का रूप धारण करती जा रही है।

आज भले ही तकनीक के जरिए लोग दूर बैठे हुए भी एक दूसरे से जुड़ सकते हैं, लेकिन वे भावनात्मक रूप से दूर होते जा रहे हैं। पहले जिस तरह रिश्तों में सहजता, समझदारी और परायों के साथ भी अपनापन रहता था, आज वह अपनापन अपनों के साथ भी खो गया है। अगर रिश्तों को जीना है तो हमें खुद को और अपनी आने वाली पीढ़ी को संवाद, सहानुभूति और स्वीकृति का ज्ञान लेना और देना आवश्यक है।