मुकेश पोपली

यह तो हम सब जानते हैं कि हम जीव की श्रेणी में आते हैं। अब इस दुनिया में जितने भी जीव हैं, उनमें बुद्धि वाला प्राणी मात्र मानव है। बुद्धि है तो विचार है और विचार है तो बुद्धि का उपयोग है। मन में विचार तब ही उठते हैं जब हम बुद्धि का प्रयोग करते हैं और विचार ही इस समाज को आगे ले जाने के लिए सबसे बड़ा साधन है।

हम सबके मन में तरह-तरह के विचार आते ही रहते हैं और उन्हें फलीभूत करने के लिए हम अपने प्रयास भी करते हैं। इन प्रयासों की सफलता और असफलता, दोनों का असर हम पर दिखाई भी देता है। कभी तो हम बिल्कुल धीर शांत चित्त रहते हैं तो कभी-कभी संतोषजनक की स्थिति में होते हैं। बहुत बार हम खुद की कमियों को भी ढूंढ़ने का प्रयास करते हैं और यह भी सत्य है कि कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

यह भी देखा जाता है कि असफलता हमें निराश भी कर देती है। जो शांत प्रवृत्ति रखते हैं, वे अपने विचारों को किसी विशेष अवसर पर प्रकट करने के लिए अपने हृदय में आत्मसात कर लेते हैं। जो दुष्प्रवृत्ति के लोग होते हैं, वे इन्हें कभी तो अपने विरोधी तो कभी अपने से छोटे लोगों पर रौब जमाकर अपना ज्ञान कुछ ही देर में बघारने लगते हैं।

हालांकि यह हमारी बुद्धि पर ही निर्भर है कि हमें अपने विचारों का कैसे सदुपयोग करना है या दुरुपयोग। लेकिन विचार किसी भी तरह के हों, उन्हें प्रकट करने के लिए शब्दों का सहारा तो लेना ही पड़ता है। और इसका महत्त्व भी इसी में है।

हम अक्सर देखते हैं कि धार्मिक प्रवचन हों या नेताओं की सभा और यहां तक कि गंभीर साहित्यिक गोष्ठी में भी बहुत से लोग केवल आपस में ही बात करते रहते हैं। जब बाद में कोई उनसे इस कार्यक्रम के बारे में जानना चाहता है तो वे खिसियाई-सी मुस्कान चेहरे पर ले आते हैं या फिर झेंपने लगते हैं। बहुत सारी पुस्तकों में इस आशय की बात कही गई है कि ‘जैसे समुद्र की सतह पर बहुत हलचल होती है, लेकिन गहरा गोता लगाने वाले अंदर की गंभीरता और शांति से सराबोर हो जाते हैं, ठीक उसी प्रकार बहुत से व्यक्ति स्थूल होते हैं और उन्हें वक्ताओं के शब्दों में छिपा सार नजर नहीं आता। ऐसे लोग सिर्फ भीड़ कहलाते हैं।’

हम सब अपने छुटपन को याद करें तो हमें ध्यान आता है कि स्कूल और कालेज में हमारे बहुत से विद्यार्थी साथी अध्यापक के शब्दों पर ध्यान नहीं देते थे। बाद में उनके परिणाम भी खराब ही आते रहे। समय रहते जिसने बुद्धि का प्रयोग किया, वह फिर आगे निकल गया। कोई भी शब्द हो, वह अपना असर दिखाता ही है। बात सिर्फ किताबों और पोथियों की ही नहीं है, इसमें हमारी बुद्धि भी उतनी ही भागीदारी निभाती है, जितनी वक्ता की वाणी।
इस बात को यों भी समझा जा सकता है कि हमारे महापुरुष हमेशा से कहते आए हैं कि प्रत्येक प्राणी को ईश्वर में ध्यान लगाना चाहिए।

अनेक आशंकाओं का निराकरण करते हुए कुछ संत ज्ञान देते हैं कि आपको जिसने जीवन दिया है तो उसका मोल तो उसे हमें चुकाना ही है। अगर हम यह मानते हैं कि हमारा जीवन ईश्वर की कृपा है तो हमारी आराधना, भक्ति के रूप में अगर उसका मूल्य हम साथ-साथ चुकाते रहें तो अंतिम समय आने पर हमारे खाते में कुछ हमारे नाम नहीं रहेगा और हम इस जंजाल से मुक्त रहेंगे।

इसके लिए ध्यान से लेकर विचार और साधना आदि कई साधन हैं और इनमें काम आने वाले शब्दों की नाव हमारे आसपास ही हैं। अगर किसी की कमी है तो वह है मात्र हमारे संकल्प की। ऊहापोह से निकल कर हम केवल संकल्प लें, रास्ते अपने आप खुलते चले जाएंगे। वैसे भी इस जीवन पर जिसकी नजर है तो प्रकृति या फिर ईश्वर ही तो है।

यहां पर केवल एक बात का ध्यान रखना है कि किसी के बहकावे में आकर इस पथ पर आगे बढ़ना एक अपराध है। इसलिए महापुरुषों ने जैसा किया है, हम उसी मार्ग पर चलें। पहले अपने आप को तैयार कर लेना चाहिए। फिर नियम बनाकर और उस मार्ग पर चलने का विचार किया जा सकता है। फल की चिंता किए बगैर धीरे-धीरे आगे बढ़ना ही ज्यादा बेहतर है। कबीर दास ने भी कहा है, ‘धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय/ माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय।’

मानव जीवन में वैसे भी सबसे दुर्लभ गुण धीरज ही है जो प्रत्येक के बस में नहीं रहता। अब अगर कहीं जल्दी-जल्दी में या बिना कुछ सोचे-समझे हमने अपने शब्दों को प्रकट कर दिया, तब मुश्किलें बढ़ेंगी और अब तक जो भी किया है, वह मिट्टी में मिल जाएगा। हमें अपने शब्दों की नाव का खुद ही खेवैया बनना चाहिए, क्योंकि कमान से निकला तीर और जबान से निकला शब्द कभी वापस नहीं आता।