पावनी

मोटी-सी एक लंबी रस्सी के सिरे बांधकर इमली बरगद, नीम, आम के पेड़ पर झूला झूलने के बाद ही पता लगता है कि कैसा चमत्कार-सा होकर गुजरता है दिलो-दिमाग में। झूला झूलते हुए बदन कैसा फूल-सा, बादल-सा हल्का हो जाता है। दिल एकदम आसमानी और आंखें कैसी हरी-भरी-सी हो जाती हैं।

दुनिया भर के हो-हल्ले और भूचाल से दूर जब झूला झूलते हुए व्यक्ति के मतवाले मन के मिजाज में मानो मिठास की कड़ी से कड़ी जुड़ती जाती है। आज भी अपने शहर के किसी मैदान में नीम या इमली के पेड़ की मजबूत डाली पर झूला डालकर झूलने वाले के आगे हमको किशोरियों, बच्चों, युवतियों, महिलाओं का हुजूम देखने को मिल जाता है।

कुछ मिनट झूला झूल रहे हों तो संसार से विराम लें, आंखें बंद करके कानों से संगीत को सुनें, मन तक चले जाएं। आंतरिक रूप से अनुभूत करें कि आंतरिक संसार और उस अंत:करण की यात्रा कर रहे हैं, जो हमारे भीतर स्थित है। बाग, बगीचे, मैदान, आंगन, मंदिर आदि में लगे ये झूले आजकल और अधिक लोकप्रिय होते जा रहे हैं। इनके प्रति जुनून बढ़ रहा है।

एक महिला के मन में झूले के प्रति रुचि या आकर्षण और लगाव का एक कारण यह भी हो सकता है कि रोजमर्रा की मशीनी दिनचर्या, जिसमें रसोई, बच्चों की चिंता के अलावा बाकी कुछ दिखता ही नहीं है, वहां से जरा-सा बदलाव हो जाता है। मन का यह बहलाव फिर उसी दिनचर्या मे लौटने को और अधिक तरंगित करता है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि बेचैन सांसों को आराम देना है तो कुछ देर हौले-हौले झूला झूलना चाहिए। यह एक औषधि-सा प्रभाव दिखाएगा। झूला गर्दन, पीठ, पेट, हथेली, अंगुली, पिंडली, पसलियों आदि को मीठी-मीठी तरंगों के साथ कसरत भी करा देता है।

मन को कुछ पल के लिए चिंता, तनाव, मनोरोग और विभिन्न मानसिक समस्याओं से निजात मिलना ही उपचार माना जाता है। तल्लीनता और मग्नता को तो एक अदृश्य दवाई कहा ही जाता है, जो मन को अद्भुत खुशी देती है। झूला हमारे भारतीय जीवन दर्शन में एक स्थायी जगह बना चुका है। यों हर इंसान का जीवन झूले की तरह किसी घटना या वस्तु में फंस कर आगे-पीछे होता ही है।

मगर सावन के झूले कहीं अटकाते नहीं, बल्कि उन्मुक्त ही कर देते हैं। कहते भी हैं कि हर समय धीर-गंभीर रहने से मन में एक प्रसन्नता होने का जो रस होता है, वह संकुचित हो जाता है। जीवन सपाट बनने लगता है। चंचलता से दूर रहने की जिद कहीं जीवन को हर पल भरपूर जीने की तासीर कम न कर दे, यह गौर करते रहना चाहिए।

आनंद में लीन होकर हर काम खुशी-खुशी किए जाते हैं, लेकिन झूला खुद आनंद का प्रतीक है। इसको हाथों से थामकर आनंद का झरना सहज ही फूट पड़ता है। बार-बार ये पलकें भी हरियाली को देखकर एक जादुई खुशी से झपकती हैं। इसलिए आंखों का सूखापन भी कम हो जाता है। पेड़ की डाली पर झूले के लिए जब रस्सी कसी जाती है।

तब पेड़ की बुलंदी से बादल और पंछी भी ईर्ष्या करने लगते हैं, क्योंकि अब उस पर बगैर पंख वाला भारी-भरकम बदन भी आसमान को छूकर आ जाएगा! यह जो मन है, इसको कभी-कभार किसी सुखद अनुभूति में डूबना सुहाता है। ऐसी अनुभूति या भाव, जहां न कोई चिंता हो, न जिम्मेदारी, न कोई घबराहट, कुछ पल ऐसा हो जाना बहुत आनंदित कर देता है।

बरसात मे झूलों के उत्सव इसीलिए मनाए जाते हैं, ताकि कुछ समय धरा से दूरी हो। धरा में विचरण कर रहे कीट-पतंगे बारीक चींटियों से जरा दूर रहें। साथ ही समूचे माहौल में प्रकृति का रूप निखरा हुआ होता है। मानव अपने सीलन और बारिश से गंधा रहे निवास से बाहर आकर जरा धूप और मदमाती हवा से अपने बदन का शोधन कर ले।

हालांकि झूले सावन तक ही सीमित नहीं हैं। ये हमारे बोलचाल, हमारी कहावतों, बोलियों, कविता, कहानियों, लोककथा, गीत, दोहे आदि में हवा और खुशबू की मानिंद समा गए हैं। एक कहावत है कि मां ने पुत्र को एक जरूरी काम बताया तो पुत्र ने अपनी अर्धांगिनी से कहा और पत्नी झूला झूलते-झूलते आनंद में ऐसे खो गई कि वह काम फिर मां को ही करना पड़ा। एक कहावत और है- ‘रेशम के झूले में निवाला, उसी में झपकी, तो जिगर में कठोरता कहां से टपकी।’ सार यह कि जिसने झूले में लोरी सुनी और झूले में रोटी चखी और छकी, वह हमेशा कोमल मन का ही होगा।

झूलने वाले को अपने दामन में लेकर पल भर में उसके दिल के महासागर में तूफानी हलचल पैदा करने की क्षमता रखने वाला कितना बड़ा चमत्कार है इसके पास? क्या कोई मोहपाश है इसमें या यह कोई अवतार है? सचमुच अलबेला ही है यह झूला, जो अपने आलिंगन से उदासी को उमंग में कब बदल देता है, पता नहीं लगता।