रविवार था। लेकिन उसकी आंख रोज की तरह ही ठीक साढ़े पांच बजे खुल जाती है। बच्चों के कमरे में जाकर देखा, दोनों बेटियां भी चैन से सो रही थीं। नवंबर की गुनगुनी सर्दी शुरू हो चुकी थी। वह बाहर लान में आ गई। धुंध बिखरी हुई थी चारों ओर। सूरज निकलेगा तो धुंध छंट जाएगी…यह तो प्रकृति का नियम है। मोहित से विवाह के बाद कैसे उसके जीवन पर छाई धुंध हट गई थी। मन हुआ मोहित को उठा दे, लेकिन रुक गई।
चाय पीकर वह नाश्ता तैयार करने लगी। छोले भटूरे बनाने की फरमाइश रात को ही हो चुकी थी। पिता के रूप वाले मोहित के बारे में सोचते हुए वह अपने पिता और भाई के बारे में सोचते ही कांप गई। बचपन से लेकर बड़े होने तक वे किसी जख्म की तरह उसके साथ रहे हैं। अपनी सहेलियों को जब कहते सुनती कि हमें किसी बात का डर नहीं, क्योंकि हमारे पापा और भाई हैं हमारी सुरक्षा करने के लिए, तो वह तड़प उठती थी।
नहीं कह पाती थी कि उन दोनों के साथ तो वह अपनी मां ही की तरह हमेशा असुरक्षित महसूस करती है। मानवी और तन्वी अभी सिर्फ सात और चार साल की हैं, लेकिन मोहित के साथ होती हैं तो उनके अंदर भी वह वही आत्मविश्वास देखती है, जो कभी अपनी सहेलियों में देखा करती थी।
मोहित दोपहर को बेटियों के साथ खेलते हैं, उनकी बातें सुनते हैं। रीमा कई बार बच्चियों को भी समझाती कि पापा को एक दिन तो आराम करने दिया करो तो मोहित कहते, ‘इनके साथ समय बिताकर मेरी हफ्ते भर की थकान दूर हो जाती है। इस पारिवारिक सुकून को मैंने हमेशा ही मिस किया है और तुमने भी तो…।’ वह जानती थी कि उनका अपने पिता के साथ कभी दोस्ती का रिश्ता नहीं बना, हमेशा डरते ही रहे। कई बार कह चुके थे, ‘मैं नहीं चाहता कि मेरे बच्चे उस एहसास से गुजरें और पिता के पास आने से डरें। ’
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दरवाजे की घंटी बजी तो वह अपनी सोच से बाहर निकली। दूधवाला था। आज देर से आया था। पौने दस बज रहे थे। अब तो झिंझोड़ कर उठा ही देगी तीनों को…अरे वह भी बोर हो रही है। इस बीच मोहित कब उठकर बेटियों के कमरे में चले गए थे, उसे पता ही नहीं चला। बेफिक्री से दोनों बेटियां पापा के दाएं-बाएं उनकी छाती पर हाथ और उनकी टांगों पर पांव रखे सो रही थीं।
मोहित पीठ के बल सीधे लेटे हुए थे और उनके हाथ बेटियों के ऊपर इस तरह फैले हुए थे मानो कोई सुरक्षा कवच हो। ढेर सारा प्यार उमड़ आया मोहित पर। उसे ही नहीं, बच्चों की भी जिंदगी को खुशियों के सागर से लबालब भरा हुआ है उसने। रीमा ने धीरे से मोहित के माथे पर हाथ फेरा।
इस तरह चैन की नींद सोते देख उसका मन ही नहीं किया कि वह उन्हें उठा दे। कुछ कटु स्मृतियां नागपाश की तरह उससे लिपटने लगीं। वह बालकनी में आकर बैठ गई। धूप के छोटे-छोटे टुकड़े यहां-वहां पसरे हुए थे।
मां के स्नेह की छांव तो उसने महसूस की थी, पर पिता के स्नेहिल स्पर्श के बारे में कहां जान पाई। जब इंसान किसी बहुत ही प्यारी चीज से वंचित रह जाता है तो उम्र भर वह कसक पीड़ा देती है। सब कुछ मिल जाए चाहे उसके बाद, पर आखिर तक उस चीज के न मिल पाने का दुख उसे सालता रहता है। जिंदगी भर इंसान उस चीज की तलाश में भटकता है या फिर हताशा का दामन थाम लेता है।
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यह सच है कि उसने खुद को संभाल लिया था, लेकिन लाख मजबूत होने का दावा वह दूसरों के सामने करे, इस बात को झुठला नहीं सकती कि मां के आंचल में सुरक्षित बचपन बिताने, उसका हमेशा भरोसा देने वाला हाथ थाम बड़े होने और फिर पढ़-लिख कर एक सुलझी विचारों वाली लड़की बनने के बावजूद पिता के स्नेहिल स्पर्श के लिए आंखों के किनारे कभी-कभी भीग ही जाते थे।
बचपन में पिता को नशे में धुत हो मां को मारते देखा। वह पांच साल की थी जब पिता छोड़कर चले गए थे। विदेश में उन्होंने एक अंग्रेज लड़की से शादी कर ली थी और लौट कर कभी नहीं आए। क्यों चले गए, मां ने नहीं बताया, वह कहतीं, ‘मुझे तुझे और धीरज को पालना था, तुम्हारे भविष्य के बारे में सोचना था। ऐसे में मातम मनाने बैठती तो न खुद को संभाल पाती और न तुम दोनों को।’ बचपन में जब अपनी सहेलियों को अपने पापा के बारे में बात करते सुनती या जब वे उन्हें लेने स्कूल आते तो वह ईर्ष्या से भर जाती थी।
अकसर सोचती कि पिता क्या सचमुच बहुत अच्छे होते हैं, मां से भी अच्छे। अंगुली थामे ले जाते पिता की चाहत उसके अंदर भी उठती, पर वह कल्पना नहीं कर पाती थी किसी ऐसे आकार की जिसे पिता नाम दे पाती। कोई छवि थी ही नहीं मन में। न घर में कोई फोटो। बड़े होने पर उसने उस आकार को ढूंढना भी बंद कर दिया था। भाई के रूप में पिता को तलाशना चाहा तो निराशा ही हाथ आई। भाई तो, भाई तक नहीं बन पाया। एक दिन वह भी न जाने कहां चला गया।
‘पिता का स्नेहिल स्पर्श और कसकर थामा हाथ एक ढाल की तरह होता है। उनकी डांट, उनका हर छोटी-बड़ी बात पर ध्यान रखना, हिम्मत भरता है।’ उसकी सहेलियां आपस में बात करतीं। कितना सुखद एहसास होता होगा, जब पिता कदम-कदम पर बचाते होंगे, एक चट्टान की तरह हर मुसीबत में आगे आकर खड़े हो जाते होंगे। कोई भी मुसीबत क्यों न आ जाए, पिता हैं न बचाने के लिए। चाहे कितनी ही गलतियां कर लो, चाहे कितनी ही शैतानियां कर लो, बेफिक्री का एहसास आसपास बना रहता होगा।
धमा-चौकड़ी मचाते देखती है जब अपनी बेटियों को मोहित के साथ तो सुकून मिलता है उसे। वह आश्वस्त है कि उसकी बेटियां सुरक्षित हाथों में हैं और वह भी तो। कभी-कभी मोहित में उसे पिता की छवि दिखाई देती है। शादी के समय नानी ने ही उस आकार विहीन पिता के बारे में मोहित को बताया था। शायद किसी अलिखित समझौते के तहत उसने यह जिम्मेदारी उठा ली थी।
‘भूख लगी है, भूख लगी है, खाने को दो।’ एक साथ तीन चहकते हुए स्वर उसके कानों से टकराए तो उसे लगा जैसे मधुर लहरियां बज रही हों।
‘तुम्हारे चेहरे पर धूप की चमक बिखरी हुई है, रीमा।’ किचन में भटूरे सेंकती रीमा के गालों को अपनी अंगुलियों से सहलाते हुए मोहित ने कहा। सिहर गई वह उसके स्पर्श से। कितना स्नेहिल था। वह कमरे की ओर जाने लगी। पैर मुड़ गया। वह गिरने ही लगी थी कि मोहित के मजबूत हाथों ने उसे थाम लिया। ‘मेरे होते हुए तुम्हें खरोंच भी नहीं आ सकती’। मोहित ने उसके हाथ से प्लेट लेते हुए कहा। बेटियां मेज पर थपकी देते हुए बोलीं, ‘यू आर ग्रेट पापा।’ रीमा को लगा सुरक्षा की ढाल तो उसके पास भी है।
‘मुझे चाहे चोट लग जाए मोहित, पर बच्चियों की ढाल हमेशा बने रहना…।’ रीमा के मुंह से निकला। नम आंखों से मोहित ने तीनों को कसकर अपनी बांहों में जकड़ लिया।
