विगत दो-तीन दशक के दौरान जिन लोगों ने शिक्षण का अनुभव हासिल किया होगा और उनमें से कुछ को शैक्षणिक प्रशासन के क्षेत्र में काम करने का भी मौका मिला होगा, उन्हें कुछ बातें भली-भांति पता होंगी। मसलन, यह कि अगर कोई व्यक्ति ऐसा शिक्षक है, जिसे विषय का अच्छा ज्ञान है और कक्षा में उसका रवैया लोकतांत्रिक रहता है, वह सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार विद्यार्थियों से रखता है, तो कभी भी विद्यार्थियों के बीच अनुशासनहीनता और उनके कक्षा से भाग जाने जैसी समस्याएं सामने नहीं आएंगी। दरअसल, आम समाज में ज्ञान का अंतर ही सम्मान का अंतर निर्धारित करता है।
ओशो के मुताबिक, शिक्षक और विद्यार्थी के ज्ञान में अंतर इतना होना चाहिए, जैसे विद्यार्थी तलहटी में खड़ा है और गुरु मानो एवरेस्ट की चोटी पर। लगभग सभी विचारक, चाहे वे जे कृष्णमूर्ति हों या जान डेवी या विवेकानंद या अरस्तू, शिक्षक और शिक्षा में नैतिकता की बात पुरजोर तरीके से उठाते हैं। स्वामी विवेकानंद का कहना था कि शिक्षा का उद्देश्य चरित्र निर्माण होना चाहिए। उनके मुताबिक, शिक्षक को अपने विद्यार्थियों को नैतिक मूल्यों, अनुशासन और आत्म संयम का पाठ पढ़ाना चाहिए, ताकि वे न केवल विद्वान बनें, बल्कि अच्छे इंसान भी बनें।
अगर हम इस कसौटी पर कसकर देखें तो क्या आज के शिक्षकों से नैतिकता की इस उच्च स्तर की अपेक्षा की जा सकती है? आज का शिक्षक अपने लाभ के लिए, नौकरियों में स्थानांतरण के लिए तथा पुरस्कार और निकटवर्ती स्थानों पर ड्यूटी के लिए जिस तरह से नौकरशाहों और राजनेताओं के दरवाजे पर गुहार लगाता है, उससे क्या हम उच्च नैतिकता और चरित्र की अपेक्षा कर सकते हैं!
छात्र-शिक्षक के बीच सौहार्दपूर्ण संबंध आवश्यक
शैक्षिक दायरे में रहने वाले लोगों ने यह देखा होगा कि शिक्षक आपसी झगड़ों और अहं की समस्याओं से बुरी तरह ग्रस्त हैं। संस्था प्रधान और शिक्षकों के बीच अहं के टकराव के मामले बढ़ते ही जा रहे हैं। इससे न केवल विद्यालय का सृजनात्मक विकास बाधित होता है, बल्कि शैक्षणिक वातावरण भी प्रदूषित होता है। एक अच्छे विद्यालय में शिक्षक और संस्था प्रधान के बीच सौहार्दपूर्ण संबंध आवश्यक है, ताकि विद्यालय एक सही दिशा में प्रगति कर सके। सरकारी शिक्षा में नए प्रयोगों की बाढ़ आई हुई है। आज का शिक्षक गुरु कम, सूचनाओं का प्रदाता अधिक हो गया है। उसका अधिकांश समय आंकड़ों को भेजने और नित नए ऐप को अद्यतन करने में ही चला जाता है।
तकनीक का उपयोग अच्छी पहल है। ये हमारे आकलन को और भी वस्तुनिष्ठ और सटीक बनाती है, लेकिन अति हर चीज की बुरी होती है। वैसे भी शिक्षण एक कला है। इसमें हमारी कलात्मक योग्यता, सृजनात्मक चिंतन और प्रज्ञा की भी आवश्यकता होती है। शिक्षण मात्र तकनीक और आंकड़ों की बाजीगरी नहीं है। एक अच्छे शिक्षक को कक्षा को लोकतांत्रिक और भय-मुक्त बनाना पड़ता है। तभी खुले और दबावहीन वातावरण में कोई भी विद्यार्थी ढंग से ज्ञान हासिल कर सकता है। जे कृष्णमूर्ति का विचार था कि अगर शिक्षक अपने भीतर की समस्याओं, भय और इच्छाओं को नहीं समझता है, तो वह अपने विद्यार्थियों को सही मार्गदर्शन नहीं दे सकता।
नौकरशाही के आगे शैक्षणिक प्रशासन लाचार
हम सब जानते हैं कि आज न केवल समाज की, बल्कि सरकार की भी शिक्षकों से अपेक्षाएं हैं, क्योंकि अभी भी सरकारी कर्मचारियों में मात्र एक यही वर्ग है, जो अपने काम और दायित्व को शिद्दत से अंजाम देता है। इस कारण बहुत से गैरजरूरी और अनावश्यक कामों को शिक्षकों के सिर पर डाल दिया जाता है। इससे न केवल शिक्षक की एकाग्रता भंग होती है, विद्यालयों में शिक्षण के दिनों का भी भारी नुकसान होता है। मगर किसी को इसकी चिंता नहीं है। यह सही है कि काम से भागने वाले कुछ शिक्षक भी ऐसे हैं, जिनका शिक्षण से मोहभंग हो गया है। वे अपनी सुविधा के मुताबिक किसी कार्यालय में प्रतिनियुक्ति करा कर ही समय व्यतीत करते रहते हैं। नौकरशाही और दो-तीन साल तक चलने वाले लोकतंत्र के उत्सव और चुनाव के डंडे के आगे कई बार शैक्षणिक प्रशासन लाचार हो जाता है। ऐसे में एक प्रस्ताव यह रखा जाता है कि क्यों नहीं चुनाव आयोग हर राज्य और हर जिले में एक स्थायी विभाग बना लेता है, जिसमें इच्छुक कार्मिकों के स्वेच्छा से आवेदन मांग लिए जाएं। सरकारें भी नौकरशाहों की जकड़न में हैं। नई-नई योजनाएं शैक्षणिक सुधार के नाम पर आती रहती हैं और अलग-अलग देशों के साथ समझौते होते रहते हैं।
नवाचारों की बाढ़ ने शिक्षकों को सोचने-समझने और कुछ नया पढ़ने-लिखने का अवकाश ही बंद कर दिया है। वे एक कारिंदे की तरह यंत्रबद्ध होकर सरकारी आदेशों के अनुपालन में लगे रहते हैं। सेमिनारों, वीडियो कान्फ्रेंस और प्रशिक्षण कार्यक्रमों का सिलसिला जारी रहता है और शिक्षक विद्यालयों के बुनियादी ढांचे, अभिभावकों की शिकायत, गांव की राजनीति के मोर्चे पर जूझने में लगे रहते हैं। इसके लिए जरूरी है कि शैक्षणिक वातावरण को पारदर्शी और लोकतांत्रिक बनाया जाए। शिक्षकों की कमी, भवन और फर्नीचर आदि की समस्याओं से जूझते स्कूलों की समस्या को दूर किया जाना चाहिए। योजनाएं बंद कमरे में न बना कर शिक्षक को भी विश्वास में लेकर बनाई जाएं, ताकि उनमें अनुभव की सच्चाई हो और उनका अमली जामा भी वास्तविकता के करीब हो। शायद तभी प्राथमिक शिक्षा, जिसकी संपूर्ण देश में, दक्षिण के कुछ राज्यों को छोड़ कर, स्थिति अत्यंत खराब है, उसका उत्थान हो सकेगा। साथ ही शिक्षक की सामाजिक तस्वीर भी बदल कर सर्वग्राह्य बन सकेगी।