ब्रजेश कानूनगो

बाढ़ आती है तो सब कुछ बहा ले जाती है। सूखा पड़ता है तो लोग भूखों मरने लगते हैं। इन्हें कोई रोक नहीं सकता। ये आपदाएं वे कुल्हाड़ियां हैं जो खुद हमने अपने पैरों पर मारी हैं। अब हम इनमें अवसर तलाशते हैं। आपदा के वक्त में भी अवसर की बात करने या इसकी खोज करने में हमें कोई हिचक नहीं होती। मानवीयता के लिए हर कोना की तलाश करते हुए हम आज के आधुनिक दौर में यहां तक पहुंच चुके हैं कि अपने अपराध पर परदा डालने की युक्तियां खोज कर नई उक्तियां हमने बना ली हैं।

पुरानी कहावत है कि ‘न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी’। इस उक्ति का अर्थ समझने वाले लोगों का वह कोई और वक्त रहा होगा। अब ऐसा नहीं होता। अब लोग नाचने के लिए नौ मन तेल का इंतजार नहीं करते। अब उनका मन हो तो वे बगैर तेल के इंतजाम के भी डिस्को करना शुरू कर देते हैं। पुरानी उक्तियां और कहावतें नए संसार में कोई खास मायने नहीं रखती। कीमत मिले तो इंसान खुद अपना घर बार छोड़कर फकीर हो जाए। कब कोई कारोबारी अपनी गद्दी त्याग कर किसी महाबली राजा साथ-साथ पार्टी का झंडा पकड़े उन्हीं का सिंहासन हथिया ले, यह कहा नहीं जा सकता। यह दौर उक्तियों का नहीं, युक्तियों का है।

कभी-कभी ऐसा वक्त भी आता है, जब परंपरागत उक्तियां नाकाम हो जाती हैं। यह ऐसा ही वक्त है। नई युक्तियां पुरानी उक्तियों पर भारी पड़ने लगती हैं। कहा जाता रहा है कि आग लगने से पहले कुआं खोद लिया जाना चाहिए, क्योंकि आग लगने के बाद पानी खोजने में लगने वाला वक्त बहुत कुछ खाक कर दे सकता है। लेकिन यह वह दौर है, जब बस्ती में आग लग जाए, तब भी तुरंत जमीन खोद कर पानी निकाला जाने लगता है।

यह वही महान देश है जहां शैयासीन भीष्म पितामह की प्यास शांत करने के लिए अर्जुन का एक तीर काफी होता है। बुजुर्ग दादाजी अपने पोते को पाजामे में हवा भरकर बावड़ी में धकेल दिया करते थे। पोता खुद हाथ-पैर मारते हुए तैरना सीख ही लेता था। लेकिन आज बच्चे की सुरक्षा के नाम पर उसे किस हद तक कोमल और विरोधाभासी परिस्थितियों में जीने वाला बना दिया जाता है, यह हम सब समझते हैं।

कभी दो नावों में सवारी करना ठीक नहीं माना जाता था। इससे दुर्घटना होने की शत-प्रतिशत संभावना बनी रहती है। मगर अब शायद ऐसा नहीं है। एक पांव एक नाव में और दूसरा पांव दूसरी नाव में रखकर नदी पार करना अब कौशल के तौर पर देखा जाता है। साहस का रोमांच होता है इसमें। इस काम के लिए आदमी में जोखिम उठाने की क्षमता और इच्छाशक्ति भी होना जरूरी है।

मानने को एक काल्पनकि नाम के तौर पर चंद्रपाल जी को रखते हैं। वे बड़े साहसी व्यक्ति हैं और जोखिम लेते रहते हैं। कविता और व्यंग्य लेखन, जैसी दो विधाओं पर सवार होकर साहित्य की नदी को पार करने की अभिलाषा में साहसिक खेल करते रहते हैं। इस अभियान में होता यह है कि कविता की कमजोरियां यह कहकर नजरअंदाज कर दी जाती हैं कि भाई एक व्यंग्यकार और क्या लिखेगा..! जितना लिखा है, वह ठीकठाक ही लिखा है।

दूसरी तरफ कमतर व्यंग्य भी थक जाता है कि कवि महोदय बेचारे सहृदय व्यक्ति हैं, कितना कुछ कटाक्ष कर पाएंगे। अपवाद स्वरूप कभी कभार नुकसान भी हो जाता है। मान लिया कि कभी कुछ बेहतर रच दिया तो कवि बिरादरी उनकी श्रेष्ठ कविता को भी नजरअंदाज कर देती है। दूसरी तरफ उनका लिखा शानदार मारक व्यंग्य लेख भी ‘जमात-ए-व्यंग्य’ द्वारा नोटिस में ही नहीं लिया जाता। चूंकि इतने वृहद साहित्य समाज में ऐसी छोटी-मोटी बातें तो होती ही रहती हैं, इसलिए उनकी सवारी सदैव जारी रहती है।

सरकारी फैसलों को लेकर भी कुछ लोग दो नावों की सवारी करते दिखाई देते हैं। निर्णय के साथ भी दिखाई देते हैं और लागू करने के तरीके के विरोध में किसी मंत्री का पुतला भी जला देते हैं। अजीब स्थिति बनती रहती है। भ्रम की ऐसी धुंध में एक दिशा में सोचते दो समूहों के साथ जुड़े होने पर मतिभ्रम भी हो जाता है। लगता है दोनों पक्ष विरोधी हैं। दोनों समझते हैं कि हम दूसरे वाले के गुट में हैं। इसीलिए एक साथ होते हुए भी दुर्घटनाएं होती रहती हैं। इसके बावजूद सबकी ख्वाहिश यही होती है कि किसी तरह नाव और यात्री सुरक्षित किनारे लग जाएं।

सच तो यह है कि यह बदलाव का महत्त्वपूर्ण समय है। देश समाज से लेकर नीतियों और व्यवस्थाओं तक में आमूल चूल परिवर्तन हर घड़ी हो रहे हैं। यों कहें सूरज की हर किरण बदलाव की नई रोशनी लेकर आ रही है। ऐसे में आग लगने पर कुआं खोदना और दो नावों की सवारी करने जैसी उक्तियां अप्रासंगिक हो गर्इं हैं। युक्तियां अब उक्तियों की पीठ पर सवार हैं।