सामाजिक सरोकार का निर्वहन मनुष्यता की प्रमुख कसौटी है। समाज से जुड़े विविध संदर्भ और उसके साथ हमारा जुड़ाव जीवन मूल्यों को निर्धारित करता है। रोना, हंसना, क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष, दुख-सुख, लोभ-मोह, प्रेम, सद्भाव, परोपकार- सब मनुष्य की मूल प्रवृत्तियां हैं, जिसकी परख समाज के साथ मिलकर ही होती है। आज परिवेश बदला है। भौतिकता की चकाचौंध में मनुष्य दिग्भ्रमित हो रहा है।
महत्त्वाकांक्षाएं बढ़ रही हैं, सामाजिकता का दायरा सिमट रहा है, प्रत्येक जगह प्रतिस्पर्धा बढ़ी है। व्यस्तता ने हम सबको इतना जकड़ लिया है कि मानो हमें अपने आसपास की दुनिया से कोई सरोकार ही नहीं हो। कोई छोटी-सी घटना यह सोचने पर मजबूर कर दे सकती है कि कि हम सब किस दिशा में बढ़ रहे हैं। यह संभव है कि एक व्यक्ति बिल्कुल अपनी गली में रहने वाले किसी अन्य व्यक्ति के बारे में न जानता हो, उसका पता लिखा देख कर कह दे कि ‘पता नहीं’।
हमें अपने आसपास का पता ही नहीं… कि कौन व्यक्ति है, क्या है, क्या करते हैं। कितने आत्मविस्मृत और आत्मकेंद्रित हो गए हैं हम? फुर्सत की बात चले तो हम बड़े दंभ से कहते है कि फुर्सत कहां है, सुबह घर से निकलते हैं, शाम को लौटते हैं। समय कब निकल जाता है, पता ही नहीं चलता। हम सब अपनी व्यक्तिगत उपलब्धियों के साथ परिवार में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि आपको अपने अन्य परिजन, आसपड़ोस, मित्रगण से संवाद किए कितना अरसा बीत गया, आपको याद तक नहीं रहता। हमें समझना होगा कि समय तो सभी के पास उतना ही होता है।
सबको समय देना है मनुष्यता और समझदारी
समय प्रबंधन ही सामाजिकता है। सबको समय देना सच्ची मनुष्यता और समझदारी है, क्योंकि समय का चक्र तो अनवरत चलता है। संवाद जरूरी है। आज बच्चे किताबों में गुम होकर प्रतिस्पर्धा का हिस्सा बन कर बचपन खो बैठे हैं। समय के अभाव में घर-परिवार के बुजुर्ग, बच्चे, कब उपेक्षित हो गए पता ही नहीं है। प्रतिस्पर्धा की अंधी दौड़ में बच्चे चिड़चिड़े और तनावग्रस्त हो रहे हैं। अवसाद और चिंता से पीड़ित असफलता से हताश निराश होकर जीवन लीला समाप्त कर रहे हैं। बुजुर्ग अपनी सूनी आंखों से अपनों को तलाश रहे हैं। उनके परिजनों के पास समय का अभाव है। सब भाग रहे हैं। पता नहीं क्यों भाग रहे हैं!
भौतिक सुख की प्राथमिकता के बीच कृतज्ञता की गहराई
मशीनी जिंदगी से संवेदना के स्रोत शुष्क हो रहे हैं और हम समय न होने का रोना लिए बैठे है। कल समय ही समय होगा हमसे संवाद करने वाला, हमें समय देने वाले मित्रगण, अच्छे पड़ोसी नहीं मिलेंगे। किसी की खुशी में खुश होना सीखने की जरूरत है। खूब खिलखिलाना चाहिए घर परिवार की जिम्मेदारी का निर्वहन करते हुए। अपने आसपास के परिवेश, जिसमें हम रहते हैं, उस पर भी नजर दौड़ाना और महसूस करना चाहिए कि एक दुनिया आसपास भी है, जिसमें हम सब रहते हैं। यही सामाजिकता है। स्वनिर्मित दुनिया के दायरे से बाहर निकला जाए तो एक खूबसूरत दुनिया हमारा इंतजार कर रही होती है। अपनी संवेदना और चिंतन को विस्तृत करने, दूसरों को सुनना-पढ़ना और समझना सीखने की जरूरत है।
स्व के घेरे से निकलना चाहिए बाहर
आज सबसे बड़ी समस्या निर्णयात्मक हो जाने की भी है। वह भी एकतरफा जो हमारे दिमाग में है, वही सत्य है। सामने वाला क्या और क्यों कह रहा है, सुनने की फुर्सत किसी के पास नहीं। सब सुनाना चाहते हैं। प्रत्येक मनुष्य अपने आप को अभिव्यक्ति देना चाहता है। उसकी सारी दुनिया ‘स्व’ केंद्रित है। यही तनाव और परेशानी का कारण बन जाता है। इस ‘स्व’ बिंदु के घेरे से निकल कर अपनी चेतना को विस्तार अवश्य देना चाहिए। एक सजग नागरिक, पड़ोसी और मित्र की तरह मनुष्य धर्म का निर्वहन करना चाहिए। हमसे जितना, जिस रूप में बन सके, सहयोग और सहायता करनी चाहिए।
चेतन होने का अर्थ यही है कि हम कितने जागरूक और सक्रिय हैं, दूसरों के विषय में कितना सोचते हैं, कितना जानना चाहते हैं। यह बात अलग है कि कुछ लोग आत्मकेंद्रित होकर स्वयं में मगन रहते है उनके पास साझा करने को कुछ नहीं होता, वे अपने बनाए काल्पनिक लोक में डूबे रहते हैं।
क्यों जरूरी है नए रिश्तों की तलाश?
वे अपने और अपने परिवार (एकल परिवार) में इतने रमे रहते हैं, यह अच्छी बात है, पर मनुष्य सामाजिक प्राणी है तो सामाजिकता भी जरूरी है। सामाजिकता अर्थात मनुष्य से जुड़ी समस्त आवश्यकताएं, सुख-दुख साझा करना अति आवश्यक है। आजकल हम अपने कार्यस्थल या नौकरी में इतने व्यस्त हैं कि हमें यह तक याद नहीं रहता कि अपने मित्रों नजदीक के रिश्तेदारों से कब बात हुई। उन्हें क्या कष्ट है, हम जानने की कोशिश भी नहीं करते। कुछ समय बाद पता चलता है, तो बस कह देते है बहुत व्यस्तता रही।
समय प्रबंधन ही समस्त रिश्तों का आधार होता है। जो व्यक्ति हमसे जुड़ा है, वह संवाद की अपेक्षा हमसे रखता है। संवाद के अभाव में रिश्तों की मिठास या सरसता कम होने लगती है। हम सबके पास उतना ही समय होता है। बाद में जब हमारे पास समय होगा तो वे बहुत दूर हो चुके होंगे। इसलिए कभी अपने मन की खिड़कियां खोल कर अपनत्व की बयार को आने देना चाहिए। सगे-संबंधी, परिजन, मित्रगण, पड़ोसी सबसे आते-जाते ही सही, दो मिनट रुक कर बात कर लेना और हालचाल पूछ लेना चाहिए। इतना भी बहुत है। बुजुर्गों से संवाद करके उन्हें अपनेपन के अहसास से भर देना चाहिए। एक क्षण के लिए उनके चेहरे पर आई मुस्कराहट और आशीर्वाद से उठे हाथ हमारा दिन बना देंगे। सारा तनाव, पीड़ा, वेदना गायब हो जाएंगे। यही मनुष्यता, करुणा, प्रेम, संवेदना का विस्तार है।