सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’
जीवन में सहयोग की भावना का होना नितांत आवश्यक है। यह एक मानवीय गुण है जो हमें संगठन, सह-बंधुत्व और अनुशासन के माध्यम से समाज में स्वतंत्रता और सौहार्द की भावना को विकसित करता है। सहयोग की भावना हमारे कार्यभार, संगठन, परिवार, समुदाय और समाज को समृद्ध, स्थिर और सद्भावनापूर्ण बनाती है। यह संगठित समुदाय के निर्माण में सहायक होती है।
सहयोग की भावना हमें अन्य लोगों के साथ मिलकर एक मिश्रित समुदाय का निर्माण करने की क्षमता प्रदान करती है। इससे समुदाय के सदस्यों के बीच और आपसी संबंधों में एकाग्रता, तुलनात्मकता और विश्वसनीयता बढ़ती है। यह भावना हमें अपने साझेदारों और सहकर्मियों के साथ मिलकर अधिक सफलता की ओर बढ़ने का मार्ग दिखाती है। कार्य के विभिन्न पहलुओं को संयुक्त रूप से निर्धारित करने, समय, संसाधन और कौशल के साझा उपयोग करके बेहतर परिणाम प्राप्त करने में सहायता करती है।
सहयोग की भावना हमें अपने संगठन और समुदाय के अन्य सदस्यों के संरक्षण और समर्थन करने के लिए उत्साहित करती है। यह समदृष्टि और समान दया को प्रशस्त करती है और लोगों के बीच विश्वास, समझदारी और सहभागिता के भाव को बढ़ाती है। इसके अतिरिक्त यह हमें सामान्य और तटस्थ समस्याओं को संगठित तरीके से समाधान करने के लिए भी सक्षम बनाती है।
इससे समस्याओं का समाधान निकलता है और तकनीक, विचार और साझा अनुभव के माध्यम से समस्याओं का निष्कर्षण किया जा सकता है। इस प्रकार, सहयोग की भावना हमें समग्र विकास, समृद्धि और समरसता की ओर ले जाती है। यह हमारे व्यक्तिगत, पेशेवर और सामाजिक आवश्यकताओं को पूरा करने में मदद करती है और सद्भावनापूर्ण समाज के निर्माण का योगदान देती है।
वेदों में सहयोग की भावना को समझाने वाले अनेक मंत्र हैं। ऋग्वेद में कहा गया है- ‘संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्। देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते।’ जिसका अर्थ है कि हम सब मिलकर चलें, मिलकर बातचीत करें और मन भी मिलने के काम आए। वेदों में उल्लिखित मंत्र संगठित एकता, सहायता और सत्कार्य में सहयोग की महत्ता पर बल देते हैं।
इन मंत्रों द्वारा सुझाए गए आदर्श विचार हमें सम्मिलित होने और दूसरों के साथ सहायता करने के महत्त्व को समझाते हैं। अन्य अनेक विद्वानों ने भी सहयोग की भावना के बारे में कई महत्त्वपूर्ण विचार रखे हैं। इसमें से कुछ प्रमुख अभिप्रेत विचारों का उल्लेख प्रासंगिक है और उन पर ध्यान देने से यह पता चलता है कि जीवन में इस भावना का होना शरीर के लिए आक्सीजन के समान है।
एल्मर एडलर के अनुसार, ‘विचारों को प्रकट करने के लिए चाहिए भरोसा, एकत्र सभी जरूरतें पूरी करने के लिए चाहिए सहयोग।’ इसी तरह एलिस वाल्ट दिस्ने का कहना था कि ‘कोई भी बड़ा काम अकेले नहीं किया जा सकता है, सहयोग की भावना ही इन कामों को पूरा करने की ताकत रखती हैं।’ विद्वानों के ये विचार हमें सिखाते हैं कि सहयोग एक महत्त्वपूर्ण और आवश्यक क्षमता है जो अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने में अत्यंत उपयोगी हैं।
देखा जाए तो लोगों का आपस में सहयोग करना एक मनोवैज्ञानिक कार्य है, लेकिन यहां कुछ ऐसे सामान्य तरीके हैं, जिनका अनुसरण करके हम सहयोग की भावना को व्यक्त कर सकते हैं। जैसे दूसरों के मन की भावनाओं को समझने का प्रयास करें और उन्हें सहानुभूति और समर्थन दें। किसी का हाल-चाल पूछना और उनके विचारों को महत्त्व देना, सकारात्मक बातचीत के माध्यम से अच्छे संबंध बनाए रखना हमें इसी दिशा में ले जाता है।
अपने दोस्तों, परिजनों या सहयोग की आवश्यकता रखने वाले लोगों के लिए हमेशा समय निकालना चाहिए। उनसे मिलना, उनके साथ समय बिताना और उनके संपर्क को पसंद करना धीरे-धीरे सहयोग की भावना को सुदृढ़ करता है। हां, इस बात का पूरा ध्यान रखना चाहिए कि जिस भी तरीके से हम सहयोग कर सकते हैं, उसे ईमानदारी से करना चाहिए। अपने कौशल और अनुभव का उपयोग करके दूसरों की मदद करना, फिर चाहे वह विचारशीलता, कार्य या कोई अन्य क्षेत्र हो, इसकी हमें चिंता नहीं करनी चाहिए।
हमें अपने साथी या परिवार के सदस्यों की सदैव प्रशंसा करनी चाहिए। आवश्यकतानुसार प्रोत्साहन देना चाहिए। उन्हें उनकी कठिनाइयों का सामना करने के लिए प्रेरित करना और उनकी मदद करना उन्हें उनकी सामरिकता और कौशल को विकसित करने के लिए कहना सहयोग की भावना में नितांत आवश्यक है। सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि दूसरों को सहयोग करने से पूर्व स्वयं को सहयोग करने के गुण का विकसित करना चाहिए। स्वयं के भावनात्मक और नैतिक मूल्यों पर ध्यान देना चाहिए। ऐसा करने से हम सहयोग करने की भावना का प्रतीक बन सकेंगे।