व्यक्ति के मानस पटल पर अनुकूल और प्रतिकूल प्रवृत्तियों का सदैव उत्सर्जन होता है। कभी-कभी वह इसमें से एक स्थिति पर विजय प्राप्त कर लेता है, जबकि दूसरे में असफल हो जाता है। मनोवैज्ञानिकों ने कई प्रयोग द्वारा यह सिद्ध भी किया है कि व्यक्ति एक बार में एक ही प्रवृत्ति का प्रदर्शन कर सकता है।
औसत रूप में मानवीय स्वभाव में जहां आज अपराध, हिंसा, अनैतिकता, अनाचार और असहयोग की प्रचुरता व्याप्त है, वहीं इसके विपरीत स्थिति में मानवीय संवेदनाओं के समूह में सेवा भाव की भी प्रबलता देखी जाती है। सृष्टि के सृजन काल से ही यह गुण समाज के हर क्षेत्र में देखे जा रहे हैं।
यह सही है कि भौतिक चकाचौंध ने सामाजिक तानेबाने को कुछ हद तक प्रभावित किया है और हम अपने आसपास भी न्यूनतम सेवा पाने के योग्य लोगों से जी चुरा लेते हैं। कभी हमारे बुजुर्ग अपने द्वार पर आए किसी भूखे को अपने हिस्से का भोजन कराकर तृप्त महसूस करते थे। गांव घर में किसी कन्या की शादी में आए बारातियों के लिए पूरा मुहल्ला अपने-अपने साधन और सामग्री से सेवा सहयोग के लिए जुड़ जाता था।
अब आखिर हम ज्यादा आत्मकेंद्रित क्यों होते गए हैं। यह स्वाभाविक स्थिति है कि हमें किसी से सहयोग लेकर उसका उधार चुकाने की भी मनोस्थिति रखनी चाहिए। कुछ लोग सिर्फ किसी से मदद लेने को उत्सुक तो रहते हैं, लेकिन अपनी बारी आने पर वे मुकर जाते हैं। देश में सेवा करने वाले के विभिन्न क्षेत्र और प्रकल्प भी दिखते हैं। संसार के सभी गुरद्वारों द्वारा लंगर के माध्यम से रोज लाखों लोगों को बिना किसी अपेक्षा के भोजन कराने का दृष्टांत हमारे सामने है, जबकि असंख्य धार्मिक संस्थाओं द्वारा मुफ्त चिकित्सा, शिक्षा, अनाथालय द्वारा अभावग्रस्त लोगों की सेवा करने का कार्यक्रम अनवरत रूप में संचालित है।
व्यक्ति में सेवा करने की नैसर्गिक मानसिक स्थिति विद्यमान रहती है, जबकि कभी-कभी कोई संवेदनशील घटनाक्रम किसी व्यक्ति को सेवा के लिए संकल्पित कर देता है। ऐसे लोगों के लिए सिर्फ सेवा प्रदान करना उनका अभीष्ट लक्ष्य बन जाता है और वे धर्म, जाति और संप्रदाय से ऊपर उठकर अपने कर्तव्य आचरण से समाज का सिरमौर बन जाते हैं।
इस क्रम में काफी पहले का एक प्रसंग उल्लेखनीय है कि उत्तर प्रदेश में एक साइकिल बनाने वाले व्यक्ति के बेटे की लाश को लावारिस समझकर पुलिस ने नदी में बहा दिया था तो इस विपत्ति को सहन करते हुए उस व्यक्ति ने यह संकल्प लिया कि उनके शहर में अब किसी शव को लावारिस ही नहीं बहने दिया जाएगा।
वे बेहद साधारण व्यक्ति थे और साइकिल मरम्मत करके अपने परिवार का भरण-पोषण करते थे। उनके धर्म के अनुसार मृत लावारिस शरीर की अंतिम क्रिया करना एक गंभीर चुनौती थी। लेकिन उन्होंने इसे हृदय से स्वीकार किया और वे अब तक हजारों लावारिस लाशों का उनकी धार्मिक रीति-रिवाज से अपनी आय और सामाजिक सहयोग द्वारा अंतिम संस्कार क्रिया कर चुके हैं। ऐसा करना हर किसी के बस की बात नहीं है। ‘श्मशान के हमसफर’ के नाम से विख्यात चाचा शरीफ को इस महाकल्याणकारी योगदान के लिए भारत सरकार ने वर्ष 2020 में ‘पद्म श्री’ प्रदान कर सम्मानित भी किया।
समाज में बहुत से ऐसे भी सेवाव्रती हैं जो गुमनाम रहकर इस पवित्र कार्य में वर्षों से समर्पित हैं। ऐसे लोग सेवा का न तो कोई पुरस्कार चाहते हैं, न प्रशंसा, बल्कि किसी की सेवा करके वे स्वयं को कृतज्ञ महसूस किया करते हैं। सेवा भाव में किसी के प्रति एहसान की भी गुंजाइश नहीं है। दूसरों के सुख का भागी बनने से हमारी निजी चेतना विकसित होकर सामाजिक चेतना बन जाती है।
मानव सेवा की भावना से जो सुख मिलता है, वह गहरा और सच्चा होता है, जिससे हमें मानसिक शांति भी मिलती है। यह शांति हमें एक दुर्लभ अहसास कराती है कि हम मानव कर्तव्य से बंधे हुए हैं। वैज्ञानिकों का कथन है कि सेवा की भावना से हमारे मस्तिष्क में नए रसायन और हारमोन स्रावित होने लगते हैं जो हमें सुख की अनुभूति कराता है।
दुनिया में सभी धर्मों ने मानव सेवा के सिद्धांत को अपनाने का पावन संदेश दिया है और हमारे पुरखों ने तन, मन और धन से यथाशक्ति सेवा करने का असंख्य उदाहरण भी पेश किया है। स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि समाज में सेवा, सहयोग और दया ही सर्वश्रेष्ठ धर्म है। विश्व को कुटुंब मानने के लिए प्रतिबद्ध अपना भारतवर्ष हर कलि काल में सेवाव्रत का पालक रहा है।
सच यह है कि सेवा ही मानव जीवन का सौंदर्य और शृंगार है। ‘सेवा परमो धर्म:’ से हम सहमत होते हुए अनेक प्रतिकूलताओं के बावजूद इस यात्रा के एक लघु पथिक तो बन ही सकते हैं। जरूरत है दिल से संकल्प लेकर यह चिंतन करने की कि हम पृथ्वी पर क्या लेकर आए थे और क्या लेकर जाएंगे।