उत्तर प्रदेश के बांदा नगर के वयोवृद्ध चिकित्सक डॉ. शरद चतुर्वेदी की वैज्ञानिक शोध पर आधारित एक अति महत्वपूर्ण पुस्तक प्रकाशित होकर आई है। पुस्तक का नाम है – “सनातन संस्कृति एवं अध्यात्म में वैज्ञानिक अनुसंधान”। जैसा कि पुस्तक के शीर्षक से ही स्पष्ट है कि यह कोई धार्मिक पुस्तक नहीं है, अपितु सनातन संस्कृति एवं अध्यात्म में प्रतिपादित वैज्ञानिक तथ्यों का अनुसंधान है। यह अनेक ग्रंथों के परिशीलन के उपरांत प्राप्त वैज्ञानिक निष्कर्षों, लेखक के अपने प्रकाशित और अप्रकाशित अनेक शोध पत्रों तथा कतिपय ग्रंथों में निष्पादित संकलनों का संग्रह है। इसमें विज्ञान, गणित, चिकित्सा, अंतरिक्ष विज्ञान, जल विज्ञान तथा अनेक सांस्कृतिक विषयों पर पूर्वज वैज्ञानिक ऋषियों के परिचय सहित उनके शोध और अन्वेषणों को उद्धृत किया गया है।

इस तरह यह पुस्तक प्राचीन संस्कृति पर दीर्घकाल से छाई हुई अनास्था की धुंध को साफ करती हुई लुप्त हो चुके वैज्ञानिक तथ्यों का अन्वेषण करके जनमानस को वैज्ञानिक दृष्टि प्रदान करती है। देश और दुनिया की युवा पीढ़ी को समर्पित यह वैज्ञानिक पुस्तक रोचक, पठनीय तथा संग्रहणीय दस्तावेज है।

क्यों पहनना चाहिए जनेऊ

पुस्तक में कुल 34 विषय हैं। विद्वान लेखक डॉ. शरद चतुर्वेदी ने पुस्तक को रोचक और पठनीय बनाने की दृष्टि से सबसे पहला और सरल विषय “यज्ञोपवीत” का चयन किया है। उन्होंने अनेक ग्रंथों के उदाहरणों से यह प्रमाणित करने की सफल चेष्टा की है कि यज्ञोपवीत (जनेऊ) धारण करना नितांत वैज्ञानिक प्रक्रिया है और इसके सैकड़ों वैज्ञानिक लाभ हैं।

लेखक डॉ. शरद चतुर्वेदी के इन समस्त आलेखों पर चर्चा करने से पहले यह इंगित करना अति आवश्यक है कि उन्होंने पूर्वज वैज्ञानिक ऋषियों के वैज्ञानिक अनुसंधानों का अंधी आस्था, धर्मान्धता और रूढ़ियों से पिंड छुड़ाकर वास्तविक वैज्ञानिक स्वरूप उजागर करने में महत्त्वपूर्ण प्रयास किया है और लुप्तप्राय वैज्ञानिक निष्कर्षों को सामने लाकर लोक कल्याण किया है। इसलिए उनका श्रम अनवरत अभिनंदनीय है।

डॉ. शरद चतुर्वेदी ने विद्वता पूर्वक इस दिशा में अपेक्षित सत्कार्य का संपादन किया है। प्रस्तुत पुस्तक निश्चित रूप से पाठकों को स्थायी रूप से बौद्धिक एवं नैतिक धन्यता प्रदान करेगी।

संक्षिप्त सी इस भूमिका के बाद अब हम पुस्तक की विषयवस्तु की चर्चा शुरू करना चाहते हैं। जैसा कि हमने पहले भी बताया था कि डॉ. शरद चतुर्वेदी ने अपनी पुस्तक के प्रथम अध्याय को यज्ञोपवीत अर्थात जनेऊ से शुरू किया है। वस्तुतः हमारे पूर्वज ऋषियों ने जिन 16 संस्कारों की परिकल्पना की थी और जो 16 संस्कार संस्थापित किए थे, उनमें सबसे प्रमुख संस्कार यज्ञोपवीत का ही है।

डॉ. शरद चतुर्वेदी मानते हैं कि हमारे पूर्वज ऋषियों ने संस्कारित जीवन यापन की विधा की परिकल्पना की थी। अनेक नियमों के निर्धारण में उन्होंने आध्यात्मिक के साथ-साथ वैज्ञानिक तथा स्वास्थ्य रक्षा के नियमों का समन्वय व समावेश किया तथा उन नियमों को दैनिक व्यवहार में प्रयोग करने की व्यवस्था भी दी, जिससे पूरा समाज निरोग रहते हुए शतायु प्राप्त करता था। यज्ञोपवीत इस नियम का एक अंग है। विडंबना यह है कि वर्तमान में हम अपनी पुरातन परंपराओं को या तो निरर्थक मानकर या अज्ञानतावश अथवा पाश्चात्य संस्कृति के हठात अंधानुकरण के कारण नकारते या छोड़ते जा रहे हैं। ऋषियों के कथनों को यथार्थ रूप में जानने का प्रयास भी नहीं करते हैं। डॉ. शरद चतुर्वेदी ने हिंदी, संस्कृत तथा अंग्रेजी के अनेक ग्रंथों का अध्ययन करने के बाद यज्ञोपवीत के वैज्ञानिक महत्व के बारे में जो निष्कर्ष दिए हैं, वे बहुत चौंकाने वाले, वरेण्य और निश्चित रूप से अपनाने योग्य भी हैं।

डॉ. शरद चतुर्वेदी के अध्ययन से निष्कर्ष प्राप्त होते हैं कि :

यज्ञोपवीत एक स्वास्थ्य रक्षक, जीवन रक्षक सरलतम चिकित्सकीय उपकरण है। आयुर्वेद, एक्यूप्रेशर एवं एलोपैथिक आदि सभी चिकित्सा पद्धतियों से यज्ञोपवीत के प्रयोग से होने वाले लाभ की पुष्टि प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से होती है। अवसाद और उससे उत्पन्न उच्च रक्तचाप व हृदय रोग से बचने का सहज उपाय इस उपकरण के दैनिक प्रयोग द्वारा संभव है। इस उपकरण द्वारा स्वास्थ्य लाभ सहजता से प्राप्त किया जा सकता है। इसमें कोई व्यय नहीं है, अर्थात यह अत्यंत किफायती (cost effective) है, जो किसी भी चिकित्सा पद्धति में संभव नहीं है। यह उपकरण शरीर के बाहर उपयोग में लाया जाता है। इसके प्रयोग हेतु न कोई औषधि खानी है, न लगानी है, अतः इसका कोई विपरीत प्रभाव भी नहीं है।

सबसे प्रमुख बात यह है कि वर्तमान परिस्थितियों में मानसिक तनाव, उच्च रक्तचाप एवं हृदय रोगियों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। इन रोगों से सुविधा संपन्न समाज तथा गरीब समाज अर्थात सभी वर्ग प्रभावित हो रहे हैं। अतः यज्ञोपवीत अर्थात जनेऊ धारण करने जैसे साधारण, अल्पमूल्य, निरापद एवं प्रभावी उपाय को अपनाने व प्रयोग करने की और भी अधिक आवश्यकता है। प्रतिरक्षा करना चिकित्सा की अपेक्षा उत्तम है (Prevention is better than cure)।

यज्ञोपवीत अध्याय की अंतिम पंक्तियों में डॉ. शरद चतुर्वेदी का कहना है –
“उपरोक्त अध्ययनों से प्राप्त निष्कर्ष के आधार पर मेरा अभिमत है कि मानसिक तनाव जन्य स्थितियों से बचाए रखने के लिए सरलता से सभी के द्वारा व्यवहार में लाया जा सकने वाला सुरक्षित, दुष्प्रभाव रहित एवं नगण्य व्यय साध्य उपाय, जो रक्तचाप, हृदय रोग, मूत्र रोग आदि से सुरक्षित रखने वाला हो, वह यज्ञोपवीत के अतिरिक्त अन्य कोई उपकरण नहीं है। पूर्वाग्रह और आधुनिकता की मरीचिका को त्यागकर इसका उपयोग करना श्रेयस्कर है। अपने इस चिकित्सा समाजशास्त्रीय अध्ययन से समाज को सहमत करने में यदि मैं सक्षम होता हूँ, तो अपना प्रयास सार्थक मानूंगा।”

घर और मंदिर में शंख क्यों होना चाहिए

“सनातन संस्कृति में शंख” शीर्षक में डॉ. शरद चतुर्वेदी बताते हैं कि प्रत्येक मंदिर और घर में शंख आवश्यक रूप से उपलब्ध होता है। शंख का पूजन भी होता है और इसे बजाया भी जाता है। किंतु शंख का महत्व केवल धार्मिक स्तर तक सीमित नहीं है।

डॉ. शरद चतुर्वेदी ने अपने शोध निष्कर्षों में बताया है कि आयुर्वेदिक चिकित्सा में भी शंख का उपयोग होता है। शंख भस्म और शंख द्रव का प्रयोग उदर रोगों के उपचार में किया जाता है। शंख में प्रचुर मात्रा में कैल्शियम, फॉस्फोरस तथा गंधक जैसे खनिज तत्व पाए जाते हैं, जो अस्थियों को पुष्ट करते हैं और चर्म रोगों में भी लाभकारी होते हैं।

शंख के वैज्ञानिक महत्व को रेखांकित करते हुए डॉ. चतुर्वेदी बताते हैं कि शंख की ध्वनि का सामंजस्य ‘ॐ’ की ध्वनि से है। शंख की ध्वनि की तरंगें मस्तिष्क के तंतुओं को सक्रिय करती हैं, जिससे स्मरण शक्ति प्रबल होती है। शंख बजाने से फेफड़ों में वायु की क्षमता बढ़ती है और फेफड़ों का आकार भी विस्तृत होता है।

इस प्रकार शंख न केवल धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व रखता है, बल्कि शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से भी उपयोगी है। साथ ही इसकी विशेष ध्वनि तरंगें ब्रह्मांड में व्याप्त ध्वनि तरंगों से सामंजस्य स्थापित करने में सहायक होती हैं।

“संजीवनी विद्या” अध्याय में डॉ. चतुर्वेदी का निष्कर्ष है कि संजीवनी कोई एकमात्र जड़ी-बूटी नहीं, बल्कि एक विद्या है। इसके चार अंग बताए गए हैं—मृत संजीवनी, विशल्यकरणी, सवर्णकरणी और संधानकरणी। मृत संजीवनी मूर्छा दूर कर चेतना लाती है। विशल्यकरणी शरीर से धातु, काष्ठ, पत्थर या नासूर आदि को दूर करती है। सवर्णकरणी टूटी अस्थियों और मांसपेशियों को जोड़कर उन्हें पूर्व रूप में पुनर्स्थापित करती है। संधानकरणी शरीर में पुनः शक्ति उत्पन्न करती है। दुर्गा सप्तशती में मृत संजीवनी विद्या का उल्लेख है, जिसके सिद्ध मंत्र के प्रयोग से मृतप्राय रोगी को भी जीवन मिल सकता है।

“जल है जीवन का आधार” शीर्षक से 25 पृष्ठों में डॉ. चतुर्वेदी ने जल के धार्मिक, पौराणिक, पारिवारिक, सामाजिक और वैज्ञानिक महत्व को विस्तार से बताया है। “जल विज्ञान” के अंतर्गत उन्होंने जल चक्र, जल प्रदूषण और उसके कारण, दुष्प्रभाव तथा निवारण के उपायों पर भी चर्चा की है। साथ ही जल संरक्षण और प्रबंधन की आवश्यकता को रेखांकित किया है।

इसी क्रम में उन्होंने अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त ग्राम “जखनी” और वहां के उमाशंकर पांडेय के कार्यों का वर्णन किया है। उन्होंने “खेत में मेड़ और मेड़ पर पेड़” योजना से अपने गांव को मॉडल बना दिया, जिसके कारण गांव के सभी कुएं और तालाब सालभर जल से भरे रहते हैं। इसी कारण भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया। उल्लेखनीय है कि यह विवरण सबसे पहले “मुक्तिचक्र” पत्रिका में प्रकाशित हुआ था, जिसके बाद उन्हें “जलपुरुष”, “जल योद्धा” और पद्मश्री की उपाधियां मिलीं।

“काल गणना” शीर्षक में डॉ. चतुर्वेदी ने विभिन्न कैलेंडरों का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करते हुए बताया कि नक्षत्र ज्ञान सर्वप्रथम भारत में था। चीन और अरब में ज्योतिष का विकास भारत से हुआ। भारतीय गणित और ज्योतिष का गहरा संबंध है और प्राचीन भारतीय कालगणना त्रुटिहीन और वैज्ञानिक आधार पर स्थापित है।

“ज्योतिषीय काल परिणाम” में उनका निष्कर्ष है कि भारतीय गणितज्ञों और ज्योतिषियों ने सूक्ष्मतम से महानतम काल गणना की खोज की, जिससे स्पष्ट है कि वे समय-यात्रा (Time Travel) की विधि से परिचित थे।

“सृष्टि की उत्पत्ति एवं लय” अध्याय में डॉ. चतुर्वेदी ने ऋग्वेद, भागवत महापुराण, वेदांत सहित विभिन्न धर्मों और वैज्ञानिक मतों का अध्ययन कर निष्कर्ष प्रस्तुत किया। अधिकांश वैज्ञानिक “बिग बैंग” सिद्धांत को मानते हैं, जिसके अनुसार 15 अरब वर्ष पूर्व समस्त पदार्थ एक बिंदु में संकुचित था और वहीं से ब्रह्मांड का प्रसार हुआ।

उन्होंने वैज्ञानिकों जैसे एडविन हबल, आइंस्टाइन, अलेक्जेंडर फ्रेडमैन आदि के विचार भी प्रस्तुत किए। आगे उन्होंने ब्रह्मांड की उत्पत्ति, तारों-ग्रहों की रचना और उसके क्रमिक विकास पर विस्तार से प्रकाश डाला। साथ ही सृष्टि के विनाश अथवा प्रलय की विभिन्न धार्मिक और वैज्ञानिक मान्यताओं को भी चर्चा में शामिल किया।

“रामचरितमानस” अध्याय में डॉ. चतुर्वेदी ने तुलसीदास जी की भूमिका पर प्रकाश डाला कि उन्होंने शैव, वैष्णव और शाक्त समुदायों को एक सूत्र में बाँधकर समाज को संगठित किया। विषम परिस्थितियों में भी उन्होंने सरल भाषा में रामचरितमानस की रचना कर जनमानस तक धर्म और संस्कृति का संदेश पहुँचाया।

“ऋषि परंपरा के वैज्ञानिक और उनके अन्वेषण” खंड में उन्होंने प्राचीन ग्रंथों में वर्णित वैज्ञानिक ज्ञान पर चर्चा की। भास्कराचार्य द्वारा गुरुत्वाकर्षण की खोज, और महर्षि विश्वामित्र, ऋषि अगस्त्य, ऋषि कणाद, आचार्य सुश्रुत आदि के योगदानों को रेखांकित किया।

“भारतीय ज्ञान एवं दर्शन के अप्रतिम ग्रंथ” खंड में उन्होंने वेदों, पुराणों और उपनिषदों में रोगों और उनके उपचारों का उल्लेख किया। साथ ही “स्वास्तिक”, “मानव धर्म”, “वैमानिक कला”, “स्वर्ग की अवधारणा” और “हिंदू शब्द की व्युत्पत्ति” जैसे विषयों पर नए दृष्टिकोण प्रस्तुत किए।

“बाँदा गौरव” खंड में बाँदा क्षेत्र के धार्मिक, ऐतिहासिक और वैज्ञानिक योगदानों का वर्णन किया है। उन्होंने महर्षि वामदेव, वाल्मीकि, वेदव्यास और तुलसीदास के योगदानों का स्मरण कराया और वीरांगना दुर्गावती की ऐतिहासिक भूमिका को भी रेखांकित किया।

अपने आत्मकथ्य में डॉ. चतुर्वेदी ने दुख प्रकट किया कि मुगल और ब्रिटिश शासकों ने हमारी सांस्कृतिक धरोहर को नष्ट कर दिया और हमें अपने पूर्वजों की वैज्ञानिक उपलब्धियों से दूर कर दिया। स्वतंत्रता के 76 वर्ष बाद भी यह ज्ञान हमारे पाठ्यक्रमों में समुचित स्थान नहीं पा सका है। उन्होंने लगभग 20–25 वर्षों तक चारों वेदों, पुराणों, उपनिषदों और महाकाव्यों का गहन अध्ययन किया।

80 वर्षीय डॉ. चतुर्वेदी ने लगभग 50–55 वर्षों तक सैकड़ों धार्मिक, आध्यात्मिक और वैज्ञानिक ग्रंथों का अध्ययन कर अध्यात्म में वैज्ञानिक तत्वों का अनुसंधान किया। उनके अनेक शोध लेख देश-विदेश की पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। अब उन्होंने अपने शोध को पुस्तक का रूप दिया है—”सनातन संस्कृति एवं अध्यात्म में वैज्ञानिक अनुसंधान”। यह अद्भुत, अनूठी और संग्रहणीय पुस्तक कनाडा से प्रकाशित हुई है।

भारत में इसके वितरक हैं—पुस्तक भारती, 168 नेहियान, वाराणसी।
संपर्क: +91 7355682455 | मूल्य: ₹735 (हार्ड बाउंड, 220 पृष्ठ)
लेखक संपर्क: डॉ. शरद चतुर्वेदी, 9838980117

समीक्षा प्रस्तुति: डॉ. गोपाल गोयल
संपादक: मुक्ति चक्र, बांदा, दिल्ली</p>