भाषा और संस्कृति के साझे को समझना खासा दिलचस्प है। यह दिलचस्पी तब और बढ़ जाती है। जब हम भाषाई कहन से जुड़े अक्श तलाशते हैं। भारत की बोलियों और भाषाओं में कई ऐसी कहावतें हैं जिसके मायने के साथ उसके प्रचलन की वजहों को खंगालें तो पुराने दौर की कई ऐसी खनक सुनाई देगी, जो तब की सांस्कृतिक सुंदरता और उसके विस्तार की खुदगवाही हैं। ऐसे ही एक लोकप्रिय कहावत पर विशेष।
जो सुख छज्जू के चौबारे…।
कहावतें बेबुनियाद नहीं होतीं। उनका एक अपना इतिहास होता है। यह अलग बात है कि कहावतें जब चल निकलती हैं, तो इतिहास कहीं हाशिए पर सरक जाता है। ऐसी ही एक मशहूर कहावत है, ‘जो सुख छज्जू दे चौबारे, ओह बलख न बुखारे।’ छज्जू, बल्ख, बुखारा, इन तीनों का अपना परिचय है। बल्ख और बुखारा दो समृद्ध शहर रहे हैं। दोनों अंतरराष्ट्रीय व्यापार मार्ग ‘सिल्क रूट’ से जुड़े महत्त्वपूर्ण व समृद्ध व्यापारिक केंद्र थे। समृद्धि के साथ-साथ वहां के लोग कला, संस्कृति, साहित्य, संगीत से भी गहराई से जुड़े थे। आम चर्चा यही होती थी कि इन दोनों शहरों में सभी सुख हैं। अब रहा ‘छज्जू’। मेरे एक प्रिय दोस्त हैं आत्मजीत। चर्चित नाटककार हैं। हमें एक बार एक साथ पाकिस्तान जाने का मौका मिला। बहुत सी ऐतिहासिक इमारतों व चर्चित बाजारों में घूमे। तब भी मन में एक जिज्ञासा थी कि छज्जू् को तलाशा जाए। तब वक्तकम था। पता नहीं चल पाया। कुछ समय बाद मौका मिला तो बेहद दिलचस्प बातें खुलीं। पता चला कि छज्जू् सिर्फकल्पित पात्र नहीं था।
जौहरी था छज्जू
लाहौर के अनारकली रोड पर छज्जू का चौबारा था। छज्जू उन दिनों लाहौर का एक प्रमुख जौहरी था। पूरा नाम था लाला छज्जूराम भाटिया। दोमंजिले आवास की पहली मंजिल पर उसका कारोबार था। दूसरी मंजिल पर परिवार। उसी की छत पर उसने बनाया था- छज्जू का चौबारा। इस चौबारे को फकीरों के डेरे के रूप में प्रयोग किया जाता था। इस चौबारे पर फकीरों की धूनी भी रमती थी और भजन-कीर्तन व सूफियों का नृत्य भी चलता था।
छज्जू को अध्यात्म की ऐसी लगन लगी कि धीरे-धीरे ज्यादा वक्त वो जप-तप में बिताने लगा। उसने अपनी कमाई का बड़ा हिस्सा फकीरों, भक्तों व जरूरतमंद लोगों पर खर्च करना शुरू किया। शीघ्र ही उसे छज्जू भगत कहा जाने लगा। लोग तब अक्सर कहते थे कि इस चौबारे पर आकर रूहानी सुकून मिलता है। यहां सभी सुख मिलते थे। भूखे को रोटी, नंगे को कपड़ा और अगले सफर पर रवाना होने से पहले खाने-पीने की रसद और कुछ सिक्के ताकि वक्त-बेवक्त की जरूरत पूरी हो जाए।
चौबारे की गवाही
मन में जिज्ञासा थी। उस चौबारे को ढूंढ़ा जाए। पुराने रिकार्ड, किताबें व पुराने लोगों को खंगाला तो दिलचस्प ऐतिहासिक गवाहियां खुल गर्इं। लाहौर में बहुत कुछ है जो हमें विरासत से जोड़ता है। शहर के मेयो अस्पताल के साथ ही मौजूद हैं इस चौबारे के खंडहर। छज्जूराम भाटिया उर्फ छज्जू भगत, दरअसल शाहजहां के समय में हुआ था। उसकी उम्र व जन्म- वर्ष का तो पता नहीं चलता, लेकिन उसने आखिरी सांस 1696 में ली थी। उसकी मृत्यु भी रहस्यमय रही थी। किंवदंती है कि मृत्यु के कुछ क्षण पूर्व वह चौबारे के कोने में स्थित अपनी तप-गुफा में चला गया था और बाद में उसका कोई अता-पता नहीं चला। उसका चौबारा फकीरों का डेरा बन गया। फकीर दिन में वहां धमाल नृत्य करते और तालियों के बीच गाते, ‘जो सुख छज्जू दे चौबारे, ओह बलख न बुखारे।’ प्राप्त ऐतिहासिक दस्तावेज के अनुसार महाराजा रणजीत सिंह अपने शासनकाल में यहां अक्सर फकीरों से मिलने आ जाया करते थे। वहां उन्होंने छज्जू भगत की स्मृति में एक मंदिर भी बनवा दिया था। मंदिर और फकीरों के लिए हर माह वे एक तय राशि भी भिजवाते रहे। अब भी उन बचे-खुचे खंडहरों के सामने शीश नवाने लोग हर मंगलवार और वीरवार को आते हैं।
विरासत की रक्षा
लाहौर के मेयो अस्पताल के साथ ही बना है शम्स शहाबुद्दीन तीमारदारी घर। चौबारे का खंडहर भी कायम है। मेयो अस्पताल वालों ने फैसला किया कि इस खंडहर को तोड़ दिया जाए ताकि अस्पताल का विस्तार हो सके। लोगों के विरोध और इतिहास व मीडिया से जुड़े लोगों की कड़ी आपत्तियों के बाद तोड़ने का फैसला स्थगित कर दिया गया। इस संबंध में इतिहासकार सुरेंद्र कोछड़ ने भारत सरकार से भी दखल देने की अपील की है। उनकी दलील है कि यह विरासती संपदा है और इसे कानूनी रूप से भी तोड़ा नहीं जा सकता। वैसे पुराने लाहौर में इस जगह के खंडहर भी अब बोलने लगे हैं। अब पुराने चौबारे के काल्पनिक चित्र भी बनाए जाने लगे हैं। इतिहासकार लतीफ ने इन चित्रों को पुरानी जानकारी के आधार पर छपवाया भी है।
अब इस विलक्षण स्थान के आसपास अस्पताल के कर्मचारियों के आवास भी बन गए हैं। वहां तक पहुंचने के लिए इनके घरों के बीच संकरे रास्तों से गुजरना होता है। मगर निस्बत रोड व रेलवे रोड के मध्य में स्थित इन खंडहरों पर अब इबादत होती रहती है। हालांकि वे दिन गए जब बात-बात पर कह दिया जाता था-
जो सुख छज्जू दे चौबारे
ओह, बलख न बुखारे।
एक सुखद बात है कि छज्जू् का नाम और उससे जुड़ी संस्कृति बचाने के लिए पाकिस्तान का सोशल मीडिया व वहां के कुछ बुद्धिजीवी पूरी तरह सतर्क हैं और मोर्चे पर डटे हैं, यह कहते हुए कि यह हमारा विरसा है।
चौबारा और बाबा
छज्जू के चौबारे के साथ ही लगा उदासीन संप्रदाय के एक संत बाबा प्रीतम दास का छोटा सा मंदिर भी था। बाबा प्रीतम दास वही संत थे, जिन्होंने अपने समय के चर्चित संत बाबा भुम्मन शाह को दीक्षा दी थी। उनकी ख्याति तब तो थी ही, आज भी काफी है। सिरसा, फाजिल्का, अबोहर, फतेहाबाद आदि इलाकों में बाबा भुम्मन शाह आज भी पूरे कंबोज समुदाय में पूजे जाते हैं। कहा तो यह भी जाता है कि औरंगजेब के शासन में दो स्थानों को खास अहमियत दी गई थी। एक स्थान था पीर ऐन-उल-कमाल का मकबरा और दूसरा छज्जू भगत का मंदिर।