मानव को एक तरह से इस रूप में ‘अमरत्व’ का वरदान मिला है कि अपनी संततियों में खुद को देखता हुआ वह इसी प्रक्रिया द्वारा चिरकाल तक जीवित रहता है। वह अपने सपनों और अपनी महत्त्वकांक्षाओं को अपनी संतान में भर अपनी कामनाओं के छूट गए सिरे को उसके जरिए फिर से पकड़ना चाहता है। अभिभावक की भूमिका निभाना वाकई एक मुश्किल कार्य है। अभिभावक बनने से पहले आमतौर पर व्यक्ति को इस काम के लिए कोई प्रशिक्षण नहीं दिया जाता है। होने वाले माता-पिता के लिए किसी भी तरह की कार्यशाला का आयोजन नहीं किया जाता है।
हम सब खुद ही अपूर्ण परवरिश के तहत बड़े हुए हैं। कुछ बातें जो हमें अपने अभिभावकों की खराब लगती थीं, उसके लिए हम खुद को तैयार रखते हैं कि वैसा कुछ अपने बच्चों के साथ नहीं करेंगे। वे बातें या व्यवहार जो हमारे अभिभावकों ने हमारे साथ बेहद अच्छे तरीके से किया, वे हम अपने बच्चों के साथ भी दोहराते हैं। कुछ लोग होते हैं जो मानसिक दबाव, सामजिक संघर्ष और बदल रही परिस्थितियों के लिए सजग होते हैं, लेकिन अधिकतर लोग कूपमंडूकता का शिकार होते हैं। ‘जो हम जानते हैं, बस वही सही है’ का अनुसरण करने वाले कभी इधर-उधर से कुछ सीख कर तो कभी बस यों ही अपने मन के हिसाब से बच्चों के साथ बर्ताव करते हैं। कुछ सालों में बच्चे बड़े हो जाते हैं। उनकी नौकरी और शादी के बाद हम उनकी जिम्मेदारियों से निवृत्त हो जाते हैं। आसान अर्थों में परवरिश जैसी भारी-भरकम क्रिया यों ही पूरी हो जाती है।
अक्सर माता-पिता को लगता है कि वे सब कुछ अपने बच्चों के बेहतर भविष्य या भलाई के लिए कर रहे हैं। फिर चाहे वह हिंसा (मौखिक या शारीरिक) ही क्यों न हो। संभव है, माता-पिता की मंशा वास्तव में बच्चों का बुरा करने की नहीं होती है, मगर इसका क्या हो, जब हमारे व्यवहार में आई हिंसा बच्चों के कोमल मन-मस्तिष्क पर गहरा असर डाले, उनके व्यक्तित्व निर्माण में भूमिका निभाए? हम सब अगर अपने बचपन की सबसे सुंदर यादों को टटोलें तो वे हमारे भाई-बहनों या दोस्तों के साथ गुजारे हुए पल होंगे।
खुद की संतुष्टि के लिए बच्चों को दें ऐसा परिवेश
दरअसल, हम यह समझ नहीं पाते कि बच्चों के सुखद भविष्य का आधार उनका आर्थिक रूप से मजबूत होना नहीं, बल्कि मानसिक रूप से मजबूत होना है। मनोचिकित्सकों के अनुसार, हर उलझा हुआ वयस्क दिमाग खराब परवरिश या माहौल का प्रतिफल होता है। हमारा बच्चा अच्छा है, इसे साबित करने के लिए उसे किन मानदंडों पर खरा उतरना पड़ेगा? वह किस तरह साबित कर सकेगा कि हमारे द्वारा की गई परवरिश सफल है? हमारे समय में अच्छा बच्चा होने का मतलब ही था कि वह अपने माता-पिता से किसी भी तरह की मांग न करे। अपने जीवन का हर फैसला उन्हीं के अनुसार ले।
अगर बच्चे ने विद्रोह करके अपनी मन:स्थिति के अनुसार कोई निर्णय ले लिया तो हम अभिभावक के रूप में ‘अनुत्तीर्ण’ हो गए। वह बच्चा एक इंसान के रूप में हमारी और समाज की नजरों में कमतर साबित हो जाता था। किसी को यह फिक्र नहीं थी कि उस अकेले पड़ गए बच्चे की मानसिक स्थिति क्या होगी, किस तरह वह सब कुछ समेटने की कोशिश कर रहा होगा। माता-पिता के सलाहकार होते थे उनके रिश्तेदार और बच्चों का प्रथम कर्तव्य होता था उन शुभचिंतकों, रिश्तेदारों के सामने माता-पिता का सम्मान बचाना। यह बात विचित्र लग सकती है, लेकिन सच यह है कि कई रिश्तेदार कुंठा और हताशा से भरे युवाओं और अधेड़ों के जीवन के लिए कसूरवार होते हैं।
बच्चों की गलतियों पर माफ किया जाए
बहरहाल, जमाना धीरे-धीरे बदल रहा है। अगली पीढ़ी बच्चों को परिवार का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग बनाकर अपने मन की इच्छा पूरी करने की कोशिश कर रही है। हालांकि यह भी सही विकल्प नहीं है। इस समाज को मजबूत, सुगठित और सामान्य लोगों की जरूरत है। राजकुमारों और परियों की तरह पले-बढ़े नाजुक मन की नहीं, जो एक झटके में बिखर जाएं। एक सामान्य परवरिश जहां बच्चों के मन की सुनी जाए और बच्चों को अपनी बात बताई जाए। जहां बच्चे अपना गुस्सा, अपनी नापसंदगी, अपना क्षोभ खुल कर व्यक्त कर सकें। जहां उनकी गलतियों पर उन्हें गले लगा कर माफ किए जाने का हौसला हो, तो अपनी गलतियों पर उनसे माफी मांग लेने की भी सहजता हो। जहां बच्चों के कंधे पर बस स्कूल का बस्ता हो, खानदान की इज्जत का बोझ नहीं। जहां ‘विद्रोह’ को कुचलने की नहीं, उसके कारणों को समझने की बात हो। परवरिश में रिश्तों के महिमामंडन की नहीं, बल्कि उनके बीच पारदर्शिता का भाव होना आवश्यक है। हम शारीरिक रूप से अस्वस्थ हो सकते हैं, तो मानसिक रूप से भी अस्वस्थ हो सकते हैं। बीमारियों को उपचार और परवाह की जरूरत होती है। अगर हमारा बच्चा हमारे अनुसार बर्ताव नहीं कर रहा तो उसके बारे में राय बनाए बिना उसके व्यवहार को समझने की कोशिश करने की जरूरत है। मान कर चलना चाहिए कि हमसे भी गलतियां हो सकती हैं। हमारा बच्चा अगर हमें बदलते हुए देखेगा तो उसके लिए भी रूपांतरण और स्वीकरण की प्रक्रिया आसान हो जाएगी। परवरिश की सबसे पहली शर्त ही नि:स्वार्थ प्रेम है। यह आसान नहीं है, लेकिन कोशिश की जा सकती है। आखिर अभिभावक बनने का फैसला हमने ही लिया था!