कुछ करने की तमन्ना में अपना घर और शहर छोड़े हुए सालों बीत चुके होने के बाद आज भी उस शहर, गली, घर से कई लोगों को इतना जुड़ाव महसूस होता है कि लगता है जैसे उनसे पीछा छूटना नामुमकिन है। महानगरों की भागदौड़ में कभी-कभार अपने शहर के भी कई लोग टकरा जाते हैं, जिनसे मिलकर ऐसा लगता है, जैसे वह कोई अपना हो। कहीं दूर से भी कानों में अपनी बोली की आवाज सुनते ही ध्यान जाता है कि यह तो हमारी ओर का है। कई बार अचानक कदम उसकी ओर आगे बढ़ने लगते हैं। अनजाने में ही जुबान से निकल जाता है कि ‘कहां के हैं आप’, लेकिन सामने वाले की बेरुखी देखकर मन उदास हो उठता है।
महानगर में रहते हुए क्या अपनी बोली, अपनी भाषा भी पराई हो जाती है? क्या अपनी मातृभाषा में बात करना इतना अखरता है? हम निज भाषा की उन्नति और उस पर गर्व की बात करते हैं, लेकिन व्यक्ति जब कस्बे या शहर से दूर महानगर की चकाचौंध भरी दुनिया में कदम रखता है, तो उसे अपनी ही भाषा पिछड़ी हुई लगने लगती है। अपनी बोली, भाषा छोड़कर वह हिंदी और खासकर टूटी-फूटी अंग्रेजी में बात करना ही अपनी शान समझने लगता है। अपने ही बच्चों के साथ किसी बेगानी भाषा में बात करना उसकी आधुनिकता का परिचय बन जाता है।
पैतृक घर जाते समय ट्रेन पर चढ़ते ही आंखें अपनी ओर के लोगों को ढूंढ़ने लगती हैं, जिनके साथ अपनी भाषा में खुलकर बतियाते हुए सफर काटने का मन करता है। मगर आजकल सब कुछ बदल चुका है। सामने बैठा व्यक्ति वेश-भूषा, हाव-भाव से आपको अपने वहां का जानकर नजरें चुराने लगता है। बंगाली, असमिया, ओड़िया या दक्षिणी के बदले अपने ही बच्चों या पत्नी से हिंदी या अंग्रेजी में बात करता रहता है। उनसे उनका परिचय पूछ भी लिया जाए, तो बहुत संक्षिप्त बात होती है। अगर उनसे यह कहा भी जाए कि आप अपनी भाषा में क्यों नहीं बात करते तो अकड़ के साथ जवाब यह आएगा कि बच्चों को हिंदी या अंग्रेजी सिखाने के लिए हमें उनके साथ हिंदी या अंग्रेजी में बात करनी होती है। अगर आज के पढ़े-लिखे लोगों की सोच ऐसी है तो अनपढ़ लोगों को कौन समझाए कि बच्चा तो स्कूल में ही अंग्रेजी और हिंदी सीख जाएगा, लेकिन मातृभाषा कहां और कैसे सीखेगा।
मातृभाषा में ही सपना देखता है मनुष्य
कहते हैं कि मनुष्य अपनी मातृभाषा में ही सपना देखता है। अपनी भाषा सीखने में जो सुगमता होती है, दूसरी भाषा में हमें वह सुगमता नहीं होती, लेकिन आधुनिकता के चलते हमारे सपने ही अपने नहीं रहे। हर भाषा अपने में महान और विशाल है। चाहे हमारी हिंदी, उर्दू, मराठी, गुजराती, असमिया, बंगाली, ओड़िया जैसी भारतीय भाषा हो या अंग्रेजी, फारसी, स्पेनी, रूसी जैसी विदेशी भाषा। हर भाषा का अपना महान साहित्य, संस्कृति और परंपरा है, लेकिन अपनी भाषा को हेय मानकर किसी दूसरी भाषा को महान मानना बेवकूफी का परिचय है। भारत में कुल अट्ठाईस भाषाओं को संवैधानिक स्वीकृति मिली है और तमिल, संस्कृत, कन्नड़, तेलुगु, मलयालम, ओड़िया भाषा को शास्त्रीय मान्यता मिली है। शास्त्रीय भाषा की मान्यता के लिए यह मानदंड है कि उस भाषा का डेढ़-दो हजार वर्ष पुराना इतिहास और संस्कृति हो।
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साहित्यिक परंपरा में मौलिकता हो, जो किसी अन्य भाषिक समुदाय से न ली गई हो। लेकिन सिर्फ शास्त्रीय मान्यता मिल जाना ही काफी नहीं है। इस गौरव को बचाए रखना केवल उस भाषा के साहित्यकार का दायित्व नहीं, बल्कि उस भाषा में बात करने वाले हर एक शख्स का कर्तव्य है। हर राज्य की अपनी-अपनी भाषा और बोली होती है। मातृभाषा का विकास उसके बोलने वाले और सरकार दोनों के प्रयत्न से ही संभव है। हम प्रगति के उस पथ पर तेजी से आगे बढ़ते जा रहे हैं, जहां हमें अपनी बिछड़ी हुई जड़ नजर नहीं आ रही हैं। या कह सकते हैं कि हम जानबूझकर भी नजरअंदाज किए जा रहे हैं।
अपनी भाषा और साहित्य को बचाना हमारे हाथ
जहां मातृभाषा और राष्ट्रभाषा में उच्च शिक्षा के लिए सरकार की ओर से प्रोत्साहन के तौर पर वजीफा देने, फीस कम करने जैसी व्यवस्था होनी चाहिए, वहां इस तरह के उदासीन मनोभाव भविष्य के खतरे का ही संकेत है। सिर्फ स्कूली शिक्षा में कुछ निर्दिष्ट कक्षा तक मातृभाषा को एक विषय के तौर पर पाठ्यक्रम में शामिल कर देना किसी भी भाषा के विकास के लिए सरकार की ओर से उठाए गए महत्त्वपूर्ण कदम नहीं हैं। बच्चों से अगर पूछा जाए कि आपका प्रिय विषय क्या है, तो अधिकतर गणित, विज्ञान, इतिहास, अंग्रेजी, समाज विज्ञान जैसे विषयों का नाम लेंगे, अपनी भाषा का नहीं। ऐसे में हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि आनेवाले कल में हमारी भाषा की उन्नति संभव होगी। आज किसी भी भाषा में लिखे जा रहे साहित्य की बात करें तो बहुत ही कम रचनाएं देखने को मिलेंगी जो पाठक के हृदय को झकझोरने की क्षमता रखती हों।
साहित्य के अलावा अगर हम प्रादेशिक भाषाओं में बन रही फिल्मों की बात करें तो हिंदी, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम, बांग्ला भाषा की फिल्मों को छोड़कर बाकी अन्य प्रादेशिक भाषाओं में बन रही फिल्मों की स्थिति अच्छी नहीं है। किसी भी भाषा के साहित्य और मनोरंजन के साधन में अगर वहां की संस्कृति, परंपरा, रीति-रिवाज, लोकजीवन की झलकियां न मिलें तो समझना होगा कि यह बेहतर स्थिति नहीं है। अपनी भाषा और साहित्य को बचाना हमारे हाथ है। देश के सचेतन नागरिक होने के नाते यह हमारा दायित्व है कि हम रूस, जापान, चीन जैसे विकासशील देश की तरह अपनी भाषा की उन्नति के लिए हर संभव प्रयास करें।