प्रत्यूष शर्मा

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और इसे प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ रचना के तौर पर देखा जाता है। यों मनुष्य का अकेले में कोई अस्तित्व नहीं है। संवेदनाएं हमें एक दूसरे से जोड़े रखती हैं। किसी भी व्यक्ति का दुख देखकर अकस्मात हमारा दुखी हो जाना संवेदनाओं के कारण ही होता है। पर आजकल अधिकांश लोग संवेदनशून्य होते जा रहे हैं। पहले दो लोग लड़ते थे तो तीसरा समझाने और बचाने आता था।

अब दो लोग लड़ते हैं तो तीसरा वीडियो बनाने पहुंच जाता है। पहले सड़क पर अगर कोई दुर्घटना होती थी तो आसपास के लोग दुर्घटनाग्रस्त यात्रियों को बचाने पहुंच जाते थे। आजकल स्थिति बदल गई है आजकल बचाने के बजाय लोग वीडियो बनाना शुरू कर देते हैं। ऐसी घटनाओं से हमारी संवेदना भी धीरे-धीरे मर रही है। जब ऐसा होता है तो एक मनुष्य के तौर पर हमारा पतन होने लगता है, क्योंकि संवेदना के स्तर पर ही हम एक-दूसरे से जुड़ते हैं और एक-दूसरे के दुख-सुख को समझते हैं। जब वही नहीं रहेगी, तो कैसा रिश्ता और कैसा जुड़ाव। जिस जिंदगी में भाव और संवेदना मूल तत्त्व होते थे, अब उन्हें दरकिनार किया जा रहा है। ऐसा करके हम अपने इंसान होने के बुनियादी मूल्य को खो रहे हैं।

हम आधुनिकता के चक्रव्यूह में फंसकर अपने रिश्तों, मर्यादाओं और नैतिक दायित्वों को भूल रहे हैं। समाज में निर्दयता और हैवानियत बढ़ रही है। अक्सर हम दुनिया में नैतिक और सभ्य होने का ढिंढोरा पीटते हैं, जबकि हमारे समाज की स्थितियां इसके विपरीत हैं, भयानक हैं। संवेदनहीनता की पराकाष्ठा पिछले दिनों दिखी जब हिमाचल में भारी बरसात में किसी की दुकान और उसका घर बह गया। लेकिन मोबाइल पर वीडियो बनाने वाले कुछ लोग दुख के इस मौके पर भी इसकी गंभीरता और इससे उपजे दुख का अहसास करना जरूरी नहीं समझ रहे थे। ऐसा लगता है कि नैतिकता, संवेदनशीलता, कर्तव्य परायणता- सब कुछ भूलते जा रहे हैं हम। यह कौन-सा रास्ता है?

किसी आगजनी में फंसे लोग हों या अन्य दुर्घटनाओं के शिकार, लोग जब सहयोग और सहायता के लिए कराह रहे होते हैं, तब हमारे संवेदनहीन समाज के तथाकथित सभ्य और समृद्ध लोग इन पीड़ित और परेशान लोगों की मदद करने के बजाय अपने फोन से वीडियो बनाना जरूरी समझते हैं। देश के अन्य इलाकों से लेकर राजधानी दिल्ली तक में होने वाली कुछ घटनाओं के दौरान दुखद दृश्य हमारी सोच को आईना दिखा देते हैं। हम भले ही इस आधुनिक युग में तकनीकी तौर पर उन्नति करके विकास कर रहे हैं, लेकिन अपने मूल्यों, दायित्वों और संस्कारों को भुलाकर एक हद तक अवनति की तरफ भी जा रहे हैं।

आज हालत यहां तक पहुंच चुकी है कि कुछ लोग किसी को दुख में देखकर भी अनदेखा कर आसानी से वहां से नजरें बचाकर निकल जाते हैं। क्या यह व्यक्ति के भीतर संवेदनाओं के सूखने का संकेत हैं? पिछले दिनों हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले के एक बाजार के पास एक जाने-माने होटल के बाहर एक फटे-पुराने, मैले-कुचैले कपड़ों में एक इंसान को वहां पड़े कूड़ेदान से रोटी का टुकड़ा निकाल कर खाते देखा गया तो उसकी लाचारी देख कर कुछ संवेदनशील लोगों की आंखों से आंसू आ गए।

एक व्यक्ति ने अंदर जाकर ढाबे वालों को कुछ पैसे देकर कहा कि आपके ढाबे के बाहर एक इंसान कूड़ेदान से कुछ उठा कर खा रहा है… आप इस पैसे से उसे भरपेट खाना खिला दीजिए। ऐसे दृश्य कई बार शहरों-महानगरों की चकाचौंध के बीच दिख जाते हैं। लेकिन अगर कोई व्यक्ति किसी भूखे इंसान को दो वक्त की रोटी नहीं खिला पा रहा है और उसकी उपेक्षा कर रहा है तो इसे क्या कहा जाएगा? यह गनीमत थी कि ढाबे वाले को कहा गया और उसने कूड़ेदान से खाना खोजने की कोशिश में लगे व्यक्ति को खाना दिया।

कितना दुखद है कि आजादी के इतने वर्षों बाद भी हमें ऐसे दृश्य देखने पड़ते हैं। हालांकि समाज में कभी-कभार ऐसी घटनाएं भी सामने आती हैं कि लोग मदद कर दूसरों को जीवनदान देते हैं। पिछले दिनों एक खबर आई थी कि दो कारों में टक्कर हो गई थी, जिसमें पांच लोग घायल हो गए थे, लेकिन राहगीरों ने कुछ ही पलों के अंदर ही घायलों को अस्पताल पहुंचाया। इसी तरह हिमाचल प्रदेश में भारी बरसात से पैदा हुई आपदा में भी कई लोगों ने मानवता की मिसाल पेश की।

कई लोगों ने जगह-जगह पर भंडारे लगाए, ताकि भारी बरसात के कारण सड़कों पर फंसे हुए पर्यटकों, ट्रक चालकों और बाकी सभी फंसे हुए व्यक्तियों को खाने-पीने में कोई परेशानी न आए। वहीं आपदा की घड़ी में कुछ खबरें भी आर्इं, जिसमें दस रुपए की चीज को कुछ लोगों ने सौ रुपए में बेचा। किसी भी समाज की उन्नति और विकास तभी संभव है, जब एक इंसान दूसरे इंसान से स्नेह करना सीखेगा। अपने लिए ही नहीं, बल्कि दूसरों के लिए भी जीना सीखेगा। सामाजिक सद्भाव और प्रेम के लिए बहुत आवश्यक है कि मनुष्य अपने अंदर मानवीय संवेदनाओं के भाव को जागृत करे।