प्रकृति ईश्वर की सर्वोत्तम भेंट है। ईश्वर प्रकृति के माध्यम से भोजन, हवा, पानी, सांस और आनंद देता है, वहीं मन हमें आनंद-क्लेश और सुख-दुख दोनों दे सकता है। विशेषकर मनुष्य छेड़छाड़ करके अपने और प्रकृति के नुकसान का कारण और चुनौती बनता जा रहा है, जबकि अधिकतर अन्य जीव प्रकृति अनुकूल जीवन जीते हैं। विकास की भूख, जरूरतों के अंबार और आधुनिकता की ओट में वनों की कटाई, पर्वतों की तोड़फोड़ करके मकान, उद्योग, वाणिज्यिक गतिविधियां, सड़क आदि के निर्माण में कंक्रीट की बड़ी-बड़ी परियोजनाएं खड़ी हो रही हैं। आधुनिकता के ढेरों पक्षकार मानते हैं कि जो कुछ भी है, सब सुख वृद्धि व विकास की रफ्तार के लिए है। सुख की अबूझ पिपासा प्रकृति के साथ अबाध और परिणामविमुख छेड़खानी चल रही है। हालांकि प्रकृति बारंबार चेताती है। कभी भूकम्प आहट देता है तो कभी बाढ़ का तांडव। मनुष्य कुछ पल झिझकता है, लेकिन आधुनिकता और विकास की अंधी दौड़ में फिर से जुट जाता है।

मन जीव का विषय है, जिसका बहुत बड़ा संबंध प्रकृति से है। उसकी इच्छाओं को पूरा करने के लिए इंसान सब कुछ संगठित-असंगठित तरीके से कर रहा है। निर्मल मन वाला व्यक्ति ही आध्यात्मिक और प्रकृति के अर्थ को समझ सकता है। अस्वस्थ मन से उत्पन्न कार्य भी अस्वस्थ होंगे। इंसान मन को मनाकर खुश रह सकता है, न कि उसके मुताबिक चलकर। देह एक रथ है, इंद्रिया उसमें घोड़े, बुद्धि सारथी और मन लगाम है। मन को कर्तव्य की डोरी से बांधना पड़ता है, नहीं तो उसकी चंचलता आदमी को न जाने कहां लिए फिरे। मन में दुख होने पर देह भी ठीक वैसे ही संतप्त होने लगती है, जैसे घड़े में तपाए हुए लोहे के गोले को डाल देने में उसमें रखा हुआ ठंडा पानी गर्म हो जाता है। खुश रहने का एक सीधा-सा मंत्र है- कौन क्या, कैसे और क्यों कर रहा है, इससे मन को जितना दूर और संतुलित रखेंगे, मन की शांति के उतने ही करीब रहेंगे। परिस्थिति बदलना मुश्किल न हो तो मन की स्थिति बदल ली जाए। सब कुछ अपने-आप बदल जाएगा। अच्छी मानसिकता से ही अच्छा जीवन जीया जाता है। मानसिक बीमारियों से बचने का एक ही उपाय है कि हृदय को घृणा से और मन को भय और चिंता से मुक्त रखा जाए।

प्रकृति को भूलना आधुनिकता नहीं है। इसके भाव को सहज रूप से महसूस न करने वाला मन बीमार होता है। इंसान की आर्थिक स्थिति कितनी भी अच्छी हो, लेकिन जीवन और प्रकृति का सही आनंद लेने के लिए मानसिक स्थिति अच्छी होनी चाहिए। कोई रचनात्मक काम करने से मन बुरे विचारों में नहीं उलझेगा। आदमी जितना सृष्टि से दूर हो रहा है, शारीरिक, मानसिक और आत्मिक रूप से उतना ही अस्वस्थ्य हो रहा है। मन की सोच सुंदर हो तो संसार सुंदर लगता है। मन ही संसार है। प्रकृति का सनातन रहस्य है कि जैसा मन होता है, वैसा मनुष्य बन जाता है। मन तृप्त हो तो बूंद भी बरसात है, अन्यथा अतृप्त मन के आगे समंदर की भी क्या औकात!

बदलते दौर में मन की कमियों से जीतने के लिए इंसान अप्राकृतिक सुखों का भ्रमवश सहारा तलाशता है। प्रकृति की गोद में बैठकर आत्मा टटोलने में लगेंगे तो सही राह तक पहुंच सकते हैं, पर भौतिक संसाधनों की ओर और ज्यादा झुकने से वास्तविक जीवन पटरी से उतरता प्रतीत होता है। यही पतन का सबसे मुख्य आधार है। इससे मनुष्य प्रकृति से दूर जा रहा है। नकली सुख अलगाव लाता है। किसी भी युग में भौतिकता से आनंद का कोई लेना-देना नहीं है। कृत्रिम आनंद के वजन से हम चाहे-अनचाहे दबते चले जाते हैं। यक्ष प्रश्न यह भी है कि अंतर्मन की सुनें या वास्तविक आनंद की? आनंद के लिए लोग जंगलों-पहाड़ों की तरफ दौड़ते हैं, पर वहां वे घर से भी अधिक बेतरतीब हो जाते हैं। कूड़ा-कचरा कूड़ेदान में डालना होता है, पर आनंद के नशे में वहीं जहां-तहां अपना कचरा छोड़ चलते बनते हैं। घर आने पर अल्पकाल में मन पहले की तरह ऊबड़-खाबड़ हो जाता है। गए थे तो प्रकृति की गोद में आनंद का बोध करने, पर वह अधूरा रहा। मन और मकान को समय-समय पर साफ करना बहुत जरूरी है, क्योंकि मकान में बेमतलब सामान और मन में बेमतलब गलतफहमियां भर जाती हैं। मन को निर्मल रखना भी एक धर्म है। यह याद रखना चाहिए कि दुनिया तभी तक खूबसूरत है, जब तक प्रकृति सुरक्षित है।

जुगनू तभी तक चमकता है, जब तक उड़ता है। यही हाल मन का है, जब हम रुक जाते हैं और खुद को खंगालते नहीं हैं तो अंधकार में पड़ जाते हैं। खुद की खुशी के लिए प्रकृति को नाखुश न रखें। चिकित्सक उपचार करते हैं और प्रकृति अच्छा करती है। प्रकृति मां से भी बड़ी होती है। प्रकृति अपना संतुलन खुद बनाती है और जो कार्य प्रकृति के करने का है, उसे मनुष्य हरगिज नहीं कर सकता। मनुष्य की जरूरतें पूरा करने के लिए प्रकृति के पास सब उपलब्ध है, पर उसके लालच के लिए कुछ नहीं। ईश्वर अपनी सृष्टि को किसी अवस्था में जंजीर से बांधकर नहीं रखते, उसे नए-नए परिवर्तनों के बीच निरंतर नवीन करते हुए सजग रखते हैं। लोग आजमाते हैं, ‘परमात्मा’ है कि नहीं, पर उसने एक बार भी हमसे सबूत नहीं मांगा कि हम ‘इंसान’ हैं कि नहीं!