मानवता के महाअरण्य में आजकल एक विचित्र परिवर्तन दृष्टिगत हो रहा है। यह युग, जिसे हम तकनीकी युग कहते हैं, मानवीय संवेदनाओं की बेड़ियों से मुक्त होने का युग है। समय की गति इतनी तेज हो चली है कि मानो किसी तीव्र गमनशील गाड़ी में बैठे हुए मनुष्य ने हर्ष और विषाद के मध्य की सभी सीमाओं को तिरोहित कर दिया हो। भावनाएं अब मात्र औपचारिकताओं में सीमित हो गई हैं। प्रेम, दया, करुणा जैसे शब्द अब इतिहास की किसी दुरूह पुस्तक के पन्नों में बंद हो चुके हैं।

अब हर किसी के हाथ में मोबाइल या स्मार्टफोन के रूप एक यंत्र है जो जीवन के हर क्षण का नियंत्रक बन चुका है। एक वह समय था जब परिवार के सदस्य सांझ ढलते ही एक साथ बैठकर भोजन किया करते थे, लेकिन अब भोजन के समय भी सबकी दृष्टि अपने अपने यंत्रों में बंधी होती है। भोजन का स्वाद कड़वा या मीठा हो, इस बात का भान भी नहीं होता। भावनाओं की मिठास कहीं खो चुकी है और संवाद का लोप हो गया है। गांव की बूढ़ी दादी पोते-पोतियों को किस्से सुनाती थी, अब आधुनिकता की अंधी दौड़ में अकेली रह गई है। उसके हाथों की झुर्रियों में छिपे हुए प्रेम का मोल अब कोई नहीं जानता। उसके आशीर्वाद के अमृत कलश अब सूख चुके हैं। उसकी पीड़ा इन शब्दों में महसूस की जा सकती है कि बेटा, इस मोबाइल फोन ने हमें अपनों से दूर कर दिया है। पर उसकी बातें अब किसी के लिए महत्त्वहीन हो चली हैं।

प्रेम का आदान-प्रदान अब केवल यंत्रों के माध्यम से हो रहा

किसी समारोह में जब लोग एकत्र होते हैं, तो एक विचित्र दृश्य उत्पन्न होता है। पहले लोग हास-परिहास में व्यस्त रहते थे, अब केवल किसी कोने में बैठकर अपने यंत्र में उलझे रहते हैं। वे चेहरे जो कभी हंसी से खिले रहते थे, अब यंत्रों की रोशनी में चमकते दिखते हैं। मनुष्य और मनुष्य के बीच की दूरी यंत्रों की निकटता से बढ़ चुकी है। संवाद के नाम पर बस संदेशों का आदान-प्रदान है, जिसमें भावनाएं कहीं दूर खो चुकी हैं। यही नहीं, बचपन भी अब मोबाइल की गिरफ्त में है। जो कभी गांव की गलियों में मिट्टी में खेलते थे, अब उन्हीं के हाथों में यंत्र है। खेलने-कूदने की खुशी अब किसी आभासी खेल में बंधी है। धूल में लोटने, नदी में तैरने, और आम के बगीचे में मस्ती करने का आनंद अब किसी इलेक्ट्रानिक गेम में समा गया है। कोमल हाथ अब किताबों के पन्नों की जगह यंत्र की सख्त स्क्रीन पर हैं।

सात जन्मों की शर्त वाले रिश्ते पल भर में तोड़ रहे दम, शहरीकरण ने परिवार के बीच बढ़ाई दूरी

विज्ञान की यह देन केवल सामाजिक ताने-बाने को ही नहीं, बल्कि व्यक्तिगत संबंधों को भी नष्ट कर रही हैं। माता-पिता अपने बच्चों के भविष्य की चिंता में ही इतने उलझे हुए हैं कि वर्तमान की खुशियों का मोल वे जान नहीं पाते। बच्चों की मुस्कान और हंसी अब केवल सोशल मीडिया पर फोटो डालकर प्रसारित होती है। सच यह है कि युग के इस अभिशाप ने प्रेम का भी गला घोंट दिया है। जहां प्रेम पत्रों में दिल की धड़कनों की आवाज सुनी जा सकती थी, वहां अब संदेशों में ‘इमोजी’ की निर्जीव मुस्कान ने अपना स्थान बना लिया है। प्रेम का आदान-प्रदान अब केवल यंत्रों के माध्यम से हो रहा है, जिसमें न वह ऊष्मा है, न वह आत्मीयता। प्रेम की मिठास अब आभासी हृदयों में कैद हो चुकी है।

अब औपचारिकता मात्र रह गए पारिवारिक संबंध

विज्ञान ने हमें सहूलियतें दी हैं, लेकिन उसकी अतिशयता ने हमें हमारी जड़ों से दूर कर दिया है। पारिवारिक संबंध अब औपचारिकता मात्र रह गए हैं। संवेदनाओं का संसार अब केवल यंत्रों की शुष्क स्क्रीन पर सिमट कर रह गया है। जीवन की वास्तविकता कहीं खो गई है और मनुष्य का मानस यंत्रों के हाथों की कठपुतली बन चुका है। गांव का वह मंजर भी अब लुप्त हो गया दिखता है जब बड़े-बुजुर्ग पेड़ की छांव तले बैठकर किस्से-कहानियों में खो जाते थे। अब पेड़ की छांव में बैठने का समय किसी के पास नहीं है। सब जल्दी में हैं, सब भाग रहे हैं। जीवन की भागमभाग ने हमें रुकने का समय ही नहीं दिया। भावनाएं अब केवल आभासी संसार का हिस्सा बन चुकी हैं और हृदय की गहराई में छिपी संवेदनाएं लुप्त हो चली हैं।

माता-पिता और बच्चे सब हो रहे सोशल मीडिया का शिकार, पढ़ाई और सकारात्मक गतिविधियों से हो रहें दूर

समाज में इस तकनीकी विकृति ने केवल व्यक्तियों के बीच दूरियां नहीं बढ़ाई हैं, बल्कि हमारी आस्था, विश्वास और प्रेम की गहराइयों को भी कमजोर कर दिया है। जो रिश्ते कभी आत्मीयता के धागों से जुड़े थे, अब वे केवल संदेशों और फोन काल तक सीमित हो गए हैं। एक वह समय था जब अपनों का हाथ थामने से हृदय की गति बढ़ जाती थी, अब मोबाइल की ध्वनि सुनकर हृदय धड़कता है। मनुष्य की इस दशा पर सोचते हुए मन में एक प्रश्न उठता है कि क्या तकनीकी उन्नति हमारे लिए वरदान है! या कहीं-कहीं इसे जो अभिशाप कहा जाता है, उसका कोई आधार है? क्या इस युग की असहनीय गति ने हमारी वास्तविक खुशी छीन ली है? आज की तकनीकी के चमत्कार, जो सुविधाएं प्रदान कर रहे हैं, उसी ने हमें अपनी संवेदनाओं से भी दूर कर दिया है।

इस युग की सबसे बड़ी विडंबना

जिस युग में हम जी रहे हैं, केवल सुविधाओं की ओर अग्रसर नहीं है, बल्कि मानवता की ओर पीठ मोड़ रहा है। इस विज्ञान की तीव्रता में हमने अपने समय, अपनी खुशियों और अपनी संवेदनाओं को व्यापार बना दिया है। रिश्ते अब स्वार्थों के खेल में बदल चुके हैं और भावनाएं कहीं खो गई हैं। शायद यह समय है, जब हमें ठहरकर सोचने की आवश्यकता है कि क्या हमें तकनीकी युग में मानवता की आहुति देनी चाहिए! किसी ने सच ही कहा है कि तकनीक की उन्नति के साथ ही मानवीयता का अवसान हो रहा है। यही युग की सबसे बड़ी विडंबना है कि हम अपने हृदय की भावनाओं को मशीनों में समाहित करने की कोशिश कर रहे हैं, पर यह कभी संभव नहीं हो सकता। अगर हमने अपने भीतर समय रहते बदलाव नहीं किया तो जीवन में फिर से मानवीयता का संचार नहीं किया, तो वह दिन दूर नहीं, जब मानव स्वयं एक यंत्र बन जाएगा, जिसमें न कोई संवेदना होगी, न हृदय की धड़कन।