बहती हवा-सा था वो, उड़ती पतंग-सा था वो, कहां गया? उसे ढूंढ़ो। सुलगती धूप में छांव के जैसा, रेगिस्तान में गांव के जैसा। मन के घाव पे मरहम जैसा था वो… वो यार हमारा था, वो कहां गया? उसे ढूंढ़ो..’ – इस लोकप्रिय फिल्मी गीत की तरह कुछ लोग वाकई निशुल्क थेरेपी की माफिक होते हैं। ऐसे लोग हमारी-आपकी जिंदगी में आते हैं, हमें संवारते हैं, हमें निखारते हैं, हमें मुस्कान देते हैं, लेकिन बदले में कभी कुछ नहीं चाहते, न मांगते हैं। कब आते हैं और हमारी-आपकी जिंदगी को रौशन करके कब निकल जाते हैं, कई बार पता भी नहीं चलता। ऐसे लोग वाकई अनमोल होते हैं। ऐसा बन पाना मुश्किल तो है, लेकिन हर किसी को सदा ऐसा बनने की कोशिश जरूर करनी चाहिए।

ऐसे बेमिसाल लोग हमारे आसपास होते हैं, तो वे हमें कुछ देते हैं। अगर वे दुनिया में फैले होते हैं तो दुनिया उनसे रोशनी पाती है। उनमें से ही एक महात्मा गांधी भी थे, जिन्होंने भारत को आजादी दिलाने के बाद कुछ नहीं चाहा। वह आजाद भारत की सत्ता में कोई भी उच्च पद ले सकते थे, लेकिन उन्होंने चाहा तक नहीं। इस लिहाज से वे अनमोल थे, उन जैसा कोई दूसरा नहीं था, इसीलिए वे राष्ट्रपिता कहलाए। क्योंकि भारत आजाद कराने में उनकी बड़ी भूमिका थी। बेशक आजादी के करीब साढ़े पांच महीने बाद ही उनकी हत्या कर दी गई।

हमें काबिल लोगों की कद्र नहीं होती

गणमान्य सज्जन ही नहीं, हर छोटी-बड़ी वस्तु जो हमें मुफ्त या बिना भुगतान मिलती है, जब तक हमारे पास होती है, हमें उसकी कद्र नहीं होती। जब वे हमसे दूर जाती हैं, तो हमें उनके अमूल्य होने का अहसास होता है और हम उसे ग्रहण करने के लिए लालायित हो उठते हैं। शेक्सपियर ने एक दफा कहा था, ‘मैं जार-जार रोया था, जब मेरे पास जूते नहीं थे। लेकिन मेरे आंसू थम गए, जब मेरी नजर एक बिना टांगों वाले व्यक्ति पर पड़ी।’ सेहतमंद होना, पैदल चल पाना, खुद खा-पी सकना, अपने छोटे- बड़े काम निपटाना और सांस ले पाना तक विलासिता से कहीं बड़ी कुदरती नियामतें हैं। बावजूद इसके इंसान कुदरती सौगातों की बेकद्री कर, सांसारिक तामझाम जुटाने में लगा रहता है।

शौक बन रही मौत की वजह, सेल्फी लेना हो गया जानलेवा

ईश्वर ऐसे ही हैं और ईश्वर रूपी माता-पिता भी अपनी संतानों के लिए भी ऐसे ही होते हैं। कुदरत बिना शुल्क रिमझिम बरसात देती है, महीनों तपती धरती का चप्पा-चप्पा तर-बतर हो जाता है। जल की बूंदों से धरती ही नहीं, रोम-रोम भी पुलकित हो उठता है। बारिश के पानी से पैदा खेती-बाड़ी से अन्न मिलता है। बादलों से पैदा खुशनुमा ठंडी बहार का अहसास महंगे वातानुकूलित यंत्रों की ठंडक के सुकून से भी ज्यादा बेशकीमती लगता है। चोटियों पर बर्फ की चादरों का भी कुदरत कोई शुल्क नहीं मांगती। कुदरत की देन फल-फूल, सब्जी भी ऐसे ही हैं। अगर बाग-खेत का माली न रोके, तो सब कुछ मुफ्त है। मित्रता भी ऐसा ही सबसे शुद्ध वरदान कहा गया है। मित्र प्रेम का उच्चतम रूप है, जहां कुछ भी नहीं मांगा जाता है। कोई भी शर्त नहीं, जहां कोई बस देने में आनंद लेता है।

कुछ पाने की आशा के बगैर देना और त्याग की भावना

‘जिसकी खुशबू से महक जाए पड़ोसी का घर, फूल इस किस्म का हर सिम्त खिलाया जाए।’ एक कवि ने फूलों की खूबियों का जिक्र कुछ यों किया है। वाकई कुछ पाने की आशा के बगैर देना और त्याग भावना ही हर फूल के जीवन का संदेश है। सुगंध, मधु, मुस्कान और कोमलता बांट- बांट कर ही अपार स्रेह, प्यार और लगाव पाता है। यही जीवन की सार्थकता का मूलमंत्र है। दूसरा पहलू है कि दूसरों से कुछ अपेक्षा न रखने या कुछ न मांगने वालों का कार्य कभी उनकी इच्छा या नीयत के विपरीत हो ही नहीं सकता। रिश्तों को तवज्जो देने का सुनहरा उसूल यही कहता है कि दूसरों से चाह ही नहीं रखी जाए। सच्चे रिश्ते वापसी में कुछ नहीं चाहते। रिश्ते-नाते बिना शर्त सिर्फ देते हैं, लेते कुछ नहीं हैं। जिन्हें अपना समझा जाए, वे खुश और खुशहाल होते हैं, तो बेहद खुशी मिलती है। यही सच्चा रिश्ता है।

हमारी शिक्षा प्रणाली की सबसे बड़ी विडंबना, सीखने के बजाय नतीजों में हासिल अंकों को दिया जाता है अधिक महत्त्व

लंगर की प्रथा को इस बेमिसाल संस्कार का एक बूंद-सा व्यावहारिक स्वरूप मान सकते हैं। लंगर निशुल्क शाकाहारी भोजन का वितरण होता है। सिख धर्म की एक प्रमुख सिखावन है- ‘वंड छको’ यानी मिल बांट कर खाओ। इसे अन्य धर्मों ने भी बढ़-चढ़ कर अपनाया है। अब तो भोजन के अलावा दवा- इलाज तक इस प्रथा के हिस्से हैं। कुछ गृहिणियां अपने खाली दोपहर के बाद के कुछ घंटे घरेलू सहायकों या आस-पड़ोस के जरूरतमंद बच्चों को पूरी लगन और मेहनत से मुफ्त ट्यूशन पढ़ाती हैं। कई दफा तो कापी- पेंसिल का इंतजाम भी खुद से कर देती हैं। इस तरह से पढ़े बच्चे जब अव्वल आते हैं, तो बच्चों का भविष्य निखारने में सहयोग करने वालों को असीम आनंद का अनुभव होता है। ऐसे और जिस परोपकारी काम से आनंद मिले, वही जीवन की सही दिशा होती है। यह भी सच है कि कुछ लोग पहले अच्छे होते हैं, लेकिन उनका असली रूप या चेहरा कुछ वक्त बाद दिखने या महसूस होने लगता है। हालांकि सभी को संदेह की नजर से देखना भी सही नहीं होता।