तेजी से भागते वक्त और बदल रही दुनिया में क्या कभी हमने सोचा है कि आधुनिक युग की भागदौड़ में हमारे पीछे कुछ छूटा जा रहा है? तकनीक के फैलते जाल में हम बेबस से फंसते जा रहे हैं। बाहर चमक है और अंदर अंधेरा भरने लगा है। हमें पता नहीं कि कुछ अमूल्य-सा हम खोते चले जा रहे हैं। वह अमूल्य धन है- संवेदनशीलता, संवाद और भाईचारा। कई बार लगता है कि हम इतनी दूर निकल आए हैं कि लौटना संभव नहीं है। मगर यह सोचने की जरूरत है कि वास्तव में हम हैं कहां? इस तकनीकी युग में समाज तेजी से बदल रहा है। अच्छा है या बुरा, कहा नहीं जा सकता। इसके सापेक्ष सोच सकते हैं।
हमारे क्रियाकलाप, रहन-सहन के तौर-तरीके बदल रहे हैं, पर संवाद की मिठास और दिलों के बीच दूरी बढ़ती जा रही है। संबंधों के बीच दरारें खाइयां बन रही हैं। कुछ समय पहले नासिक से दिल तोड़ने वाली एक तकलीफदेह घटना सुनने को मिली, जिसने देशवासियों के दिलों को झकझोर कर रख दिया। एक अठहत्तर वर्षीय सेवानिवृत्त प्राचार्य ने अपनी छिहत्तर वर्षीय पत्नी की हत्या कर दी और स्वयं आत्महत्या कर ली। दोनों ही जाने-माने नाम थे। कभी उन्होंने अपने विद्यार्थियों को जीवन के पाठ पढ़ाए होंगे। बहुत सारे विद्यार्थियों का चरित्र गढ़ा होगा। मगर आखिर उन्होंने क्या किया?
अकेलेपन का शिकार हो रहे हैं बुजुर्ग
सवाल है कि क्या इसे हम आत्महत्या का एक प्रकरण मानकर भुला सकते हैं? शायद नहीं! समाज में गहराती असंवेदनशीलता की एक दुखदायी छाया है यह घटना। क्या हम इस सन्नाटे को समझ रहे हैं? कायदे से देखें तो यह घटना हमें चेताने आई है। यह वही देश है, जहां कभी तीन पीढ़ियां एक साथ एक छत के नीचे रहती थीं। यह वही समाज है जहां बुजुर्गों को अनुभवों का भंडार कहा जाता था। पर इस वक्त बुजुर्ग अकेलेपन का शिकार हो रहे हैं। जीवन संध्या में अभी उन्हें अपनों के सहारे की जरूरत है। वे अपने घर के दरवाजे को इस आशा से देखते हैं कि कोई दरवाजे की कुंडी खटखटाएगा।
यह वक्त केवल आर्थिक उन्नति का ही नहीं है, बल्कि चमकती अर्थव्यवस्था के बीच सामाजिक संबंधों में गिरावट का भी है। हमारे पास मोबाइल में सैकड़ों संपर्क सूत्र हैं, पर दिल से दिल का जुड़ाव नहीं है। हम पाते हैं कि सैकड़ों लिखित संवादों में किसी की किसी से वास्तविक दिलचस्पी नहीं है। किसी को अपना वक्त देना कोई जरूरत नहीं है। यह एक जवाबदेही है। किसी बच्चे के चेहरे पर मुस्कुराहट देखना। किसी बच्चे की जिज्ञासा शांत करने के लिए उसे जवाब देना और अपने दिल की आवाज सुनना। ये बातें हैं जो हमारे समाज को सुंदर बनाती हैं। कभी-कभी किसी की आंखों में झांककर देखें तो हम पाएंगे कि हम उनकी आशा की एक किरण हैं।
बातचीत की संस्कृति को फिर से करें पुनर्जीवित
आज हमारे पास क्या नहीं है? सब कुछ है, स्मार्टफोन है, टीवी है, पर अच्छे संबंध नहीं हैं। बुजुर्गों के पास अनुभव है, समय है, किस्से-कहानियां हैं, पर उन्हें सुनने वाला कोई नहीं। बच्चों के पास सवाल हैं, उत्साह है, भावनाएं हैं पर कोई समझने वाला नहीं। जिन बुजुर्गों ने अपना पूरा जीवन अपने बच्चों के लिए न्योछावर कर दिया, आज वे अपने बच्चे के लिए भार लगते हैं। उनके ज्ञान को दकियानूसी कहकर कचरे की तरह साफ कर दिया जाता है। किसी ने कहा है कि यह बड़े दुख की बात है कि कोई आपके सामने खड़ा है और आप अकेलापन महसूस कर रहे हैं। हम निर्जीव चीजों के धनवान हैं। मसलन पैसा, कार, मकान आदि, पर हमारा भावनात्मक पक्ष दिवालिया हो रहा है।
इन निर्जीव चीजों के लिए हमारी प्यास दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। महत्त्वाकांक्षाओं की हमारी उस भूख का अंत आखिर कहां है? क्या हम खुद को खत्म करने की कीमत पर उसे पूरा करने के सपने में लीन हो रहे हैं। हम अपने बच्चों को महंगे से महंगे स्कूल में दाखिला दिलाते हैं, पर कभी हमने उन्हें यह पाठ नहीं पढ़ाया कि दादा-दादी को सुनना भी बहुमूल्य शिक्षा है।
जीवन की गहराइयों में छिपी होती है उत्साह और खुशी, उत्सव की तरह जीनी चाहिए जिंदगी
अभी वक्त है और इसमें थोड़ा ठहरकर सोचने की जरूरत है। किसी का कंधा किसी के सिर का सहारा बन सकता है। दिल से आ रही एक मुस्कान किसी के दिल के बोझ को हल्का कर सकती है। अपने बड़ों के गले लगें। जमीन पर बैठकर बच्चों के साथ खेलें। बिना वजह किसी मित्र को अपने घर बुलाएं। किसी के अकेलेपन का हिस्सा बनने में कोई कीमत नहीं चुकानी पड़ती। बस उस जगह पर कभी खुद को रख कर अपने बारे में और उन परिस्थितियों के बारे में विचार करें। आसानी से बहुत कुछ समझ में आ जाएगा। किसी को बधाई संदेश भेजने का तरीका बदल दिया जाए। आभासी गुलदस्ता भेजने की बजाय फोन पर बधाई दी जाए। दिल से निकले शब्द कागज पर लिखे शब्दों की तुलना में ज्यादा प्रभावी होते हैं। तो वार्तालाप की उस असली संस्कृति को पुनर्जीवित क्यों न करें? अगर यह वक्त अकेलेपन में गुजर गया तो उसका सन्नाटा हमेशा कानों में गूंजता रहेगा।