फागुन आ गया है। ढोलक और चंग की थाप हवा में गूंज रही है। फागुन पर कभी होली, ठुमरी और राजस्थान में खयाल गाए जाते थे। फागुन में होली गीतों में भी गालियों के गायन की परंपरा रही है। हमारे समाज में गालियां जिस रूप में रही हैं, उनका मकसद जो रहा है, उसमें गालियों का समर्थन नहीं किया जा सकता। हालांकि सिर्फ मनोरंजन और शुद्ध सात्विक भाव से गालियों के बिना भी मजाक किया जा सकता है और यह आनंद का जरिया बन सकता है।
इसी तरह उलाहने और ताने के बजाय जली-कटी हो, तो वह सद्भाव के माहौल को बाधित करता है। अब आजादी के इतने दशकों के उपरांत हम एक सभ्य और संस्कृतिशील समाज की जगह अपसंस्कृति के शिकार होते जा रहे हैं, तो यह हम सबके लिए सोचने की बात है। अपनी अभिव्यक्ति की आजादी का हम रचनात्मक उपयोग कम, उसका विध्वंसात्मक और कुत्सित उपयोग अधिक कर रहे हैं।
समय के साथ-साथ खत्म होती गई परंपरा
फागुन में कहे-सुने का कोई बुरा नहीं मानता। हास्यपरक टिप्पणी की जाती है। लेकिन इन दिनों होली के मौके पर गालियों में एक किस्म की विकृत मानसिकता झांकती दिखाई देती है।
कुछ वर्ष पहले तक पत्र-पत्रिकाओं के होली विशेषांक आया करते थे। पर लगता है समय के साथ-साथ यह परंपरा खत्म होती गई है, लोकतंत्र, अभिव्यक्ति और सहिष्णुता का मोर्चा कमजोर हुआ है। आज के राजनेता और शासक अपने ऊपर बने कार्टून और तंज या व्यंग्य को बर्दाश्त नहीं कर पाते। सोशल मीडिया पर या तो व्यापार है या फिर वहां कई वजहों से टिप्पणियों को बाधित या प्रतिबंधित कर दिया जाता है। तंज और व्यंग्य के जरिए आगे की राह देखने वाला हमारा समाज आज आहिस्ता आहिस्ता एक गाली प्रधान समाज में तब्दील होता जा रहा है।
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ओटीटी चैनल और हास्य प्रधान कार्यक्रम इसके ज्वलंत उदाहरण हैं, जिन्होंने कमजोर साइबर कानून का भरपूर फायदा उठाया है। ओटीटी चैनलों पर तो इतनी नग्नता और अश्लीलता भरी पड़ी है कि कोई परिवार के संग, ढंग से बैठकर धारावाहिक देख नहीं सकता। हास्य कार्यक्रम में माता-पिता पर भद्दी टिप्पणियां की जाती हैं। इससे रिश्तों की गरिमा न केवल तार-तार हो रही है, बल्कि लिहाज का पर्दा भी समाप्त हो रहा है। आपसी मर्यादा भंग हो रही है।
इस वजह से फिल्मों में हो रहे हैं बोल्ड सीन
लोकप्रियता और ज्यादा प्रसिद्धि या प्रचार पाने का यह खेल भारतीय समाज को ‘बोल्ड’ या आधुनिक नहीं, असभ्य और असांस्कृतिक समाज के रूप में तब्दील कर रहा है। समाज और सत्ता तंत्र के कुछ हिस्से में गालियां बेहिचक बोलने का चलन-सा है और उसे सहजता से लिया जाता है। युवाओं के बीच आपसी बातचीत में कई विदेशी के साथ-साथ देशी गालियां दोस्ती-यारी में दे दी जाती हैं। इसका सबसे दुखद पक्ष यह है कि अधिकतर गालियां स्त्रियों के शरीर को लक्षित करके दी जाती हैं, जो पुरुषों की कुत्सित मानसिकता और पुरुषवादी समाज का कुरूप चेहरा भी बताती हैं।
किसी भी सभ्य समाज की पहचान परस्पर शालीन आचरण और सहअस्तित्व की भावना तथा स्वीकार्यता से होती है। दूसरों को लक्षित करके की गई टिप्पणियां और गालियां, चाहे वह लिंग आधारित हों या जातीय या नस्लीय श्रेष्ठता का वर्चस्व स्थापित करने वाली। उससे न केवल आपसी मनमुटाव बढ़ता है, बल्कि कटुता का वातावरण बनता है। कलाकारों, लेखकों और शिक्षित समाज का काम है समाज को सुसंस्कृत और वैचारिक रूप से समृद्ध बनाना, न कि आग में घी डालकर अपने हितों को तथाकथित फिल्म निर्माताओं की तरह पूर्ण करना।
कम होती जा रही है भाषा की गहराई
हालात यहां तक बदतर हो चुके हैं कि राजनीतिक हलकों में भी कई बार अपशब्दों का प्रयोग कर दिया जाता है। यह हमारे राजनीतिक नेतृत्व की अपरिपक्वता और असंयम का उदाहरण तो है ही, सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करने का संक्षिप्त रास्ता भी है। सदनों में कई-कई दिनों तक गतिरोध की स्थिति रहती है और लाखों रुपए जाया होते हैं। जनता के हित के विषय, बिना तार्किक निष्कर्षों के या तो पारित हो जाते हैं या लटके रह जाते हैं। भाषणों और चुनावों में तो जिस तरह की हल्की और आपत्तिजनक भाषा, बयानों और टिप्पणियों का प्रयोग एक दूसरे के खिलाफ होता है, वह भारतीय राजनीति को शर्मसार करने के लिए पर्याप्त है। अफसोस की बात है कि आज समाज और संसार अपने ज्यादा सभ्य और आधुनिक होने का दावा कर रहा है, विकास के साथ-साथ आगे बढ़ने के नए मानक पेश किए जा रहे हैं, लेकिन विचार-विमर्श के स्तर में गिरावट हो रही है, भाषा की गहराई कम होती जा रही है।
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जाहिर है, इसी के साथ-साथ लोगों के सोचने-समझने और मानसिक स्थिति में भी गिरावट आ रही है। हास्य और व्यंग्य के नाम पर अपने बरक्स या समांतर खड़े किसी व्यक्ति, समूह या वर्ग को अपमानित करने या उसके प्रति दुराग्रह से भरी धारणा का निर्माण करने वाली बातें की जाती हैं। इस सबको किस तरह समानता का संदेश कहा जाएगा? सवाल है कि इस तरह के विचार और व्यवहार की बुनियाद पर खड़े समाज का ढांचा भविष्य की पीढ़ियों के लिए क्या छोड़ेगा। हर तरफ गालियों, कटुक्तियों, निंदा और आलोचना का बाजार गर्म है और इसकी उठती लौ में स्वस्थ हास्य, बौद्धिक विमर्श और चिंतन देने वाला व्यंग्य कोने में पड़ा कहीं कराह रहा है… उसका पूछनहार कोई नहीं।