जीवन एक बहती हुई नदी की तरह है, जो हमें अपनी धारा में बहाकर किसी अज्ञात, अनंत दिशा की ओर लिए जा रही है। यह यात्रा सतत है, अविरल है, पर हम इस भौतिक संसार के आकर्षणों में ऐसे उलझ जाते हैं कि न हमें अपनी गति का बोध होता है, न दिशा का और न ही उस ध्येय का, जिसकी ओर यह जीवन प्रवाहित हो रहा है। मनुष्य की चेतना जब भौतिकता और अहंकार के जाल में बंध जाती है, तब वह स्वयं को उन्हीं गुणों और वासनाओं में समाहित कर लेता है, जिन्हें वह अपनी पहचान मान बैठता है। यह जीवन मात्र सांसारिक उपलब्धियों या इंद्रिय सुखों की प्राप्ति का नाम नहीं है, बल्कि यह एक अंत:यात्रा है- आत्मा की चेतना से महाचेतना की ओर। एक अनंत यात्रा, जिसमें आत्मा प्रयास करती है स्वयं को पूर्ण करने का, लेकिन हम अपने ही अहंकार, अपनी ही अपेक्षाओं और तुच्छ इच्छाओं के बोझ से उसकी गति को रोक देते हैं। परिणामस्वरूप चेतना की यह यात्रा अधूरी रह जाती है और उसे फिर एक नवीन जन्म, एक नई परिस्थिति, एक नई पीड़ा में प्रवेश करना पड़ता है।
मानव जीवन की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि हम अपने सुख और दुख को ही अंतिम सत्य मान बैठते हैं। हम दूसरों के जीवन को देखकर उनकी सुख-संपदा का अनुमान लगाते हैं और अपने दुखों की तुलना करते हुए खुद को भाग्यहीन समझते हैं। लेकिन इस तुलना की प्रवृत्ति ही हमें वास्तविक चेतना से दूर ले जाती है। हम भूल जाते हैं कि सुख और दुख, दोनों ही जीवन की माया हैं- परिवर्तनशील, क्षणिक और आखिरकार शून्य में विलीन होने वाले। हालांकि यह सही है कि जीवन को जीने के क्रम में सुख और दुख न केवल हमारे सोचने-समझने की प्रक्रिया और मनोस्थिति को, बल्कि हमारी रोजमर्रा की गतिविधियों तक प्रभावित करते हैं और हम अपनी क्षमता, सुविधा और आग्रह के मुताबिक उन स्थितियों से निपटते हैं।
मनुष्य को भीतर से झकझोरता है विपत्ति का समय
अगर हम गहराई से विचार करें तो पाएंगे कि दुख, जिसे हम सर्वाधिक दूरी बरतने योग्य मानते हैं, वही जीवन का सबसे बड़ा गुरु बन सकता है। विपत्ति का समय मनुष्य को भीतर से झकझोरता है, उसे उसके असली स्वरूप से परिचित कराता है। दुख में डूबा व्यक्ति जब अपनी सारी बाह्य आसक्ति खो बैठता है, तभी वह भीतर की ओर मुड़ता है। यह ‘आवक यात्रा’ ही उसे आत्म-चिंतन, आत्म-परीक्षण और आत्म-साक्षात्कार की ओर ले जाती है। दुख उसे उसके अचेतन में छिपी उस ऊर्जा से मिलाता है, जिसे वह सामान्य अवस्था में कभी पहचान ही नहीं पाता।
परिवर्तन कोई कमजोरी नहीं बल्कि हमारी मानसिक परिपक्वता का है प्रमाण
बौद्ध मत में यह बात अत्यंत स्पष्ट रूप से कही गई है कि जीवन दुखमय है और दुखों से मुक्ति ही मोक्ष का मार्ग है। ‘चार आर्य सत्य’- दुख, दुख का कारण, दुख की निवृत्ति और दुख निवृत्ति का मार्ग, इस संपूर्ण दर्शन को समाहित कर लेते हैं। यह केवल एक धार्मिक अवधारणा नहीं, बल्कि एक गहरी जीवन-दृष्टि है, जो हमें सिखाती है कि जीवन का मूल उद्देश्य दुखों से भागना नहीं, बल्कि उन्हें समझकर उनके पार जाना है। इतिहास और समाज के पन्नों पर अगर दृष्टि डालें, तो पाएंगे कि जिन महान पुरुषों ने जीवन में अद्वितीय स्थान प्राप्त किया है, उनमें से अधिकांश ने अपने सबसे कठिन और कष्टप्रद समय में ही अपने भीतर की शक्ति को पहचाना। वह कष्ट ही उनकी चेतना के द्वार खोलने वाला कारण बना। इस प्रकार से देखा जाए तो दुख मात्र पीड़ा नहीं है, वह एक अवसर है, आत्म-चेतना के विस्तार का, आत्मा को महात्मा में रूपांतरित करने का।
दुख मात्र पीड़ा नहीं है, वह आत्म-परिवर्तन का माध्यम है
यह जीवन एक ऐसा ताना-बाना है, जिसमें हर घटना, हर अनुभूति, और हर संघर्ष हमें एक बिंदु की ओर ले जा रहा है- शून्यता। हम जितना बाहर की ओर भागते हैं, उतना ही भीतर की यह शून्यता हमें पुकारती है। दर्शनशास्त्र कहता है- ‘शून्य से ही सबकी उत्पत्ति होती है और शून्य में ही सबका विलय होता है।’ यह शून्य मात्र रिक्तता नहीं है। यह उस परम सत्य का नाम है, जिसमें सृष्टि की संपूर्ण गति विलीन होती है। यह वही शून्यता है, जिसे उपनिषदों ने ‘ब्रह्म’ कहा, जिसे बौद्ध मत ने ‘शून्य’ कहा और जिसे साधक ‘अनंत’ कहकर साधना करते हैं।
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मनुष्य अगर इस गूढ़ तथ्य को समझ सके कि दुख और सुख, दोनों ही उसे उसी परम सत्य की ओर ले जाने वाले साधन हैं, तो न वह सुख में मोहित होगा, न दुख में टूटेगा। वह इन दोनों अवस्थाओं में समत्व भाव रखते हुए अपनी चेतना को निर्मल बनाए रख सकेगा। सुख के मोह में दुखी होने वाले और दुख की पीड़ा में बचा-खुचा सुख गंवा देने वाले लोग हमारे आसपास मिल जाएंगे। हालांकि सुख और दुख की समत्व की अवस्था ही योग की, भक्ति की और आत्मा की मुक्ति की ओर पहला कदम है। जीवन तब एक संघर्ष नहीं रह जाता, बल्कि एक लीला बन जाता है, जिसमें प्रत्येक पल एक नई शिक्षा है, एक नई दृष्टि है।
यह कहना अनुचित नहीं होगा कि जीवन दुख और सुख की नहीं, चेतना और शून्यता की यात्रा है। यह यात्रा जितनी गहन होगी, उतना ही अधिक हम अपने वास्तविक स्वरूप से परिचित होंगे। दुख मात्र पीड़ा नहीं है, वह आत्म-परिवर्तन का माध्यम है। चेतना का अंतिम लक्ष्य भौतिक बंधनों से परे जाकर उस शून्य में विलीन होना है, जहां न कोई सुख है, न दुख। वहां केवल शांति है, पूर्ण, निराकार और अनंत। यही मोक्ष है, यही जीवन का सार है।