समाज की कुछ विडंबनाएं हमेशा हमारे सामने होती हैं, जिसे हम अक्सर अनदेखा कर देते हैं। मगर जब कभी स्थिर मन से हम इस पर विचार करने लगते हैं, तब जाकर लगता है, सचमुच ये कैसी विडंबनाएं है, जो हमारे आसपास होते हुए भी हमसे दूर ही रहीं। ऐसा होना नहीं चाहिए था, लेकिन होता रहा और हम जाने-अनजाने उसे समझ सकने या उसे रोक पाने में असमर्थ रहे या हमने सचेतन उसे रोका नहीं। इसे एक उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है कि एक मजदूर एक कुंतल वजन अनाज के बोरे को उठा सकता है, लेकिन उसकी आय और क्रयशक्ति इतनी नहीं है कि जरूरत होने पर भी वह आसानी से उसे खरीद सके। दूसरी ओर, जो व्यक्ति आसानी से एक कुंतल अनाज के बोरे को खरीद सकता है, वह उसे उठा नहीं पाता। पैठणी साड़ी के एक-एक धागे को बुनने वाली मजदूर महिला उसे खरीद नहीं सकती। वह साड़ी उसके हाथों में होती है और अगर उसके पास कहीं होती है तो बस उसके सपनों में। हाथों की लकीरें सपनों को बुनने का ही काम कर सकती हैं।

इसी तरह कुछ और विडंबनाएं हैं। जैसे लाखों के गहने बनाने वाले कारीगर उसे चाहकर भी खरीद नहीं पाते। वे गहने उनके हाथों से फिसलकर दूसरे हाथों तक पहुंचते हैं। मकान बनाने वाले कारीगरों का भी यही हाल है। कई मंजिला इमारत बनाने वाले कहीं झोपड़ी में ही रहते हैं। उनकी झोपड़ी का आसमान पास की ऊंची-ऊंची इमारतों से भी बड़ा होता है। ऊंची इमारतें उनके लिए नहीं होती हैं। बल्कि जिन इमारतों को उन्होंने अपनी मेहनत से बनाया होता है, तैयार हो जाने के बाद उन इमारतों के परिसर में उनका प्रवेश प्रतिबंधित या शर्तों पर आधारित होता है। यह कैसी व्यवस्था है कि जिनके हाथों की वजह से हमारी जिंदगी आसान होती है, देश का निर्माण होता है, वही कई बार न्यूनतम सुविधाओं से भी वंचित होते हैं।

अपने ही शिक्षक को बताते हैं ज्ञान

बहरहाल, ये तो हुई सपनों की बातें। अब अगर इसे ही सच्चाई के धरातल से देखें तो हमें ककहरा पढ़ाने वाले शिक्षकों से आज हम बहुत ही आगे हैं। न केवल धन से, बल्कि कई स्तर पर ज्ञान से भी। पुराने शिक्षक जब मिलते हैं, तब अपनी उपलब्धि बताते हुए हम गर्व से भर उठते हैं। उस वक्त हम यह भूल जाते हैं कि हमारी इस ज्ञान की इमारत की बुनियाद में उसी शिक्षक का ककहरा होता है। कुछ इसी तरह की विडंबनाओं से होकर हमारा समाज गुजरता है। चूंकि हम भी समाज के ही एक अभिन्न अंग हैं, इसलिए यह आवश्यक हो जाता है कि हम इन विडंबनाओं को समझें कि आखिर यह स्थिति आई ही क्यों?

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सामाजिक प्राणी होने के नाते भी हमें यह समझना होगा कि समाज के विकास में हमारा क्या योगदान है? देखा जाए, तो आज हम अपने समाज के विकास में कोई योगदान नहीं कर रहे हैं। चंदे के रूप में केवल बड़ी धनराशि दे देने से ही समाज का विकास नहीं हो सकता। इसके लिए चाहिए मानव श्रम। यह भी सच है कि मानव श्रम उसी धनराशि से खरीदा जा सकता है, पर इससे बात नहीं बनती। समाज के समग्र विकास के लिए उसे चाहिए तन-मन और धन से उसकी सेवा। धन देने के लिए सभी तैयार होते हैं, पर तन-मन देने के लिए कुछ लोग ही सामने आते हैं। जब ये लोग मिलकर समाज के लिए काम करते हैं, तो एक सर्वहारा वर्ग तैयार होता है। यही वर्ग आगे चलकर समाज का प्रतिनिधित्व करता है।

संतोषी जीव बहुत ही थोड़े में अपना जीवन निर्वाह कर लेते हैं

वास्तविक अर्थों में समाज का यही वर्ग हर जगह दिखाई देता है। स्वतंत्रता के पहले कुछ लाख अंग्रेजों ने करोड़ों लोगों पर शासन किया। धनाढ्य वर्ग सदैव अपने से नीचे तबके के लोगों पर शासन करता आया है। इनकी छत्रछाया में सारे कार्य संपादित होते हैं। मूल कार्य इसी छोटे तबके के हिस्से में आता है और वे इसे कुशलतापूर्वक कर भी लेते हैं। एक तरह से यह संतोषी जीव होते हैं। बहुत ही थोड़े में ये अपना जीवन निर्वाह कर लेते हैं। इनकी इच्छाओं का आकाश बहुत ही छोटा होता है। इस आकाश के नीचे वे सभी समा जाते हैं। दूसरी ओर अनंत इच्छाओं के मालिक अपनी अपार संभावनाओं के चलते इस वर्ग को अपने साथ लेकर सामाजिक कार्य में अपना योगदान देते हैं।

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धनाढ्य वर्ग को समाज के विद्रूप दिखाई नहीं देते। अगर कोई विद्रूप दिखाई देता भी है, तो वे इसे अनदेखा कर देते हैं। इन्हीं विद्रूपों में छिपी होती है विडंबनाएं, जो दिखाती हैं समाज का असली चेहरा। इस सच से कोई इनकार नहीं कर सकता कि जो सच्चा होता है, हमारी दुनिया उसके लिए बहुत कम निर्धारित करती है, लेकिन जो अच्छे लोग उसका साथ देते हैं। मगर जो झूठा होता है, उसे मिलता तो बहुत कुछ है, पर उसके कठघरे में खड़ा होते ही आमतौर पर लोग उसका साथ नहीं देते। इसलिए विडंबनाओं पर जाने की जरूरत नहीं है। यह देखना चाहिए कि भले लोग, नैतिकता और प्रकृति किसके साथ है? जिसके साथ ये सब हैं, वह सुखी मानव है। जो इससे वंचित हैं, वे माया को ही ईश्वर मानते हैं और उसे ही बटोरने में लगे रहते हैं। यहां हम ईश्वर को प्रकृति भी कह सकते हैं। हमें इसकी उदारता की ओर देखना चाहिए। प्रकृति का उदारमना होना ही हमें अच्छे कार्य करने की प्रेरणा देता है।