एक छोटे से पार्क में दस-बारह साल के पांच-सात बच्चे खेल रहे थे। आज के समय में जब हर बच्चा मोबाइल में घुसा हुआ है, ऐसे समय में इन बच्चों को पार्क में खेलते देखना कई लोगों के लिए एक सुखद आश्चर्य था। आधुनिक जीवनशैली में घुले और रच-बस गए लोग सोच सकते हैं कि इसमें सुखद आश्चर्य वाली कौन-सी बात है! बच्चे तो पार्क में खेलते ही हैं। मगर सुखद आश्चर्य इस बात का था कि बच्चे एक पेड़ के नीचे कांच की गोलियों से खेल रहे थे। यह खेल एक प्रकार से हमारा देसी खेल है। आमतौर पर उत्तर भारत के गांव-कस्बों में नवंबर से मार्च तक और अन्य महीनों के दौरान भी सुविधानुसार बच्चे बड़े चाव से कांच की गोलियां खेलते हैं। बच्चों को इस प्रकार खेलता देख हममें से कइयों को अपना बचपन याद आना स्वाभाविक ही है और जब बचपन याद आए तो बचपन के खेल भी याद आएंगे।

कांच की गोलियों के साथ-साथ ‘सितौलिया’ या ‘पिट्ठू’ बहुत सारे वैसे बच्चों का प्रिय खेल होता था, जो आज बड़े हो गए हैं और आधुनिक वीडियो गेम को ही खेल मानते होंगे। यह एक ऐसा खेल है जो भारत के अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग नामों से खेला जाता है। सात पत्थरों को बड़ी मेहनत से तराश कर गोल पिट्ठू बनाए जाते। फिर कपड़े की एक गेंद तैयार कर पांच-सात मित्रों के साथ खेला जाता। एक के ऊपर एक पिट्ठू जमा कर गेंद से पिट्ठू गिराई जाती।

दिमाग और शारीरिक चपलता का अद्भुत मिश्रण था खेल

दिमाग और शारीरिक चपलता का अद्भुत मिश्रण था यह खेल। उस समय के लोग ‘छुपम छुपाई’ या ‘आइस-पाइस’ को कैसे भूल सकते हैं? दिन में तो खेलते ही थे, लेकिन अक्सर संध्या के मद्धिम अंधेरे में इस खेल का आनंद अलग ही होता था। जब सारे मित्र निर्धारित क्षेत्र में छिप जाते और कोई एक उन्हें ढूंढ़ता। साथियों को ढूंढ़ने और ‘धप्पा’ करने में जो आनंद और सुख की अनुभूति होती थी, उसको शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता। वह तो बस खेलने वाला ही जान सकता है।

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एक खेल में एक साथी अपने एक पैर को उठाकर एक पैर से चलकर या दौड़कर अपने साथियों में से किसी एक को पकड़ने की कोशिश करता था। बाकी साथी दांए-बांए होकर, दौड़कर न केवल अपने आपको बचाते, बल्कि पकड़ने वाले बच्चे को छेड़ते। उसके सिर पर या पीठ पर हल्की-फुल्की चपत लगाते। ‘धरणी डंका’, जिसमें एक पेड़ के नीचे गोला बनाकर एक छोटे से डंडे को पैर के नीचे से फेंका जाता था। एक साथी जब तक डंडा उठाकर लाता, तब तक बाकी साथी पेड़ पर चढ़ जाते। डंडा उठाकर लाने वाला डंडे को गोले में रखकर पेड़ पर चढ़कर किसी साथी को पकड़ने या छूने की कोशिश करता। बाकी बच्चे पेड़ से कूदकर डंडा उठाकर फिर फेंकने की कोशिश करते। बड़ा ही मजेदार खेल था।

इंटरनेट और मोबाइल ने सब कुछ को ग्रास लिया

इनके अतिरिक्त पोसम पा, हरा समंदर गोपीचंदर, घोड़ा जमाल खाई, पकड़म पकड़ाई, गुल्ली-डंडा, गुट्टे, भर-चर, स्टापू या पहलक-दुहलक, कापी में क्रास-जीरो, खाने बनाना, अंत्याक्षरी आदि कितने ही ऐसे खेल थे जो हमारी दिनचर्या के अनिवार्य अंग थे। अंत्याक्षरी कभी गीतों की, तो कभी दोहों-पदों की, कभी अंग्रेजी की वर्तनी की तो कभी गांव, शहर और देश के नामों की होती। अच्छी बात यह थी कि ये सारे ऐसे खेल थे, जिनमें लड़के-लड़कियों के बीच भेदभाव नहीं था। सभी मिलकर ये खेल खेलते।

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उन खेलों की विशेषता यह थी कि इनसे शरीर के साथ-साथ दिमागी कसरत भी खूब होती। सामान्य ज्ञान भी खूब बढ़ता। इनके अतिरिक्त खो-खो, कबड्डी, फुटबाल, किक्रेट आदि भी साथ-साथ चलता रहता। फिर क्रिकेट की ऐसी आंधी आई जिसमें सभी खेल लगभग उड़ते दिखाई दिए। रही-सही कसर टीवी और वीडियो गेम ने पूरी कर दी। आगे चलकर इंटरनेट और मोबाइल ने सब कुछ को ग्रास लिया। हम लाख दावा करें हमारी शिक्षा प्रणाली में सुधार का, लेकिन पिछले पंद्रह से बीस सालों में पढ़ाई-लिखाई का जबरदस्त तनाव और दबाव भी बच्चे झेल रहे हैं और यह कम होने के स्थान पर बढ़ ही रहा है। अगर आज की बात करें तो टीवी, इंटरनेट, मोबाइल और पढ़ाई-लिखाई के दबाव ने मिलकर बच्चों से उनका बचपन छीन लिया है।

स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है

आज जिसे भी देखा जाए, चाहे वह बच्चा हो, युवा हो, अधेड़, बुजुर्ग, सभी मोबाइल के अंदर झांकने में लगे हैं। बच्चे तो इसके सबसे ज्यादा शिकार हो रहे हैं। उचित शारीरिक और मानसिक विकास के लिए बचपन सबसे प्रभावी उम्र होती है। कहा जाता है कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है। ऐसे में खेल बच्चों के लिए बेहद अनिवार्य है। पर आज का बच्चा शिक्षा का दबाव झेल रहा है। आज का समय ऐसा हो गया है कि माता-पिता दोनों को कमाने के लिए निकलना पड़ता है। थके-हारे जब लौट कर आते हैं तो बच्चे परेशान न करें, इस डर से वे बच्चों को मोबाइल पकड़ा देते हैं। मोबाइल में तरह-तरह के रील, गेम और अश्लील सामग्री देखकर बच्चा भटक जाता है। वह हिंसक प्रवृत्ति का हो जाता है। अपने ही परिवार, पड़ोसी, मित्रों से कटने लगता है। उसमें सामाजिकता और संवेदनशीलता कम होती जाती है। ये देखकर तो और बुरा लगता है जब गली-मुहल्ले के बच्चे आपस में एक-दूसरे को नहीं जानते या कम जानते हैं।

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जबकि खेलों से बच्चे शारीरिक और मानसिक रूप से मजबूत बनते हैं। उनमें स्वस्थ प्रतियोगिता, सहयोग, सामाजिकता, सहायता, मित्रता आदि की भावना पनपती है। बच्चे जीत और हार, दोनों के लिए एक जैसे तैयार रहते हैं। उनमें खेल भावना विकसित होती है। इसलिए बच्चों पर से पढ़ाई-लिखाई का दबाव कम करना चाहिए। जितना हो सके उन्हें मोबाइल से दूर रखना चाहिए और उन्हें शारीरिक खेलों के लिए प्रेरित करना चाहिए।