प्रेम पाने और देने की क्षमता का खत्म हो जाना एक बड़ी मानवीय त्रासदी है, पर इससे भी बड़ी त्रासदी है लोभ के सहारे और भय दिखाकर प्रेम बटोरने की कोशिश, या फिर प्रेम की जगह सम्मान पाने की कोशिश। इस कोशिश में लगे लोग आखिरकार बड़े मायूस, लाचार और उग्र भी हो जाते हैं। प्रेम पाने के ये रास्ते बहुत दूर तक ले ही नहीं जाते। बेहतर यही है कि विनम्रता के साथ घटते हुए प्रेम को देखा जाए, इसे स्वीकार किया जाए, उसके कारणों की पड़ताल की जाए। उसकी जगह ऐसा कुछ न रखा जाए जो प्रेम है ही नहीं। प्रेम का कोई विकल्प नहीं।
जिसे हम प्रेम कहते हैं, उसमें अनगिनत पेचीदगियां हैं। प्रेम पाने, प्रेम व्यक्त करने, बांटने की तलब सभी के मन में कुलबुलाती है। यह चाहत बड़ी स्वाभाविक और कुदरती है। कई तरह की विरोधाभासी भावनाओं के गलियारों में टहलते मन में भी प्रेम की ख्वाहिश कहीं न कहीं रेंगती रहती है। बच्चों में भी मां-बाप और अपने हमउम्र बच्चों के साथ रहने, उनके सान्निध्य में रहने की प्रवृत्ति देखी जा सकती है। आशिक और माशूका में तो विसाले-यार की चाहत होती ही है। हर देश का साहित्य प्रेम कविताओं से लबालब भरा पड़ा है। यह भौतिक, मानसिक, मनोवैज्ञानिक और आत्मिक, हर स्तर पर महसूस होने वाली भावना है, जो हमारी समूची मनोदैहिक संरचना को प्रभावित करती है। कुछ लोग एकतरफा प्रेम की आग में भी जलते हैं और दोपहर की धूप में माशूका को नंगे पांव देख कर ही खुश हो जाते हैं। किसी जमाने में बस इतना ही काफी हुआ करता था।
प्यार में केवल आनंद नहीं होता
प्रेम के बारे में एक और खास बात यह है कि इसमें सिर्फ आनंद की अवस्था नहीं बनी रहती। जल्दी ही यह एक लत सरीखा बन जाता है। पहले और अधिक सुख पाने की कामना और फिर उसके न मिलने पर दुख, गुस्सा और ईर्ष्या पैदा होती है और आखिर में कुंठा, क्रोध, हिंसा और प्रतिशोध का भाव आता है। कई बार दोनों लोग बच जाते हैं और प्रेम वहां से खिसक लेता है। प्रेम भी एक किस्म के विरह या अलगाव से ही शुरू होता है। विभाजन, अलगाव, दूरी, करीब जाने की तड़प का भाव जितना गहरा होगा, उतनी ही तीव्रता से ‘प्रेम’ का अनुभव होगा।
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एक और बात गौरतलब है कि बेहतरीन प्रेम कविताएं प्रेम के दौरान नहीं, प्रेम की स्मृति में या उसकी कल्पना में लिखी गई हैं। प्रेम करना, उसे जीना एक पूर्णकालिक कार्य है। उसके बारे में लिखना तो बस स्मृति पर पड़ी उसकी खरोंचों को जीना है। प्यार पर बुद्धिजीवियों को बहस करते हुए नहीं देखा जाता। दरअसल, अधिक बौद्धिकता इंसान को एक ठूंठ में बदल देती है। प्रेम फिर उसे अ-बौद्धिक लगने लगता है। अकबर इलाहाबादी कहते हैं- ‘इश्क नाजुकमिजाज है बेहद, अक्ल का बोझ उठा नहीं सकता’। शारीरिक तौर पर दिमाग से दिल की भौतिक दूरी सिर्फ अठारह इंच के करीब होती है, पर उसे पूरा करने में अक्सर जिंदगी बीत जाया करती है। प्रेम क्या है, यह अंतिम तौर पर बताना बड़ा मुश्किल है। ‘इब्तिदा में ही रह गए सब यार, इश्क की कौन इंतिहा लाया’, मीर ने बड़ी नफासत से यह बात कह दी है।
समय प्यार का होता है सबसे बड़ा दुश्मन
प्रेम की शुरुआत में तो लोग बड़े सतर्क रहते हैं, जैसे शीशे के टुकड़ों से भरे फर्श पर चल रहे हों। पर समय प्यार का बड़ा दुश्मन होता है। बाद में जिसका पसीना भी गुलाब हुआ करता था, वह बस कोने में पड़ी बासी समोसे की प्लेट बनकर रह जाता है। कई बार ऐसा भी होता है कि हम अपने प्रिय पर अधिकार जमाने लगते हैं। ढेरों अपेक्षाएं होती हैं उससे। हम यह मानकर चलते हैं कि वह जैसा कल था वैसा आज भी है और कल भी रहेगा। पर किसी जीते-जागते इंसान को कब्जे में रखना नामुमकिन है। हमारा सामाजिक ढांचा और संस्थाएं इसी नामुमकिन को मुमकिन बनाने की उम्मीद पर टिके हैं। विवाह की संस्था में पाखंड के मवेशी निर्भीक होकर चरते हैं। ज्यादातर प्रेम संबंध भ्रामक छवियों के बीच के रिश्ते बनकर रह जाते हैं। प्यार को कोई भी सामाजिक, कानूनी कमीज फिट नहीं बैठती, पर मन यह मान नहीं पाता कि जो आपसे कल प्यार करता था वह अब नहीं करेगा। दरअसल प्यार एक अजनबी, अनाम परिंदे की तरह आता है और उड़ जाता है। फिर कभी भूला-भटका हमारी मुंडेर पर आकर बैठता है।
सुख बनाम दुख, अच्छाई और बुराई के बीच हर दौर का संघर्ष
प्रेम और ईर्ष्या के संबंधों पर गौर किया जाना चाहिए। जब कोई हमारे प्रिय को हसरत से देख भी ले, तो जलन होती है। इसे किसी धर्म, दर्शन और साहित्य का ज्ञान खत्म नहीं कर सकता। पहली मुलाकात का टेडीबेयर एक कटखने चौपाये की तरह नोचने-खसोटने लगता है। क्या प्यार की कठोर शर्तें होती हैं? जैसे ही लिखित या अलिखित समझौता टूटता है, भीतर का घायल, ईर्ष्या में जलता ‘आथेलो’ चिंघाड़ने लगता है। इसी को गालिब ने आग का दरिया कहा होगा! इसमें डूबकर फिर बाहर निकलना प्यार की चुनौती है।
जो भी हो, यह तो सच है कि प्रेम का अभाव जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी है और इसकी सुरभि के बगैर जीवन निरर्थक है। इसे बुद्धि से समझने की ज्यादा जरूरत नहीं, अपनी देह में, मांस-मज्जा में महसूस करने की दरकार है। अकबर इलाहाबादी लिखते हैं: ‘बस जान गया मैं तेरी पहचान यही है, तू दिल में तो आता है, समझ में नहीं आता’। प्रेम के बारे में शायद यही कहा जा सकता है। प्रेम जितना भी मिल जाए, मन नहीं भरता।