विवेक से रहित समर्पण दरअसल मानव भावना का वह स्वरूप है, जिसमें व्यक्ति तर्क और ज्ञान से परे रख कर किसी के प्रति पूरी तरह समर्पित हो जाता है। प्रेम का मूल गुण समर्पण और त्याग में है, लेकिन जब यह समर्पण विवेक से दूर हो जाए, तो यह विनाश का कारण बन सकता है। हालांकि कहीं यह भी दर्ज है कि प्यार तब तक भ्रमित या दिशाहीन होता है, जब तक वह विवेक से लैस नहीं होता। इस विचार में प्रेम की सच्ची परिभाषा छिपी है। प्रेम में अगर विवेक और न्याय का तत्त्व न हो, तो वह व्यक्ति को सही और गलत की पहचान से वंचित कर देता है। जब प्रेम की भावना इतनी प्रबल हो जाती है कि वह अन्य सभी विचारों और सिद्धांतों को नष्ट कर दे, तब वह अंधकारमय हो जाता है।

श्रीमद्भगवद्गीता में एक जगह यह बताया गया है कि अत्यधिक आसक्ति इच्छाओं को जन्म देती है, जो क्रोध और अविवेक की ओर ले जाती है। प्रेम में असीम समर्पण और आसक्ति जब विवेकहीन हो जाती है, तो व्यक्ति का मन भ्रमित हो जाता है और वह अपने निर्णयों में गलती करने लगता है। इस प्रकार का प्रेम व्यक्ति को आत्मविनाश की ओर ले जा सकता है, जिससे न केवल वह स्वयं प्रभावित होता है, बल्कि समाज और रिश्तों पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इसलिए प्रेम में समर्पण होना चाहिए, पर ऐसा समर्पण जो तर्क, विवेक और न्याय पर आधारित हो। बिना विचार का प्रेम कभी भी सच्चे प्रेम का प्रतीक नहीं हो सकता, क्योंकि सच्चे प्रेम में संतुलन और संयjम का समावेश होता है।

विवेक से रहित प्रेम हमारे समाज में एक जटिल और व्यापक समस्या है, जो व्यक्ति को उसकी पहचान और आत्मसम्मान से दूर कर सकता है। चाहे वह माता-पिता का अपने बच्चों के प्रति अत्यधिक मोह हो या किसी के प्रति एकतरफा समर्पण, यह प्रेम कभी-कभी मनुष्य को अपनी वास्तविकता से विचलित कर देता है। ऐसे प्रेम में व्यक्ति अपने सिद्धांतों, मान्यताओं और विवेक को त्याग कर दूसरे के प्रति पूरी तरह से समर्पित हो जाता है, जिससे वह अपनी स्वयं की पहचान खो बैठता है। इस स्थिति में बिना किसी प्रश्न या विचार की कसौटी के बिना किसी से प्रेम किया जाता है तो उसमें व्यक्ति अपने आप को खो देता है।

प्रेम में आत्म-सम्मान और स्वतंत्रता बनाए रखे

यह स्थिति केवल मानसिक और भावनात्मक शोषण को बढ़ावा देती है, क्योंकि प्रेम का असल उद्देश्य व्यक्ति को उच्चता और स्वतंत्रता की ओर ले जाना होता है, न कि उसे बंधन में जकड़ना। विवेक के दूर प्रेम में व्यक्ति अपने विचारों और भावनाओं के नियंत्रण को छोड़ देता है और दूसरों की अपेक्षाओं का दास बन जाता है। प्रेम को विवेकपूर्ण और संतुलित होना चाहिए, ताकि यह व्यक्ति को प्रेरित कर सके और उसके आत्म-सम्मान और स्वतंत्रता को बनाए रखे। जब प्रेम संतुलित होता है, तभी वह सच्ची उच्चता और संतोष की ओर ले जाता है।

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सच्चे प्रेम का मार्ग सच्चाई और विवेक पर आधारित होना चाहिए। स्वामी विवेकानंद ने कहा था, ‘प्रेम वह शक्ति है जो संसार को बदल सकती है, पर यह तभी प्रभावी होता है जब वह सच्चाई और ज्ञान के साथ हो।’ प्रेम में अतिरेक हमें गलत दिशा में ले जाता है, जिससे न केवल हमारे संबंध बिगड़ते हैं, बल्कि हम स्वयं को भी नुकसान पहुंचाते हैं। सोच-समझ से रहित प्रेम व्यक्ति को दूसरों की गलतियों और कमजोरियों को नजरअंदाज करने के लिए प्रेरित करता है, जिससे समस्याएं उत्पन्न होती हैं। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने भी अर्जुन को प्रेम और कर्तव्य के संतुलन का उपदेश दिया था।

विवेकपूर्ण प्रेम जीवन में लाता है शांति और संतुलन

अपने विचारों और भावनाओं को विवेक के साथ संयमित करने की जरूरत है। प्रेम तभी सार्थक होता है जब उसमें विवेक और समझदारी का समावेश हो। सच्चे प्रेम का अर्थ है अपने प्रियजन को उसकी कमियों और कमजोरियों के साथ स्वीकार करना, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि हम अपनी आत्मा की आवाज को दबा दें या अपने विवेक को खो दें। विवेकपूर्ण प्रेम न केवल संबंधों को सुदृढ़ बनाता है, बल्कि जीवन में संतुलन और शांति भी लाता है।

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प्रेम एक गहन और अनमोल भावना है, जो जीवन को सुंदरता और समर्पण से भर देती है। पर इसे विवेक और सत्य के साथ संतुलित रखना अत्यंत आवश्यक है। बेलगाम प्रेम, जिसमें तर्क और विवेक का अभाव हो, कई बार व्यक्ति के मन और आत्मा को आहत कर सकता है। कबीरदास इस संबंध में एक सूक्ति दे गए हैं- ‘प्रेम गली अति सांकरी…’। यह स्पष्ट होता है कि प्रेम का मार्ग अत्यंत संकीर्ण है, जहां अहंकार और बेलगाम अतिरेक भावनाओं के लिए कोई स्थान नहीं होता। सच्चे प्रेम में समर्पण और भावुकता तो होती है, पर इसका आधार सत्य और विवेक पर टिका होता है। जब प्रेम विवेक से युक्त होता है, तो यह हमें परिपक्व और समझदार बनाता है। यह प्रेम हमें केवल भावनाओं के उतार-चढ़ाव में नहीं बहाता, बल्कि हमें संतुलन में रखता है और संबंधों को सशक्त करता है। इसके विपरीत, बिना विचार का प्रेम हमें भ्रमित कर सकता है और संबंधों में विषमताएं उत्पन्न कर सकता है। इसलिए प्रेम को अतिरेक से मुक्त रखते हुए उसे विवेक और सत्य के साथ निभाने की जरूरत है। यह प्रेम न केवल शांति और संतुलन प्रदान करता है, बल्कि हमारे जीवन और संबंधों को भी जीवंत और सुदृढ़ बनाता है।