हेमंत कुमार पारीक
समय परिवर्तनशील है। जो आज है, वह कल नहीं होगा। भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है- ‘जो आज तेरा है, कल किसी और का था और कल किसी और का होगा।’ इस दुनिया में परिवर्तन स्थायी है। परिस्थितियों के परिवर्तन से कभी हम खुशी से झूमने लगते हैं, तो कभी गम के सागर में डूब जाते हैं। दुख से बाहर आने के अलग-अलग उपाय ढ़ूढ़ने लगते हैं। पर ये उपाय क्षणिक होते हैं। गम और खुशी का सोता तो मन से बहता है। मन ही है जड़ सुख-दुख की। मन का सीधा संबंध दिमाग से होता है और सोच वहीं पैदा होती है। वही बात है कि गिलास आधा खाली है या आधा भरा है। आधे भरे की सोच कर रखें तो मन के अंदर चल रहा अंर्तद्वंद्व समाप्त हो जाए। इसी को सकारात्मकता कहते हैं।
सकारात्मकता और नकारात्मकता एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं। जैसे कि गम और खुशी। गम के पल दीर्घजीवी होते हैं, जबकि खुशी के अल्पकालिक। इसकी क्या वजह हो सकती है? दुख का वक्त लंबा क्यों खिंचता है? खुशी के पल जल्दी ही क्यों बीत गए लगने लगते हैं? क्या इसकी वजह यह है कि दुख से राहत या छुटकारे के क्रम में हम और उलझते चले जाते हैं और दुख उन उलझे हुए तारों में और ज्यादा गुम होकर हमारे भीतर जगह पाता रहता है? ऐसे में क्या यह ठीक नहीं होगा कि दुख के समांतर हम धीरज का चुनाव करें और शांत मन से उसका सामना करें और उससे उबरने के रास्ते की तलाश में लग जाएं? जब मन शांत होकर सोचने लगता है, तब उलझनों से सुलझने की राह तैयार होने लगती है।
यह दुनिया अनिश्चितता और अराजकता से भरी हुई है। सुख और दुख के पलों के सिकुड़न और विस्तार इस बात पर निर्भर करता है कि हमने उससे निपटने के लिए क्या किया? ऐसे समय में गीत-संगीत सहानुभूति की शरणस्थली होते हैं। संगीत तो व्यक्ति के अनुभव और सांसारिक सत्य के बीच सेतु की तरह काम करता है। संगीत अस्तित्व के धागों को बुनता है। दुख के समय सांत्वना देता है।
अकेलेपन में साथी का काम करता है। इसलिए खट्टे-मीठे पलों में हम संगीत को गले लगाते हैं। जैसे कि अवसाद के क्षणों में ‘आंसू भरी हैं जीवन की राहें…’ जैसे गीत की याद आती है। यह गीत भूली यादों की यातना नहीं देता, बल्कि बीते को छोड़ आगे जीने की चाह बढ़ाता है। उत्साह का संचार करता है। इसी तरह एक और गीत है- ‘सीने में सुलगते हैं अरमां…’ या फिर ‘जलते हैं जिसके लिए तेरी आंखों के दीये…’ दिल को राहत पहुंचाने का काम करते हैं। इसके अलावा दुख की नुमाइंदगी करने और उससे लड़ने के क्रम में ‘इस भरी दुनिया में कोई भी हमारा न हुआ…’, ‘टूटे हुए ख्वाबों ने…’ और ‘वो शाम कुछ अजीब थी…’ जैसे गीत दीन दुनिया से परे आत्मा को स्पर्श कर जाते हैं।
नतीजतन, दुख और चिंताओं का निस्तारण होता जाता है। हम ऐसे माहौल में प्रविष्ट हो जाते हैं, जहां जीवन कल-कल बहते पानी-सा पारदर्शी और विशुद्ध नजर आने लगता है। ऐसा ही एक और गीत है- ‘मचलती आरजू खड़ी बांहें पसारे’। यह भी जीवन को उत्साह और उमंग से भर देता है। ऐसे आनंददायी माहौल में ला खड़ा करता है जहां जीने की चाह और इच्छा शक्ति बढ़ जाती है। जीवन की धड़कनें सुनाई देने लगती हैं। बसंत बहार का सुखद अनुभव होने लगता है। यह नीरस जीवन में रस और ऊर्जा का संचार करता है। गम को पीछे ढकेल कर मन नई चेतना से भर देता है।
शब्द और राग मिलकर एक काल्पनिक चित्र निर्माण करते हैं। कोई-कोई गीत चित्रांकन करता चलता है। ठीक वैसे ही जैसे कोई लेख या कहानी दिमाग में चित्रांकन करते हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि बिना संगीत जीवन की कल्पना अधूरी है। शब्दों के जाल में मधुर ध्वनि का समावेश मन को तरंगित कर देता है। यही संगीत कभी आंखों से आंसू की तरह झलकता है तो कभी मन को हर्षित कर देता है। मानो सावन की हल्की-हल्की फुहारें तन-मन को भिगो रही हों।
जीवन में संगीत कितना कुछ बदल देता है! इसी तरह गीत-संगीत बुझे हुए, टूटे, हताश मन में फिर आशा का संचार करता है। साहित्य का यह पक्ष पूरे समाज को बदलने की ताकत रखता है। दैनिक जीवन की जद्दोजहद और विभिन्न प्रकार की चिंताओं से मुक्त कर हमें ऐसे उपवन में ला खड़ा करता है जहां फूलों की बहार होती है। वहां चंपा भी है, चमेली भी है, गुलाब और गुलताबड़िया भी है।
सर्वत्र खशबू ही खुशबू होती है। मन घुटन और चिंता से परे हो जाता है। पहाड़ की तरह जिंदगी में अगर राही छोटी-छोटी खुशियों के पलों को संगीत के सुर में जी ले तो इस चढ़ाई में थकान का अनुभव नहीं होता। सुख और दुख तो जीवन के रूप में कालीन में धागों जैसे गुंथे हुए हैं। दार्शनिक फ्रेडरिक नीत्शे ने कहा है कि बिना संगीत जीवन एक भूल है। और अब यही संगीत मानसिक बीमारी की औषधि के रूप में मान्य हो रहा है।