हाल ही में कुछ राज्य सरकारों और संस्थाओं ने विश्वविद्यालयों में कुलपति शब्द के स्थान पर कुलगुरु शब्द का प्रयोग आरंभ किया है। यह हास्यास्पद परिवर्तन देखने में भाषिक प्रतीत होता है, लेकिन इसका प्रभाव मात्र भाषा तक सीमित नहीं है। यह निर्णय हमारी सांस्कृतिक दृष्टि, पारंपरिक ज्ञान-संरचना और आधुनिक शिक्षा-तंत्र के मूल स्वभाव को भी प्रभावित करने की क्षमता रखता है।
भारतीय शिक्षा व्यवस्था की जड़ें अत्यंत प्राचीन और समृद्ध हैं। यह परंपरा केवल ज्ञानार्जन की प्रक्रिया नहीं, बल्कि जीवन के प्रत्येक पक्ष, आचार, धर्म, अनुशासन और आत्मानुशासन का संगम रही है। इसी जीवंत परंपरा में संज्ञाओं, पदों और उपाधियों का गहरा सांस्कृतिक और दार्शनिक आधार रहा है।
हमारी प्राचीन शिक्षा-प्रणाली की वैचारिक निरंतरता बनी रही
कुलपति शब्द न केवल एक शैक्षणिक संस्था के नेतृत्वकर्ता को दर्शाता है, बल्कि हमारी प्राचीन शिक्षा-प्रणाली की वैचारिक निरंतरता का प्रतीक भी है। जबकि कुलगुरु का प्रयोग मूलत: धार्मिक परंपरा से जुड़ा हुआ है। यह एक ऐसा शब्द है, जो किसी कुल या राजपरिवार के आध्यात्मिक मार्गदर्शक के लिए प्रयुक्त होता आया है। वह यज्ञों का संचालन करता है, संस्कारों का नेतृत्व करता है और परिवार को धार्मिक दिशा देता है।
ऋषि वशिष्ठ को इक्ष्वाकु वंश का कुलगुरु माना गया है। विष्णु, ब्रह्मांड और भागवत पुराणों में भी कुलगुरु शब्द का उल्लेख इस आशय से हुआ है। यह शब्द श्रद्धा के योग्य होते हुए भी शिक्षा के संस्थागत ढांचे के लिए उपयुक्त नहीं जान पड़ता, क्योंकि इसका स्वरूप धार्मिक, कर्मकांड प्रधान और सीमित उद्देश्य वाला है।
कुलपति शब्द संस्कृत साहित्य, शास्त्रों और शिक्षाशास्त्र में विशिष्ट अर्थ और महत्ता के साथ प्रयुक्त हुआ है। इसका संबंध विद्या, अध्ययन और शिक्षण संस्थाओं से है। ‘पति’ शब्द संस्था या समूह के संचालन और उत्तरदायित्व को दर्शाता है, जैसे- राष्ट्रपति, सेनापति, न्यायाधिपति आदि। इसी तर्ज पर कुलपति वह होता है, जो शिष्य-समूह या शिक्षा-संस्था का नेतृत्व करता है।
धर्मशास्त्र और संस्कृत साहित्य में कुलपति शब्द दो प्रमुख अर्थों में मिलता है- पारिवारिक संरचना के मुखिया के रूप में और शिक्षा-संस्था के अधिपति के रूप में। बौद्ध ग्रंथ ‘अंगुत्तरनिकाय’ में कुलपति शब्द का प्रयोग ऐसे मुखिया के लिए है, जो अपने परिवार को श्रद्धा, शील और प्रज्ञा के साथ आगे बढ़ाता है। भागवत महापुराण में श्रीकृष्ण को यदुवंश का कुलपति कहा गया है। स्पष्ट है कि यह शब्द केवल धार्मिक गुरु के लिए नहीं, बल्कि सामाजिक नेतृत्वकर्ता के लिए भी प्रयोग में आया है।
महाकवि कालिदास के ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ में महर्षि कण्व, भवभूति के ‘उत्तररामचरित’ में वाल्मीकि तथा ‘रघुवंश’ में वशिष्ठ और विश्वामित्र को कुलपति कहा गया है। धर्म संहिताओं में भी यह उल्लेख मिलता है कि जिस व्यक्ति के अधीन दस हजार विद्यार्थियों के भोजन, आवास और शिक्षा की व्यवस्था हो, उसे कुलपति कहा जाता है। यह दर्शाता है कि ‘कुल’ शब्द का अर्थ केवल वंश या गोत्र नहीं, बल्कि शिष्यों और शिक्षार्थियों के समुदाय से है। इसलिए कुलपति वह है, जो विद्या-केंद्र का दार्शनिक, नैतिक और प्रशासनिक नेतृत्व करता है।
‘रामायण’ का यह उल्लेखनीय प्रसंग इस विषय को और गहराई देता है- एक बार एक कुत्ता भगवान श्रीराम से प्रार्थना करता है कि उसे पीटने वाले एक उच्च माने जाने वाले कुल के व्यक्ति को कुलपति नियुक्त किया जाए। यह सुनकर श्रीराम अचंभित होते हैं, पर कुत्ता बताता है कि वह स्वयं पूर्व जन्म में कुलपति था और धर्म तथा मर्यादा के उल्लंघन के कारण उसे यह योनि प्राप्त हुई। यह प्रसंग रेखांकित करता है कि कुलपति का पद केवल ज्ञान का नहीं, बल्कि आचरण, संयम और जिम्मेदारी का भी पर्याय है।
जब गुरुकुलों और आश्रमों की पारंपरिक व्यवस्था से आगे बढ़कर आधुनिक विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई, तब भी ‘कुलपति’ शब्द को ही विश्वविद्यालय के प्रमुख पद के रूप में स्वीकार किया गया। यह चयन केवल परंपरा का अनुसरण मात्र नहीं था, बल्कि यह उस वैचारिक दृष्टि की स्वीकृति थी, जो शिक्षा को मात्र जानकारी नहीं, बल्कि जीवन-दर्शन मानती है। कुलपति शब्द लिंगनिरपेक्ष है- जैसे राष्ट्रपति, सभापति आदि शब्द स्त्री-पुरुष दोनों के लिए समान रूप से मान्य हैं। वैसे ही कुलपति भी किसी महिला या पुरुष द्वारा धारण किया जा सकता है। यह आधुनिक समावेशी दृष्टिकोण के अनुकूल है, जो लैंगिक समानता को महत्त्व देता है।
सकारात्मकता के रथ पर सवार, आज की समय में बदलाव का दृढ़ संकल्प रखने के साथ शुरूआत की जरूरत
कुलपति को हटाकर कुलगुरु को प्रतिष्ठित करना केवल शब्द परिवर्तन नहीं है, बल्कि यह विश्वविद्यालयों की धर्मनिरपेक्ष, वैज्ञानिक और बहुविचारधारात्मक प्रकृति को प्रभावित करने वाला निर्णय है। विश्वविद्यालय किसी संप्रदाय, मत या परंपरा के नहीं होते। वे विविध दृष्टिकोणों, विचारधाराओं और आस्थाओं के समन्वय के केंद्र होते हैं। ऐसे में उनके पदनाम भी उसी विविधता और उदारता के अनुरूप होने चाहिए। केवल परंपरागत श्रद्धा या प्रतीकात्मक आग्रहों के आधार पर शब्दों का चयन करना शिक्षा की स्वाभाविक प्रकृति के विरुद्ध है।
कुलपति शब्द को बनाए रखना केवल भाषाई शुद्धता का आग्रह नहीं है, यह उस परंपरा को सम्मान देना भी है, जो ज्ञान, अनुशासन और दायित्व के साथ विकसित हुई है। यह उस वैचारिक परंपरा की निरंतरता है, जो शिक्षा को जीवन-दृष्टि मानती है। संस्थाओं का स्वरूप केवल उनके ढांचे या विधान से नहीं, बल्कि उनके शब्द-विन्यास से निर्मित होता है।
कुलपति पदनाम केवल एक प्रशासनिक जिम्मेदारी नहीं, भारतीय शिक्षा की आत्मा का संवाहक शब्द है। इसे बनाए रखना केवल भाषा या परंपरा की रक्षा नहीं, सनातन विचारधारा की सुरक्षा है और यह दायित्व केवल सरकार का नहीं, बल्कि पूरे समाज का है।