रेखा शाह आरबी
मनुष्य का मन बड़ा ही विचित्र होता है। जिस प्रकार किसी के दुख को देखकर मन दुखी होता है, उसी प्रकार दूसरों के सुख को देखकर भी दुखी होता है। इसी को ईर्ष्या कहते हैं। ईर्ष्या एक अनावश्यक विकार है, जिसका त्याग किया जा सकता है। जब हम किसी विषय में अपनी स्थिति या अपने को उन्नत कर सकने में अयोग्य पाते हैं, तभी इस इच्छा का उदय होता है।
या फिर किसी व्यक्ति विशेष की स्थिति हमारी तुलना में हमसे बढ़कर न होने पाए, यह इच्छा बढ़ कर द्वेष में परिवर्तित हो जाती है। अगर दो व्यक्ति किसी एक पद के लिए प्रयास करते हैं और उन दोनों में से एक व्यक्ति अच्छे पद पर पहुंच जाता है, तो वह अक्सर चाहता है कि दूसरा किसी अच्छे पद पर न पहुंचने पाए और अपनी उन्नति के रास्तों को सर्वथा गुप्त रखता है। मनुष्य का मन इस तरह भी काम करता है।
ईर्ष्या एक छिपी हुई वृत्ति है। इसे धारण करने वाला इंसान भी कभी स्वीकार नहीं कर पाता कि उसे किसी से ईर्ष्या है। वह प्रत्यक्ष रूप से लोगों के सामने कभी नहीं दर्शाता है, न ही इसका कोई बाहरी लक्षण दिखाई पड़ता है। मसलन, क्रोध में आंखें लाल हो जाना, भय में आकुल होना, नाक-भौं सिकुड़ जाना आदि।
ईर्ष्या इतनी कुत्सित वृत्ति है कि सभा, समाज, मित्र-मंडली, परिवार में, एकांत कोठरी में कहीं भी स्वीकार नहीं की जाती। लोग अपना क्रोध, भय, लोभ और यहां तक कि घृणा करना भी स्वीकार कर लेते हैं, पर ईर्ष्या करना आमतौर पर स्वीकार नहीं करते, क्योंकि स्वयं लोगों को भी नहीं लगता कि वह ईर्ष्या वृत्ति से ग्रसित हैं।
हालांकि ईर्ष्या करने का परिणाम अक्सर निष्फल ही जाता है। अधिकतर तो जिस बात से हम सब ईर्ष्या करते हैं, वह ऐसी बात होती है, जिस पर हमारा तनिक भी बस नहीं चलता। जब अपनी स्थिति में मनोनुकूल परिवर्तन करने की सामर्थ्य नहीं है, तब हम दूसरों की स्थिति में कहां परिवर्तन कर सकते हैं।
जितनी जानकारी हमें अपनी स्थिति के बारे में होती है, उतनी दूसरी की स्थिति के बारे में नहीं होती। जबकि परिवर्तन करने के लिए पूर्णरूपेण किसी वस्तु के बारे में जानना, परिचित रहना आवश्यक है। इसलिए इसका सबसे अधिक कुप्रभाव अपनी कार्यक्षमता और मनोस्थिति पर पड़ता है।
ईर्ष्या में क्रोध का भाव भी मिला रहता है, बल्कि इससे ग्रसित व्यक्ति क्षमताओं से संपन्न व्यक्ति को अवसर आने पर बिना किसी अन्य कारण के भी दुर्वचन कह बैठते हैं। बिना किसी विशेष कारण जी दुखाने का प्रयत्न करते हैं, जो बिना किसी क्रोध के नहीं हो सकता है। इसी वजह से कहा जाता है कि जैसे ‘क्रोध से जलना’ है, वैसे ही ‘ईर्ष्या से भी जलना’ है।
साहित्य के शब्दों में क्रोध और ईर्ष्या के संचारी रूप में समय-समय पर व्यक्त होता हुआ देखा जाता है। अभिमान के भीतर हर घड़ी अपनी प्रशंसा कराने का अवगुण होता है और ईर्ष्या उसकी सहगामिनी होती है। ईर्ष्या अधिकतर हमें अपयश का भागी तो बना ही देती है, अपने मन-मस्तिष्क में भी नाहक ही द्वेष भर देती है, जिसका आखिरी नुकसान हमें ही होता है।
ईर्ष्या की एक खासियत है कि यह किसी आसपास के जानने वाले या अपने समान व्यक्ति से ही होती है। ऐसा नहीं होता कि किसी के भी मान-सम्मान से संपन्न होने पर हमें उससे ईर्ष्या हो जाए। अक्सर लोग अपने नाते-रिश्तेदारों, व्यापारिक प्रतिद्वंद्वियों, पड़ोसियों से ईर्ष्या करते हैं। अनजान व्यक्ति से ईर्ष्या नहीं होती।
ऐसा नहीं होगा कि आप किसी देश के निवासी हैं और आपको लंदन में रहने वाले किसी धनी व्यक्ति या व्यापारी के बारे में सुनकर उससे ईर्ष्या होने लगे। इससे बचने के सरल से उपाय हैं। हमें मानसिक अनुशासन अपनाना चाहिए और अनावश्यक बातों के बारे में सोचना छोड़ देना चाहिए। इस पक्ष पर विचार करना चाहिए कि ईर्ष्या आमतौर पर हमारे भीतर की हीनभावना का सक्रिय रूप है या फिर यह हीन भावना भरती है।
हालांकि ईर्ष्या एक स्वाभाविक भावना हो सकती है, लेकिन कभी-कभी बहुत समस्या उत्पन्न कर देती है। इसके चलते हम अपने क्रोध पर नियंत्रण नहीं कर पाते हैं। सभी को यह समझना चाहिए कि हर मनुष्य के अंदर कोई न कोई विशेष गुण होता है। दूसरों के गुण को देखकर अपने आप को परेशान करने के बजाय हम अपने विशेष गुण को पहचान लें तो जलन के भाव से बचा जा सकता है।
दूसरे के दोष और त्रुटियों को देखने के बजाय उनकी अच्छाइयों को खुले मन से देखें और वैसा ही आचरण अपनाने की कोशिश करें। अगर किसी के धन, ऐश्वर्य, सुख को देखकर अपनी त्रुटि पर दुख होता है तो इसको सकारात्मक रूप से लिया जा सकता है। तब यही हमारे अंत:करण की प्रेरणा भी बन सकती है, क्योंकि कभी-कभी सफल व्यक्ति को देखकर बड़ा सहारा मिलता है। ईर्ष्या दूसरों के लिए परेशानी होती है, लेकिन यह स्वयं के लिए एक ऐसी पीड़ा होती है, जो सबसे ज्यादा खुद को ही सर्वप्रथम त्रास देना शुरू करती है।