तपती गर्मी के बाद किसी शाम मेघ की गर्जना के साथ अगर बारिश होने लगे, तो बहुत सारे लोग घर में बंद होकर बरसात के गुजर जाने का इंतजार करने लगते हैं। लेकिन अगर ऐसे माहौल में जरा खिड़की से बाहर झांका जाए तो दूर तक फैले खेत और भींगती प्रकृति किसी भी प्रकृति प्रेमी के मन को बांध ले सकती है। जिस तरह जीवन के रंग बदलते रहते हैं, उसी तरह जीने के लिए मौसम का बदलना भी जरूरी है। बदलते मौसम के लिए हमारा अनुकूलन हमारे अस्तित्व को परखता है। हम हैं और हम अपने होने को प्रत्येक स्थिति में साबित भी करते हैं। मौसम चाहे कोई भी हो, प्रकृति से हमारे समन्वय का एक प्रतीक बनता है। ठीक इसी प्रकार जीवन चाहे जैसा भी हो, अपने मूल स्वभाव को नहीं भूलता।

सामान्य लोगों के जीवन में स्थिर कुछ भी नहीं रहता। देखा जाए तो जीवन के दो पक्ष ही हम पर हावी रहते हैं- एक, जीविका की जद्दोजहद और दूसरा संवेगात्मक आधार। एक मध्यमवर्गीय परिवार न जाने कितनी आंधियों को इन्हीं दो पृष्ठभूमियों पर झेलता जाता है। मगर जिजीविषा नहीं मरती। शायद यही है जीवन की मूल-जिजीविषा। हम जीना पसंद करते है। परिस्थितियों से हारकर हम अगर जीवन को त्याग देते तो धरती कब की समाप्त हो गई होती। हम गिरते हैं, चोट खाते हैं, पर फिर उठते जरूर हैं, क्योंकि हमारे लिए रुकने का मतलब मृत्यु है। उठना ही है, चलना ही है और विपरीत परिस्थितियों से लड़ना ही है- यही मानवधर्म है।

ठीक यही बात हमें बरसात का मौसम भी सिखा जाती है। जब यह धरती ऊष्णता और घुटन से बोझिल हो जाती है तो वर्षा की बूंदें आकर इसके अंतर को धो जाती है। तब धुल जाते हैं सारे दुख, सारे पाप, तन और मन पर पड़ी हुई गंदगी। नई निखरती पल्लवों के साथ फिर उल्लसित हो उठती है धरा… बोने लगती है बीज भविष्य के हरियाली की। ठीक इसी तरह हम इंसानों को भी इस बारिश के पानी में भीगकर अपने तन और मन के क्लेश, कुंठा, द्वेष, सबका निस्तारण कर देना चाहिए। ठंड, गर्मी और बरसात- ये बदलते मौसम आते-जाते रहते हैं, लेकिन हर बार हम इंसानों के समुदाय को कुछ न कुछ सीख दे जाते हैं। इस धरती पर हम इंसान ही एकमात्र ऐसे जीव हैं, जिसका दावा है कि उसे सही और गलत की पहचान होती है।

इस वसुधा को एक कुटुंब मानकर निस्वार्थ भाव से जीवन की धारा में बहते जाना ही मनुष्य का मकसद होना चाहिए। हम ऐसी प्रजाति हैं, जो जीवन देने में विश्वास करता है, लेकिन आजकल के समाज में ‘स्व’ का भाव ज्यादा विस्तारित हो गया हैं। आत्मकेंद्रित हो मनुष्य आज एक दूसरे का ही प्रतिरोधी बन गया है और उचित अनुचित का विचार त्याग हर वह काम करने के लिए प्रस्तुत हो जाता है, जिसमें उसका स्वार्थ हो। मन के भाव दूषित हो गए हैं। द्वेष, घृणा, नफरत, बदला आदि की भावना का प्रादुर्भाव हो गया है। भावनाओं की इस फैलती विकृति ने जीवन का मूल ही खो दिया है। सृष्टि के बनाए धरती का पर्याय प्रेम और त्याग हैं। ये विचार अंतिम सांसें गिन रही हैं। हम मनुष्यों को चाहिए कि इन कलुषित भावों को धोकर जीवन के जीवंत पक्ष पर फिर से काम करें।

हमारा पोषण हमारे अन्न से होता है, लेकिन हमारी अंतस का पोषण हमारे भाव से होता है। अगर हम अपने अंदर विपरीत सोच को विकसित कर लेंगे तो हमारे जीवन का विकास भी विपरीत ही होने लगेगा। हम दूसरों को घाव देकर सोचते हैं कि हमने बदला ले लिया। दूसरों के साथ छल करके हम खुश होते हैं कि किसी को मूर्ख बना दिया गया, लेकिन हम यह नहीं समझना चाहते कि वह घाव, वह छल पहले हमारी आत्मा को चोटिल करेंगे और हम पतन की ओर मुखातिब हो जाएंगे। आज की तारीख में हो रहे दंगा-फसाद इस बात का प्रमाण है कि मनुष्य का दिमाग कितना भ्रष्ट हो चुका है। इन असामाजिक कार्यों को करते हुए वह इतना भी नहीं सोचता कि इसका परिणाम क्या होगा। उसकी आत्मा इतनी दूषित हो चुकी है कि किसी की हानि करते हुए उसे सुख की प्राप्ति होती है। वर्तमान प्रसंग में देखा जाए तो आसपास हो रहे अमानवीय कृत्यों ने लोगों की जड़ों को तोड़ा है। मानव अपने मूल प्रवृत्ति से उखड़ता जा रहा है। जीने के लिए जिजीविषा और आत्मा की उत्कंठा दोनों पर ही प्रहार किए गए हैं। बात बस यह है कि यह खुद मनुष्य ही तय कर सकते हैं कि हमें किस दिशा में अग्रसर होना है।

सुधरने का कोई वक्त नहीं होता। अब भी समय नहीं बीत गया है। अगर आज भी हम यह निर्णय ले लें कि हमें अपने अंदर की बुराई को मारकर अच्छाई को जिंदा करना है तो भी जीवन सुंदर बन सकता है। हमें सोचना होगा कि हम आने वाली पीढ़ी को क्या दे कर जाएंगे- अपने कुत्सित मन के आवेग या अपनी आत्मा की निर्मलता। हमारा जीवन बरसात की बूंदों की तरह ही है। अपने अंदर स्वच्छता को महत्त्व देते हुए बढ़ना ही इस जीवन का सार है। शायद इसी के निमित्त वर्षा का भी आगमन होता है। अपने जीवन को स्वच्छ बनाने के साथ साथ अपनी आत्मा को सुंदर बनाकर प्रकृति के आंगन में रिमझिम बूंदों का आनंद लेना ही जीवन है।