राजेंद्र प्रसाद

सृष्टि के सभी जीव प्रकृति की अद्भुत रचना हैं। नियति ने उन्हें अपनी सर्वश्रेष्ठ जादूगरी से सुंदर और आकर्षक बनाया है। संसार के बहुत से रहस्य साधकों के तपोबल से बाहर हैं। परंपरागत रूप से अनेक शोध, मनन और अध्ययन इस जाल को तोड़ नहीं पाए। जीव जितना उसको समझने की कोशिश करता है, उतने ही रहस्य और अधिक गहराते जाते हैं।

बहुधा मानवीय समझ सुलझने के बजाय उलझती जाती है। निस्संदेह सही जीवन जीने की कला बहुत कम लोग जानते हैं। मनुष्य पैदाइशी रूप से आंनद और सुख तलाशता है, पर व्यवहार में वैसा नहीं करता है तो दुख पैर पसार जाता है। जब-जब कुछ करने की सोचता है तो काम, क्रोध, मद, मोह और लोभ की आभा उसे निरंतर अपने आगोश में ले लेती है।

अगर वह उन पर नियंत्रण का अभ्यास नहीं करता है तो वही चीजें समाज में उसे नीचा दिखाने के लिए काफी हैं। ऊहापोह में व्यक्ति यह मानने में विफल होता है कि इन विकारों से कितनी गिरावट का सामना करना पड़ता है। यकीनन गिरना सरल है, लेकिन व्यक्ति अगर कहीं गिर जाए तो उठकर संभलना और फिर संभलकर चलना बहुत कम लोगों के वश की बात है।

संसार में जो पैदा हुआ है, उसे देर-सबेर नष्ट होना है। अज्ञानतावश हम ऐसा समझते हैं कि लाखों बरसों के लिए आए हैं और कभी नहीं जाएंगे। भ्रम में जीते हैं कि मनचाहे कर्मों और सोच का फल हमें नहीं मिलेगा। झूठी शान-शौकत के चक्कर में हम अपने अस्तित्व को सही पहचानने-संवारने में ज्यादातर नाकाम दिखते हैं।

जिसने अपना सही मूल्यांकन करना सीख लिया, वह बहुत-सी समस्याओं और विकारों से बच जाता है। यह तभी संभव है, जब अहंकारी हवा से नहीं फूलते, अपनी कमी निरपेक्ष भाव से देखते हैं, किसी भी परिस्थिति में हुए सही या गलत कर्म की जिम्मेदारी खुद के कंधों पर लेते हैं। सबसे ज्यादा दिक्कत पाखंड की केंचुली से भी होती है। संयोगवश जब यह उतरती है तो व्यक्ति खुद को हल्का महसूस करता है।

अमूमन व्यक्ति छोटी-बड़ी सफलता का श्रेय खुद को देता है और विफलता का ठीकरा दूसरों के माथे पर फोड़ता है। दूसरों की अपेक्षा विकास का मुकाम ज्यादा हासिल होने से इंसान फूला नहीं समाता और खुद को कुशल, सक्षम और कर्मसाधना का मालिक मान बैठता है। स्वार्थ जब तक हित के साथ जुड़ा रहेगा, तब वह ज्यादा विकृत नहीं होता।

संसार में दूसरे से काम पड़ना जुड़ाव का बहुत बड़ा साधन है। दिक्कत तब आती है जब खुद के स्वार्थ को आगे रख दूसरों के साथ आचरण करते हैं। कोई भी आमतौर तब तक सहयोग करता है, जब तक हम स्वार्थी सिद्ध नहीं होते। विकास की तथाकथित चूहादौड़ में समाज का जिस तेजी से नैतिक पतन हो रहा है, वह हमें उतना ही स्वार्थजाल में जकड़ रहा है। चतुराई, धोखा, गुमराह करने की आदत, गैर-जिम्मेदारी से कुछ भी बोलना, मनमर्जी का आचरण, निम्न सोच, बढ़ती संवेदनहीनता, नीचा दिखाने में दिलचस्पी, धन-माया का बढ़ता अंधमोह आदि ऐसे विकार हैं, जो हमें स्वार्थ की चाशनी में अनवरत डुबोते हैं।

धन, शक्ति, शिक्षा, संख्याबल आदि से युक्त व्यक्ति अपने को बड़ा और ताकतवर मानने लगता है। ऐसे में सही-गलत के प्रति वह अपनी आंखें चाहे-अनचाहे मूंद लेता है। यकीनन सूझबूझ वाला व्यक्ति सोचता है कि कोई उसकी सलाह या नसीहत का बुरा न मान ले। ऐसा असमंजस समाज में बहुत कुछ गलत होने से बचा नहीं पाता। अगर किसी ने कुछ दिलेरी दिखाई तो वह भी भयाक्रांत रहता है। कुछ लोग इसी कारण गलत को चाहे-अनचाहे झेलते रहते हैं। इससे समाज पर कुप्रभाव पड़ता है।

मुख्य रूप से व्यक्ति अपने पैदाइशी विकार दूर किए बगैर खुश रहना चाहता है। अगर हमारी आदतों में अहंकार, पाखंड, संकीर्णता, विचलन आदि है तो हमें कमजोर करने के लिए किसी दुश्मन की जरूरत नहीं, बल्कि हम खुद जिम्मेदार हैं। माना जाता है कि रावण में विद्वता थी, लेकिन मन में विकार थे, जिससे सोने की लंका देखते-देखते दहन हो गई।

जीवन की उठापटक सहज बनानी है तो प्रतिदिन अपने विकारों की धार कम करने के लिए सच्चे अर्थों में प्रयत्नशील रहेंगे, तभी जीने का उद्देश्य सफल हो सकता है। यह कोई असंभव नहीं, लेकिन थोड़ा मुश्किल जरूर है। हमें अपनी दुष्प्रवृत्तियों को निरंतर तलाशना और तराशना है, जो थोड़े संकल्प व सतत प्रयास से संभव है।

जब अपनी गलतियां समझना, मानना और उनका निवारण शुरू कर देते हैं तो मार्ग काफी सरल हो जाता है। इस चेतना से कुछ समय बाद हम पाएंगे कि हम खुद के काफी नियंत्रण में हैं और जीवन काफी सहज रहेगा। निस्संदेह कर्म एक ऐसा भोजनालय है, जहां हमें कुछ आदेश देने की जरूरत नहीं। यहां वही मिलता है, जो हमने पकाया है।