महेश परिमल

कोई भी यह सुन कर चौंक सकता है कि भला बर्तन भी कभी बोलते हैं? लेकिन एक तरह से यह सच है कि बर्तन बोलते हैं। इनकी आवाज सुनने के लिए हमें अपने अतीत में लौटना होगा, जहां हमारा बचपन कुलांचें भरता था। हम सबने देखा होगा कि मां रात में घर के सारे काम करके ही सोती थीं। इन कामों में भोजन के बाद बर्तन साफ करने की परंपरा थी। इस काम में मां की सहायता घर के अन्य सदस्य भी करते थे और करना ही चाहिए। मां अक्सर कहती थी कि रात के जूठे बर्तन सुबह तक नहीं रखने चाहिए। इससे घर में दरिद्रता आती है, कंगाली छा जाती है और कलह-विवाद में बढ़ोतरी होती है।

हालांकि आजकल कई घरों में रात में भोजन करने के बाद जूठे बर्तनों को रसोईघर के सिंक में छोड़ दिया जाता है और उन बर्तनों को सुबह धोया जाता है। इससे नकारात्मक ऊर्जा पैदा होती है और इसके चलते घर के लोगों का स्वास्थ्य प्रभावित हो सकता है। बात केवल आत्मनिर्भर बनने की है। अगर हम अपने अहं को छोड़कर कुछ देर के लिए अपना काम खुद करने का संकल्प ले लें, तो अनजाने में हम अपने परिवार के सदस्यों के लिए न केवल आदर्श बनेंगे, बल्कि उन्हें भी अपना काम स्वयं करने का संदेश देंगे।

हाल ही में अमेरिका में हुए एक शोध में सामने आया है कि सिंक में देर तक जूठे बर्तन पड़े रहने पर सालमोनेला, लिस्टीरिया और ई कोली जीवाणु पनपते हैं। ये जीवाणु स्वस्थ लोगों पर ज्यादा प्रभावी नहीं होते, लेकिन जो पहले से बीमार हैं या फिर जिनकी रोग प्रतिरोधक शक्ति कमजोर है, वे इन जीवाणुओं से बीमार हो जाते हैं। ऐसे लोगों को उल्टी, पेट दर्द या डायरिया हो सकता है। ज्यादा गंभीर स्थिति होने पर गर्भपात और गुर्दे पर भी विपरीत असर पड़ सकता है। इस मामले में विशेषज्ञों का भी मानना है कि अपने रसोईघर में हर चीज यह मानकर इस्तेमाल करना चाहिए कि वह प्रदूषित है। यानी इसकी साफ-सफाई का ध्यान रखना चाहिए।

अगर धार्मिक मान्यताओं और आस्था के लिहाज से भी देखें तो हम सभी यह मानते हैं कि देवी लक्ष्मी साफ-सुथरे घरों में ही निवास करती हैं। दीपावली के मौके पर हम लक्ष्मी जी को प्रसन्न करने के लिए क्या-क्या जतन नहीं करते। पर क्या रात में बर्तन साफ करने की दिशा में हमने कभी कुछ सोचा? आवश्यकता है एक छोटे से संकल्प की। वह संकल्प यही हो कि घर के रसोईघर के सिंक में एक भी जूठा बर्तन न छोड़ा जाए।

भोजन के बाद अपनी थाली खुद साफ करके अच्छा महसूस करना चाहिए। यह एक छोटा-सा काम है, पर इसके परिणाम सुखद होंगे। हमें भी अच्छा लगेगा, जब हम अपने ही घर में सकारात्मक ऊर्जा के बीच चैन की नींद सोएंगे। ऐसा करने से घर का हर सदस्य यही समझेगा कि मैंने घर के लिए कुछ किया। बच्चों में यह आदत उन्हें स्वाभिमानी बनाने में सहायक होगी। फिर सबसे ज्यादा रसोईघर में अन्य सदस्यों का योगदान महिलाओं के प्रति एक समान दृष्टि के विकास का वाहक बनेगा।

वर्तमान में पूरा परिदृश्य बदल गया है। घर में सुबह पता चले कि आज घरेलू काम में सहयोग करने के लिए रखा गया कोई व्यक्ति नहीं आया है, तो घर में मानो भूचाल आ जाता है। हर सदस्य परेशान हो जाता है। कोई काम समय पर नहीं हो पाता है। घरेलू सहायक या सहायिका के न आने की सूचना के साथ सबसे पहला पड़ाव होता है रात के जूठे बर्तनों को साफ करना। फिर घर के अन्य काम।

यही बर्तन साफ करने वाला काम इतना बड़ा मान लिया जाता है कि उसे करने में लोगों की हालत खराब हो जाती है। उस दिन इतने सारे काम होते हैं कि पूरा दिन पलक झपकते ही निकल जाता है। जबकि यही सब काम करने वाली घरेलू सहायिकाओं को कमतर माना जाता है। यह आज की जीवनशैली है, जिससे आज हर कोई दो-चार हो रहा है। इसे हम अपनी विवशता भी कह सकते हैं। घर में घरेलू सहायिका या सहायक का होना जरूरी है, लेकिन उसे इंसान समझना भी उतना ही जरूरी है।

यह हमारे सुविधाभोगी जीवन का एक अंग है। हम इतने अधिक लापरवाह और आलसी हो गए हैं कि पानी का गिलास भी खुद से नहीं भर सकते। सीधे बोतल में मुंह लगाकर पानी पीते हैं। आलस हमारे रग-रग में समाने लगा है। बड़ों की यह आदत आज बच्चों में भी देखी जा रही है। जिन बच्चों को उछल-कूद में अपना समय व्यतीत करना चाहिए, वे मोबाइल-टीवी पर अपना समय बर्बाद कर रहे हैं।

उनका मोटापा बढ़ता जा रहा है। पालक या अभिभावक इससे अनभिज्ञ तो नहीं है, पर लाचार हैं। अब उनके हाथ में कुछ भी नहीं रहा। जीवन मूल्य तेजी से बदल रहे हैं। लोगों के पास बेशुमार वक्त है, पर अपनों से बात करने के लिए बिल्कुल भी समय नहीं है। ऐसे में अगर एक जीवित व्यक्ति हमसे कहता है कि आज जीवित हूं, तो बात कर लो, कल अगर मैं नहीं रहा, तब आपसे बात करने आऊंगा, तो कैसा लगेगा? कितना त्रासद क्षण होगा वह हम सबके लिए?