सुरेशचंद्र रोहरा

हमने अक्सर जीवन में लय और ताल पर गौर किया होगा। जीवन में इसकी एक अहम भूमिका है। आसपास जाने कितनी चीजें एक लय और ताल के साथ चलती रहती हैं। जीवन में भी एक लय और ताल पाई जाती है, मगर कहीं-कहीं यह यांत्रिक ज्यादा हो जाती है। अगर हम अपने आसपास देखें तो पाते हैं कि यह यांत्रिक क्रिया मशीनी होती है। इस पर एक लय में बंधे होने से मानव जीवन सुखद हो सकता है। यांत्रिकता से जुदा हम अगर स्कूल, कालेज या किसी भी संस्था पर दृष्टिपात करें तो पाते हैं यह भी एक लय और ताल से बंधे दिनचर्या की भूमिका निभाते नजर आते हैं।

दरअसल, बहुत ही चीजें जैसी दिखाई देती हैं, जैसी होनी चाहिए, वैसी होती नहीं है और बहुतेरी जैसी दिखती हैं, उससे भी बेहतर स्थिति निर्मित कर लय और ताल का अद्भुत समां बांध दिया करती हैं। इसे अमूमन हर मिलने-बैठने और बतियाने की जगहों पर देखा जा सकता है। गांव-देहात में अनौपचारिक शक्ल में चौपाल जैसी जगहों पर होने वाली बैठकी को शहरों में संगठित स्वरूप मिला कुछ मिलने-बैठने की जगहों से।

मसलन, हमारे देश में एक संस्था है, जो देश के लगभग हर बड़े शहर नगर में भी है। यह कई दशकों से एक निश्चित मानदंड के अनुरूप गतिशील है। एक अद्भुत आश्चर्य की बात है कि यह मानव समूह की एक शृंखला को एक लय और ताल को एक सूत्रबद्ध भाव से संचालित कर रही है। यों हमारे आसपास अनेक व्यक्ति, दुकानें, संस्थान है जो बेहतर सेवाएं देते हैं और उनका अपना एक मुकाम है।

मगर इस संस्थान ने देश के अनेक हिस्सों में साहित्यिक शख्सियतों को मिलने-जुलने का एक ठौर दिया। इसने बड़े लेखकों के साहित्य और संस्मरण में भी अपना स्थान अक्षुण्ण बनाया है। चार दशक पूर्व जब हमारे शहर में इसकी शुरुआत हुई थी तो पत्रकारों और लिखने-पढ़ने वालों को स्वाभाविक रूप से अपनी और आकर्षित करने लगी। इसकी खासियत यह है कि यह जगह अपनी एक लय और ताल के लिए अपना विशिष्ट स्थान रखती है।

अगर हम पोशाक की बात छोड़ भी दें तो बाकी अन्य चीजें भी ऐसी हैं जो शायद कहीं नहीं मिलती। एक दफा एक परिचित ने काफी मंगाई तो थोड़ी ही देर में काफी टेबल पर आ गई थी। बातें करते देर हो गई और जब काफी की प्याली होठों से लगाई तो वह ठंडी हो गई थी। परिचित ने आवाज दी कि काफी तो ठंडी हो गई। एक बैरा आया और उठा ले गया। टेबल पर दूसरी प्याली हाजिर हो गई। बैरे के चेहरे पर कोई खीझ या व्यंग्य नहीं। इससे जुड़ी बात यह है कि ग्राहक को इसके लिए सिर्फ एक ही कप काफी के पैसे देने पड़े।

आज समाज में ऐसे मंचों की आवश्यकता है जो आज वैचारिक विमर्श के लिए रिक्त हो चुके खालीपन को भर सकें। चाक-चौपाल की अपरिहार्यता महसूस होती है। समय जिस तरह तेजी से बदला है और हमारे इर्द-गिर्द बदलाव हुए हैं, उसके कारण एक संवादहीनता की स्थितियां निर्मित हो गई है, जो चिंता का सबब है।

इस स्थिति ने सबको खुद में समेट दिया है और समाज से जीवन-तत्त्व को छीन लिया है। क्या महंगे होटलों या प्रतिष्ठानों के रूप में मशहूर जगहों पर आने वालों से सद्भाव की उम्मीद की जा सकती है? ऐसा कम ही देखने सुनने को मिलता है जब कोई संस्थान अपने आप में संवाद के साथ-साथ संवेदनशीलता की विशिष्टता ले आता है।

समाज में ऐसे मंच आज फिर अपनी प्रासंगिकता के साथ सामने हमारे सामने एक जरूरत के रूप में हैं। इनकी आज अब और भी ज्यादा आवश्यकता है, क्योंकि अगर मानव समाज आपस में संवाद के तारों से लगातार दूर होता गया गया है। सच यह है कि संवाद के सिमटते ठौर ने लोगों के बीच संवेदना के स्वरूप को भी बदल दिया है।

एक सामाजिक प्राणी होने के नाते संवाद हमारी जरूरत है। इसके बिना हम लगातार अकेले होते जाते हैं। आधुनिक दौर में अकेले होने को सकारात्मक तरीके से देखा जाता है। लेकिन सवाल है कि हम किस हद तक अकेले रह सकते हैं। ऐसी स्थिति बनने में एक बड़ी भूमिका इसकी भी है कि बैठने, मिलने-जुलने की जगहें लगातार सिमटी हैं, जो संवाद के जरिए संवेदना और विचारों को समृद्ध करती थीं।

सच यह है कि हमें किसी न किसी स्वरूप में खुद को अभिव्यक्ति करने, अपने विचारों को जाहिर करने की जरूरत है। संवाद के जरिए खुद को समृद्ध करने, अपने मनोभावों को तुष्ट करने और व्यक्तित्व को एक नया आयाम देने की जरूरत पड़ती है। यह हमें अपनी तरह के लोगों के साथ संवाद के जरिए ही हासिल हो पाता है।

लेकिन सच यह है कि एक ओर अकेले होने को हम एक अच्छी स्थिति के रूप में देखने लगे हैं, लेकिन उससे उपजे खालीपन को आधुनिक तकनीकों से भरते रहते हैं। यह किसी से छिपा नहीं है कि हममें से ज्यादातर लोग अब आधुनिक तकनीकी में गुम उसी में अपना संवाद और साझापन खोजते रहते हैं।