मोहन वर्मा

दुनिया में लिप्त हर व्यक्ति आशा-निराशा और अपेक्षा-उपेक्षा से उपजे मकड़जाल में उलझा है। भगवद्गीता में श्रीकृष्ण द्वारा मोह माया और दुनिया में रहकर दुनिया से निर्लिप्त होने की बात तो कही गई है और इंद्रियों और चंचल मन को नियंत्रित करने का उपदेश भी अर्जुन को दिया है।

इस पर अर्जुन कहते हैं कि ध्यान योग में स्थिर रहना बड़ा कठिन दिखाई देता है, क्योंकि मन बड़ा ही चंचल, बलवान और जिद्दी है। इसका निग्रह करना वायु का निग्रह करने की तरह अत्यंत कठिन है। भगवान स्वयं स्वीकार करते हुए कहते है कि ये मन वास्तव में बड़ा चंचल है और इसका निग्रह करना भी बड़ा कठिन है, पर अभ्यास और वैराग्य से इसका निग्रह किया जाता है।

अब इस बात को ऐसे भी समझा जा सकता है कि विधाता खुद दुनिया में रहते हुए दुनिया से निर्लिप्त रहकर अभ्यास और वैराग्य से चंचल मन को नियंत्रित करने की बात कहते है जो कठिन है, तो आप हम जैसे साधारण मनुष्यों की क्या बिसात? कहते हैं कि इस दुनिया में कोई भी पूरी तरह सुखी नहीं है और सुख की कामना में यहां-वहां भटकते व्यक्ति को अपना दुख सबसे बड़ा लगता है। अगर हम अपने दुखों से हटकर आसपास नजर दौड़ाएं तो पाएंगे दूसरों की बनिस्बत हम खुद को ज्यादा सुखी पाएंगे।

बार-बार यह बात सामने आती है कि अगर हमारे पास जूते नहीं हैं तो हम ये देखें कि ऐसे कई लोग हैं, जिनके पास तो पांव भी नहीं है। हमारा घर बहुत अच्छा नहीं है, हालांकि सिर पर एक छत है। मगर लाखों लोग पूरे परिवार के साथ खुले आसमान के नीचे जिंदगी गुजार देते हैं। हमें पकवान से लेकर रूखा-सूखा कुछ तो हासिल है, मगर लाखों लोग हैं, जिन्हें भूखे पेट सोना पड़ता है।

हमें वाहन सुख नसीब है, मगर लाखों लोग कहीं भी जाने के लिए पैदल चलने को मजबूर हैं। हमें बच्चों का सुख हासिल है, मगर हजारों-लाखों लोग ऐसे हैं, जिनके बच्चे जन्म से शारीरिक और मानसिक रूप से अशक्त होते हैं मगर ताउम्र वे उन्हें पालते हैं। बल्कि ऐसे लोग हमें अपने आसपास मिल जाएंगे, जिनके पास बच्चे नहीं हैं। हम हमेशा ये मानते हैं कि हमें जो चाहिए, वह नहीं मिला और जो मिला है उसमें संतुष्ट नहीं होते हैं। दुख और सुख एक दूसरे के साथ जुड़े हैं। अगर आज सुख है तो कल दुख आना ही है और अगर आज दुख है तो सुख बहुत दूर नहीं है।

एक किंवदंती के अनुसार, एक राज्य में पहुंचे हुए संत आए और उन्होंने लोगों को अपने अपने दुख से दुखी देखकर उनके दुख दूर करने का वादा किया। राजा मंत्री नगरसेठ सेनापति से लेकर फटेहाल आखिरी व्यक्ति तक उनके पास पहुंचा। संत ने कहा कि दूर जंगल में सबके दुखों की नाम लिखी पोटली है, सभी जाकर अपनी अपनी पोटली ले आएं। उनके दुख दूर हो जाएंगे। लोगों ने सोचा कि राजा मंत्री नगरसेठ सेनापति की पोटली तो एकदम हल्की होगी, मगर वहां जाकर मालूम हुआ कि सबसे हल्की पोटली तो खुद की थी और राजा मंत्री नगरसेठ सेनापति से लेकर दूसरों से तो अपनी-अपनी पोटली उठाई ही नहीं जा रही थी।

इसी तरह एक और कहानी बचपन में नानी-दादी सुनाया करती थी, जिसमें अपने अपने दुख दूर करने लोग एक पहुंचे हुए संत के पास जाते हैं और वे कहते है कि मैं निश्चित ही सबके दुख दूर कर दूंगा। बस किसी एक ऐसे घर से एक मुट्ठी चावल ले आओ, जहां कोई दुख न हो और उस घर में सभी सुखी हों। अंत में सब निराश लौट आते हैं, क्योंकि संसार में पूरी तरह सुखी कोई घर नहीं है।

दोनों कथाओं का सार यही है कि दुख या बुरे दिन या निराशा का अंधकार उस बहुत-सी गांठ लगी रस्सी की तरह है, जिसकी गांठ बहुत ही धीरज के साथ हमें ही खोलनी है। सबके पास अपनी-अपनी समस्याओं का पिटारा है, इसलिए दूसरों से उम्मीद के बजाय अपनी समस्याओं को अपनी समझदारी से निपटाना है। यहां समझदारी शब्द बहुत मायने रखता है, क्योंकि बुरे या दुख के समय में समझदारी कई बार काम करना बंद कर देती है और व्यक्ति उन रास्तों पर चल पड़ता है जो सुलझन की बजाय उलझन की तरफ लिए जाती है।

अगर हम वास्तव में पढ़े-लिखे होने का दावा करते है या कम पढ़े-लिखे भी हैं तो भी अगर हमारे अपने (दुनिया नहीं) परिजन हमारे साथ हैं तो हम दुखों की नदी में डूबने के बजाय उससे पार पा सकते हैं। सत्संग, सद्साहित्य, आपसी विचार-विमर्श, परिवारजनों की सलाह और सबसे बढ़कर सकारात्मक कोशिश तथा धैर्य के साथ कठिन समय में भी सरल हुआ जा सकता है। बार-बार खुद को कहना होगा कि सिर्फ मेरा दुख ही सबसे बड़ा नहीं है। वे दिन नहीं रहे तो ये भी नहीं रहेंगे। अपने भीतर यह भरोसा पैदा होना ही दुखों के दूर होने की शुरुआत है।