आत्मीय होना किसी का गौरव की बात है। आत्मीय होने का संबंध आत्मा से जोड़ा जाता है, जो मन और बुद्धि से आगे है। आत्मीयता शब्द का अर्थ अपनेपन, अपनत्व या अपने करीबी के रूप में लिया जाता है। इसे बहुत ही कोमल और पवित्र भाव माना जाता है। हम जिसको आत्मीय बना लेते हैं, उसको दिल की गहराई तक प्रेम करते हैं। उसकी हर पल चिंता करते और ध्यान रखते हैं। अपने ईष्ट से उसके कल्याण की कामना करते हैं। उसके बिना कहे या बिना मांगे ही अभीष्ट को प्रस्तुत कर देते हैं। यही आत्मीयता है और आत्म-तत्त्व का विस्तार भी।

आत्मीयता प्रदर्शन या किसी के सामने इसे जताने का विषय ही नहीं है। चुपचाप मुदित या कातर होना ही सच्ची आत्मीयता कही जाती है। हमारी वाणी की मृदुता और कंपन, ललाट की रेखाएं और नयनों के कोर आत्मीयता को दर्शाने वाले स्रोत हैं। उदाहरण के लिए, जब हम कभी अपने स्वजन या स्रेहीजन की उन्नति या प्रगति को देखते हैं तो मन थोड़ा भावुक हो जाता है। उनसे मिलने पर कुछ कहते हुए गला रुंधने लगता है और आंखें खुशी से नम हो जाती हैं। हम उन्हें अंक में भर लेते हैं। अपनी झोली फैलाकर उनकी बेहतरी के लिए दुआएं मांगते हैं। यही आत्मीयता का प्रत्यक्ष दर्शन है। दूसरी ओर आत्मीय जन के दुखी या निराश होने पर हम भी अपने मन के किसी कोने में दुख की आंच को महसूस करते हैं। स्वयं भी उदास और अन्यमनस्क हो जाते हैं। दिनचर्या में हमारा मन नहीं लगता और अपने आत्मीय जन को उस निराशाजनक परिस्थिति से निकालने में भरपूर कोशिश भी करते हैं। यही आत्मीयता की सच्ची कसौटी भी है। इस लगाव की पृष्ठभूमि भी होती है, जब किसी दौर में आपसी सद्भाव या लगाव की वजह से ऐसी संवेदनाओं का विकास होता है, जब कोई व्यक्ति आत्मीय हो जाता है।

आत्मीय होना भी कोई आसान काम नहीं है। केवल रक्त संबंध आत्मीयता के आधार होंगे, ऐसा भी नहीं है। बल्कि इतिहास साक्षी है कि रक्त के संबंधी ही एक-दूसरे के रक्त के प्यासे भी रहे हैं। सारे षड्यंत्र, कुचक्र और लाक्षागृह रक्त संबंध वालों ने ही बुने हैं। वहीं आत्मीय होने के लिए किसी का संस्कारी, श्रद्धामय और सद्भावी होना बहुत जरूरी है। तभी हम किसी की आत्मा तक पहुंच बना सकते हैं। यह परकाया प्रवेश करने के समान है। इसलिए सद्गुणी और आज्ञाकारी होकर हम भी किसी के आत्मीय बन सकते हैं। यहां रक्तसंबंधी होने की बाध्यता नहीं है। रिश्ते-नाते से बाहर ऐसे तमाम लोग मिल जाएंगे, जिनके लिए हमारे मन में ज्यादा मजबूत जगह बन जाती है। यों भी, सुख में साथ होने के मुकाबले दुख में साथ खड़े होने वाले लोग अपने आप हमारे दिल में उतरते चले जाते हैं और आत्मीय हो जाते हैं।

आज के दौर की आत्मीयता और उसके उद्घाटन पर गौर किया जा सकता है। आत्मीयता के आवरण प्याज की बारीक परतों के समान झीने से नजर आते हैं। मसलन, आत्मीयता का ढोंग, आत्मीयता का प्रपंच और आत्मीयता का राग आदि। आजकल पैमाने बदल रहे हैं। आत्मीयता का खेल बड़े नाप-तोल के साथ खेला जाता है। मानवीय स्वभाव कभी भी एक सरल और सीधी रेखा के समान नहीं होता है। वह कब वक्राकार या सर्पिलाकार हो जाए, कोई गारंटी नहीं है। किसी लचीली वस्तु की तरह आत्मीयता भी घटती-बढ़ती रहती है। यह बाजार की मांग और पूर्ति के संतुलन से प्रभावित होने लगी है। दूसरे, किसी भी व्यक्ति के प्रति हमारी आत्मीयता हमेशा एक जैसी नहीं रहेगी। घर-परिवार के बच्चों के लिए भी अलग-अलग हो सकती है। जो बालक आज्ञाकारी, वफादार और प्रगतिशील होता है, उसके प्रति हमारी आत्मीयता हद से ज्यादा होती है। उसका एक बड़ा-सा नुकसान अन्य संतानों में विद्रोह और ईर्ष्या के रूप में देखा जा सकता है।

इसके अलावा, सामाजिक आत्मीयता के भी कई सोपान होते हैं। हमारे सगे-संबंधी, रिश्तेदार, पड़ोसी-पहचान वाले और दोस्त। इनमें क्या हमारी आत्मीयता सबके साथ एकरस होती है? शायद नहीं। आत्मीयता का सहज बीजारोपण सामने वाले के हमारे प्रति व्यवहार से होता है। हमारी स्वीकृति, सम्मान और विश्वास। हमारी चिंता, ध्यान और अपेक्षाओं की पूर्ति आत्मीयता का खाद-पानी होती है। हम उस पर अलग से ध्यान देते हैं और उस पर सोचते हैं। चिंतन करते हैं और वक्त जरूरत पर छाता बनकर तन भी जाते हैं। इसके विपरीत, अगर हम घर-परिवार और समाज में निरंतर उपेक्षित और अपमान को सहन कर रहे हैं, तो किसी के प्रति भी आत्मीयता का विकास नहीं हो सकेगा। नतीजे में हम विद्रोही और किसी पक्ष ो अलग होने के समर्थक हो जा सकते हैं। मथुरा हमेशा तीन लोक से न्यारी ही बसेगी।