पल्लवी सक्सेना

कहते हैं कि जिस घर में बुजुर्ग हंसते-मुस्कुराते हैं, उस घर में भगवान रहते हैं। लेकिन शायद यह गए जमाने की बातें लगने लगी हैं। अब तो बहुत से घरों के बुजुर्ग वृद्ध आश्रमों में दिखाई देने लगे हैं और जिन घरों में ऐसा नहीं है, उन घरों के बुजुर्ग हंसना-हंसाना तो दूर, साधारण बातें करने को भी तरसते हैं, क्योंकि आज की युवा पीढ़ी उनके साथ समय बिताना ही नहीं चाहती। सभी अपनी-अपनी जिंदगी में व्यस्त हैं।

अब तो यों भी घर के बेटे और बहू, दोनों ही कामकाजी होते हैं, तो किसी के पास वक्त नहीं बचता है घर के बुजुर्गों के पास बैठने का। रही बात बच्चों की तो वे भी वही करते हैं, जो देखते हैं। कहने को आज के समय में ‘सब का सहारा एक मोबाइल बेचारा’ ही बचा है। इसलिए उन्हें भी समय काटने और संपर्क साधने के लिए पकड़ा दिया गया है।

लेकिन सोचने वाली बात यह है कि ऐसे कितने बुजुर्ग हैं आज, जो राजी-खुशी अपना समय मोबाइल के सहारे काट लिया करते हैं या काटना चाहते हैं। अधिकतर बुजुर्गों के लिए आज भी किसी से बोलना-बतियाना ही उनकी आसक्ति है। इसलिए वे अपने मोबाइल का अधिकांश उपयोग भी अपने नाते-रिश्तेदारों से फोन पर बात करके ही करते हैं। वरना सोशल मीडिया उनकी मजबूरी ही होती है।

वह भी शायद इसलिए, क्योंकि अधिकतर बुजुर्गों के बच्चे उन्हें छोड़कर दूर देश में जा बसे हैं। तो उनसे संपर्क कैसे हो, इसलिए मजबूरी के कारण उन्हें यह सब चलाना सीखना पड़ता है, ताकि उन्हें बच्चों की खैर-खबर आसानी से प्राप्त हो सके। इसी तरह आधुनिकता की मार को, यानी तेजी से बदलती तकनीकों को सहते हैं बुजुर्ग।

अगर हम उनसे उनकी पसंद या नापसंद पूछने जाएंगे तो वे दो घड़ी साथ बैठकर बोलने-बतियाने को ही प्राथमिकता देते नजर आएंगे। अब सवाल यह उठता है कि आखिर ऐसा क्यों है? क्यों घर के युवा बुजुर्ग व्यक्तियों के साथ बैठने-उठने से कतराते हैं? दरअसल, एक वजह शायद यह होती है कि बुजुर्गों को घर के युवाओं से शायद जरूरत से ज्यादा उम्मीदें होती हैं और उन्हें अपने से छोटे व्यक्ति हमेशा ही युवा प्रतीत होते हैं।

लेकिन वक्त बदल रहा है और युवाओं की सोच भी बदल रही है। नतीजा, एक सीमा के बाद वे भी परेशान हो उठते हैं और वहां से चले जाना चाहते हैं। ऐसा ही घर के बच्चों के साथ भी होता है। पहले तो वे दौड़-दौड़ कर दादा-दादी, नाना-नानी का काम कर दिया करते हैं, लेकिन फिर धीरे-धीरे बुजुर्गों की उम्मीदों के आगे वे कटते जाते हैं। यों भी आज की पीढ़ी आधुनिकता के दौर में पहले की पीढ़ी की तुलना में अत्यधिक आलसी है।

फिर भी जब वह मन मारकर सम्मान की खातिर थोड़ा कुछ कर देती है, तब बुजुर्गों के भीतर उनके प्रति आकांक्षा इतनी बढ़ जाती है कि जिसे आमतौर पर पूरा नहीं किया जा पाता है। इसका मतलब यह नहीं है कि बुजुर्गों का बच्चों से उम्मीद रखना गलत है या उसमें कोई बुराई है। वे घर के बड़े होते हैं और बढ़ती उम्र के साथ उनका उम्मीद रखना गलत नहीं है, लेकिन हर चीज की एक सीमा होती है। उम्मीद की भी है, क्योंकि जब तक वह पूरी होती रहती है, तब तक तो ठीक, लेकिन जब वह पूरी नहीं हो पाती तो सबसे ज्यादा दुख और तकलीफ भी बुजुर्गों को ही होती है।

इस प्रकार की समस्या उन घरों में ज्यादा देखने को मिलती है, जहां ताली एक हाथ से बजती है। या तो बुजुर्गों के भीतर अपना वक्त ठहरा होता है या फिर बच्चे या युवा बुजुर्गों को, उनकी सोच-समझ को, उनकी जरूरतों को समझने के लिए तैयार नहीं होते। यह ध्यान रखने की जरूरत है कि बुजुर्गों के साथ-साथ सभी सम्मान पाने के अधिकारी होते हैं। कहा जाता है कि ‘हम जिसको जितना सम्मान देंगे, बदले में उतना ही पाएंगे।’ लेकिन शायद एक उम्र की सीमा के बाद बुजुर्ग वास्तविकताओं का सामना नहीं कर पाते हैं या फिर बच्चे समय, व्यक्ति और परिस्थितियों का आकलन करने में नाकाम रहते हैं।

हालांकि सबकी कहानी एक-सी नहीं होती। मसलन, कोई परिवार बड़ों के आशीर्वाद से फल-फूल रहा होता है, तो किसी के घर के बुजुर्ग वृद्धाश्रम में अपनी शेष उम्र काट रहे होते हैं। हर घर की कहानी अलग होती है। हर बात की वजह अलग-अलग होती है। इसलिए हम किसी एक वजह को देखते हुए किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सकते। जहां तक हो सके, अपने घर के बुजुर्गों को हमेशा अपने साथ रखना चाहिए, खुश रखना चाहिए।

अपनी जिंदगी से कुछ पल चुरा कर उनके साथ समय बिताया जाए। फिर दिखेगा कि उन्हें हमारे प्यार-दुलार और थोड़े से समय से अधिक और कुछ नहीं चाहिए। यों समझ लिया जाए कि जब तक वे हैं हमारे घर में, खुद जिंदगी खिलखिलाती है… जिस दिन वे चले जाते हैं, तब हमें अहसास होता है कि हमने क्या खो दिया है!