नई शिक्षा नीति, 2020 को स्वतंत्र भारत की तीसरी प्रमुख शिक्षा नीति के रूप में देखा जाता है। नीति दस्तावेज में ‘भारतीयता’ की भावना, मातृभाषा के माध्यम से शिक्षण और स्थानीय कला और संस्कृति से जोड़कर अधिगम की बात की गई है। शिक्षा के जमीनी ढांचे में विशेषकर राज्यों के स्तर पर इसका ठोस क्रियान्वयन अभी भी कई अड़चनों से घिरा हुआ है।

दरअसल, नई शिक्षा नीति केवल पाठ्यक्रम निर्धारण का केंद्र बनकर रह गई है, जबकि हमारी शिक्षा नीति भारतीय भाषाओं, कला, संस्कृति और लोक संस्कृति के संवर्धन को आगे बढ़ाने वाली भी होनी चाहिए। पांच साल बीत जाने के बाद अभी तक न तो एकरूपता का पाठ्यक्रम निर्धारित हो पाया है और न ही भाषाई स्तर पर कोई प्रगति दिखाई दे रही है। इसके बिना राज्यों के लिए इसको आगे समझना मुश्किल लग रहा है।

भारत के दर्शन में ‘सत्यं, शिवं, सुंदरम्’ की अवधारणा शिक्षा के माध्यम से मानवीय मूल्यों को विकसित करने का आधार प्रदान करती है। नई शिक्षा नीति में भारतीय दर्शन और लोक परंपराओं को पाठ्यक्रम से जोड़ने की बात कही गई है, लेकिन उसका अनुपालन अभी संस्थागत रूप से दृश्यमान नहीं हुआ है। अगर विद्यार्थियों को अपनी परंपराओं और जन संस्कृति की समझ छोटे स्तर से ही दी जाए, तो भविष्य में भारतीय समाज एक जागरूक, सांस्कृतिक और स्वाभिमानी व्यक्तित्व का निर्माण कर सकता है।

संस्कृति का अर्थ केवल नृत्य, संगीत या चित्रकला नहीं

संस्कृति का अर्थ केवल नृत्य, संगीत या चित्रकला नहीं है, बल्कि यह समाज के व्यवहार, भाषा, उत्सव, पहनावे और जीवन दृष्टि में प्रकट होती है। शिक्षा अगर केवल आर्थिक आत्मनिर्भरता का साधन बन जाए, तो वह अधूरी है। नई नीति को आधुनिक विज्ञान और तकनीकी शिक्षा के साथ-साथ सांस्कृतिक चेतना को सशक्त करने के बीच संतुलन बनाना था।

देश के अलग-अलग राज्यों में विभिन्न कलाएं, सांस्कृतिक गतिविधियां, परंपराएं, भाषाई अभिव्यक्ति, कलाकृतियां, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहर आदि परिलक्षित होता हुआ दिखाई देता है। उसकी जानकारी नई शिक्षा नीति में पाठ्यक्रम और भारतीय दर्शन के माध्यम से विद्यार्थियों को नियमित रूप से होनी चाहिए। भारत में खूबसूरत हस्तशिल्प, हाथ से बनी कला और संस्कृति का संवर्धन आम लोगों के बीच है, लेकिन समाज और राज्यों में अलग-अलग रूप से सामाजिक कल्याण के लिए, सांस्कृतिक जागरूकता का अपना बड़ा महत्त्व रहा है।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति में इसका उल्लेख तो किया गया है, पर पांच साल के बाद भी विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों के पाठ्यक्रम का हिस्सा नहीं बन पाया है। विद्यार्थियों का एक बड़ा वर्ग शिक्षा प्राप्त करके अपने व्यापार या नौकरी पेशे में आ जाएगा, तब वह भारत की सांस्कृतिक गतिविधियों से अछूता ही रहेगा। यहां का इतिहास, कला, भाषा और परंपरा की भावना ज्ञान के विकास द्वारा ही सकारात्मक सांस्कृतिक पहचान बनाता है।

हर राज्य में अपनी विशिष्ट कला-परंपराएं, लोकगीत, नृत्य रूप, हस्तशिल्प, चित्रकला और भाषाई शैलियां विद्यमान हैं, जो भारतीय पहचान को पोषित करती हैं। नई शिक्षा नीति का सबसे बड़ा अवसर यह था कि इन क्षेत्रीय और लोककलाओं को शिक्षा के मुख्यधारा पाठ्यक्रम का अंग बनाया जाए, ताकि विद्यार्थियों में अपने समाज, संस्कृति और परंपरा के प्रति गर्व और अपनापन विकसित हो।

अफसोस की बात है कि यह विचार अभी तक दस्तावेजों में सीमित है। नीति में जिन पहलों का उल्लेख है, वे विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में ठोस विषय संरचना के रूप में विकसित नहीं हो पाई हैं। नई नीति के अंतर्गत बाल्यावस्था से लेकर उच्च शिक्षा तक, विद्यार्थियों के मातृभाषा में अध्ययन की सिफारिश की गई है। यह सैद्धांतिक रूप से भारतीय भाषाओं को पुनर्जीवित करने का प्रयास है।

संस्कृति हमारी विरासत और भाषा की संरचना से तय होती है। कला-सांस्कृतिक पहचान जागरूकता को समर्थ करता है, समाज को उन्नत करने के अलावा सृजनात्मक क्षमताओं को भी बढ़ाता है। भारतीय कलाएं, प्रारंभिक बाल्यावस्था देखभाल और शिक्षा से आरंभ करते हुए शिक्षा के सभी स्तरों पर विद्यार्थियों को प्रदान की जानी चाहिए।

नई शिक्षा नीति के एक अध्याय में भारतीय भाषाओं, कला और संस्कृति की बात की गई है। पर यह बात केवल दस्तावेजों तक सीमित न रहे, तो हम भाषाओं के आधार पर कलाओं एवं संस्कृति को आगे बढ़ाने का काम कर सकते हैं। वे भारतीय भाषाएं भी, जो आधिकारिक रूप से लुप्तप्राय की सूची में नहीं हैं, उनके माध्यम से शिक्षण और अधिगम को स्कूल और उच्चतर शिक्षा के प्रत्येक स्तर के साथ एकीकृत करने की आवश्यकता शिक्षा नीति में होनी चाहिए।

पश्चिमी शिक्षा माडल का प्रभाव गहराई तक पहुंच चुका है

वर्तमान समय में जब वैश्वीकरण और पश्चिमी शिक्षा माडल का प्रभाव गहराई तक पहुंच चुका है, तब भारतीय शिक्षा नीति को केवल प्रतिस्पर्धात्मक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक स्वावलंबन के केंद्र के रूप में कार्य करना होगा। नई शिक्षा नीति के उद्देश्यों को धरातल पर प्राप्त करने के लिए सरकार, शैक्षणिक संस्थान और समाज- तीनों का समन्वित प्रयास आवश्यक है।

शिक्षा तभी सार्थक होगी, जब वह व्यक्ति को केवल रोजगार योग्य नहीं, बल्कि सांस्कृतिक, रचनात्मक और सामाजिक मूल्यों से परिपूर्ण नागरिक के रूप में विकसित करे। इस दृष्टि से नई शिक्षा नीति एक नए भारत के निर्माण का दस्तावेज बन सकती है, अगर इसे औपचारिक नीतिगत सीमाओं से निकालकर सांस्कृतिक-सामाजिक क्रियान्वयन के स्तर तक ले जाया जाए। भारत का भविष्य तभी उज्ज्वल होगा, जब उसकी शिक्षा भारतीय भाषाओं, कला, संस्कृति और परंपरा से जुड़े मूल्यों के साथ आगे बढ़ेगी।

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