जब तक जीवन है, तब तक कर्म है। इस मर्म को धर्म समझकर जो भी व्यक्ति समय-प्रवाह के साथ गतिशील रहेगा, दरअसल वही सार्थक कर्मशील मनुष्य है। यह बात समान रूप से सब पर लागू होती है। कई बार शासकीय सेवा में रहे लोग सेवानिवृत्ति के बाद ऐसा विचार करने लगते हैं कि ‘अब जीवन में क्या धरा है। चालीस साल तो सरकारी सेवा कर ली, अब आराम करेंगे, अब कोई काम नहीं’। उनकी यह सोच धीरे-धीरे उन्हें घोर निराशावादी बना देती है। जब किसी मनुष्य का जीवन लक्ष्यहीन हो जाता है, तब वह लंबा नहीं चल पाता।
हम सबने यह देखा है कि अनेक अधिकारी-कर्मचारी सेवानिवृत्ति के एक-दो साल बाद ही इस संसार से अचानक विदा हो गए। किसी को हृदयाघात हुआ, तो किसी को किसी लंबी बीमारी ने घेर लिया और उन्होंने बिस्तर पकड़ लिया। इसके परिपार्श्व में बस यही कारण था कि उन्होंने अपने जीवन को सुदीर्घ रचनात्मक यात्रा का हिस्सा नहीं बनाया। वे हर समय यही सोचते रह गए कि बहुत जी लिया। जबकि सच पूछा जाए तो चाहे सरकारी नौकरी हो या गैर सरकारी, उस अध्याय की पूर्णता के बाद जीवन का दूसरा सकारात्मक अध्याय शुरू होता है। और वह है निरंतर कर्मरत रहने का अध्याय।
सेवानिवृत्ति के बाद भी नियमित करते रहना चाहिए काम
यह माना कि सेवानिवृत्ति के बाद लोगों के पास पहले की तरह आठ घंटे वाला कोई नियमित काम नहीं रहता, लेकिन बहुत सारे ऐसे प्रकल्प हो सकते हैं, जिनसे जुड़ कर व्यक्ति अपने जीवन को बहुत व्यवस्थित और अनुशासित कर सकता है। वह अपनी दिनचर्या को अपनी योजनाओं के साथ ढाल कर जीवन की एक लंबी पारी और खेल सकता है। इस पारी में वह लोकमंगल, लोक कल्याण के कुछ कार्यों का चयन कर सकता है। किसी सामाजिक संस्था से जुड़ कर अपनी सेवाएं दे सकता है, बच्चों को निशुल्क शिक्षा दे सकता है, अपने आस-पड़ोस में सामाजिक कार्य कर सकता है। बचे कुछ समय में स्वाध्याय या भक्ति कर सकता है। कुछ समय मनोरंजन के लिए भी दे सकता है। अगर रुचि हो, तो कुछ लिख-पढ़ भी सकता है। रात को जल्दी सोकर सुबह जल्दी जाग कर प्रात: भ्रमण, योग आदि करके स्वास्थ्य को भी बेहतर रख सकता है। महिलाएं सेवानिवृत्ति के बाद अपनी रुचि के मुताबिक अपनी व्यस्तता के काम का चुनाव कर सकती हैं। और इस तरह अपने समय का सदुपयोग किया जा सकता है।
कहने का मतलब यह है कि करने वाले के लिए काम-ही-काम है, लेकिन जो लोग सेवानिवृत्ति के बाद आराम करने की मानसिकता में रहते हैं, वे धीरे-धीरे शारीरिक दृष्टि से विभिन्न व्याधियों के शिकार हो जाते हैं और फिर उनका बाकी जीवन दवाओं के सहारे गुजरता रहता है। जबकि होना यह चाहिए कि उनका जीवन दुआओं से भर जाए। जब लोग समाज में मानवता के कार्य के लिए अपना जीवन समर्पित करेंगे, तो स्वाभाविक है कि उन्हें सबकी दुआएं मिलेंगी और उनकी यश-कीर्ति फैलेगी। इसके लिए उन्हें पैसे खर्च नहीं करने पड़ते, केवल समयदान या श्रमदान करना होता है। लोगों से प्रेम से मिलना-जुलना पड़ता है। समाज में रहने वाले सामान्य लोग किसी से और कुछ नहीं चाहते। वे प्रेम के दो मीठे बोल सुनना चाहते हैं और अगर कोई समर्पित भाव से समाज सेवा करता है, तो उसकी सेवा करते हैं। यह प्रशंसा पाना ही मनुष्य को ऊर्जा से भर देता है। मगर बहुत कम लोग इस सत्य को समझते हैं। वे अनजाने में ही अपने जीवन को नकारात्मकता की ओर धकेल देते हैं। कुछ अपनी तथाकथित अकड़ के कारण जन से कट जाते हैं।
सच्चे मन से की गई समाज सेवा हृदय को परमानंद से भर देती है
जीवन की सार्थकता खाली-पीली समय बिताने में नहीं है। इसे जितनी अधिक रचनात्मकता के साथ जीने की कोशिश करेंगे, उतना ही आनंद बढ़ता जाएगा। उम्र तो बढ़ती जाएगी, लेकिन ऊर्जा भी बढ़ती रहेगी। हम देखते हैं कि अनेक बड़े-बड़े प्रोफेसरों ने अपनी शासकीय नौकरी छोड़कर सुदूर जंगल में जाकर आदिवासियों की सेवा में अपना शेष जीवन समर्पित कर दिया। बड़े-बड़े नामी डाक्टरों ने सरकारी नौकरी छोड़कर किसी कल्याणकारी संस्था से जुड़कर मरीजों की सेवा में जीवन व्यतीत करने का संकल्प किया। अनेक धनपति ऐसे भी देखे हैं, जिन्होंने एक समय के बाद अपना बाकी जीवन लोक कल्याण के लिए समर्पित कर दिया।
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दरअसल, सच्चे मन से की गई समाज सेवा हृदय को परमानंद से भर देती है। इसका सुख वही ले पाते हैं, जिनका हृदय ईमानदार होता है और जिनमें कुछ कर गुजरने की ललक होती है। जो पाखंड और कोई दिखावा नहीं करते, समाज सेवा जिनके लिए व्यवसाय नहीं है वे आत्मिक सुख के लिए परमार्थ करते हैं। अनुभव यही बताता है कि सेवानिवृत्ति के बाद जीवन को समाज के लिए समर्पित करने वाले लोग लंबी आयु प्राप्त करते हैं। सबसे अच्छी बात यह है कि ऐसे कर्मठ लोग अंतकाल तक पूरी तरह से स्वस्थ भी रहते हैं। बुढ़ापा होने के बावजूद वे मन से युवा रहते हैं, क्योंकि उनमें कुछ कर गुजरने का भाव होता है। इसलिए हर व्यक्ति को अपने जीवन के उत्तरार्ध को व्यवस्थित करने की तैयारी पूर्वार्ध से ही कर लेनी चाहिए। ठीक उसी तरह जब अपना स्टेशन आने वाला होता है, तो रेलयात्री अपना सामान समेटने लगता है। जैसे विद्यार्थी परीक्षा पास करने के लिए अध्ययन करने की एक समय-सारिणी बनाता है, ठीक उसी तरह जीवन की परीक्षा पास करने के लिए सेवानिवृत्ति के बाद भी एक समय-सारिणी बनाना बहुत जरूरी है। इस समय-सारिणी के सहारे कोई भी अपने बाकी जीवन की परीक्षा में हमेशा उत्तीर्ण रहेगा। जो ऐसा नहीं करते, वे कदम-कदम पर निराशा से घिरते हैं और परेशान रहते हैं।